________________
सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना
६१
के रुपये आए या नहीं ? अभी तेजी - मन्दी कैसे है ? तुमने माल बेचा या नहीं ? उसका ब्याज मत चुकाना ? सेठ इन्हीं बातों में उलझा जा रहा था । संन्यासी ने देखा । वह सेठ की शय्या पर पहुँचा। सेठ ने पहचानते हुए पूछा- महात्मन् ! आपने छड़ी दी नहीं । क्या कोई महामूर्ख नहीं मिला ? संन्यासी बोला- यह छड़ी अब मैं तुमको दे रहा हूँ, क्योंकि तुमसे बढ़कर मुझे कोई महामूर्ख नहीं मिला । सेठ बोला- मैं मूर्ख कैसे ? संन्यासी ने कहा- मरने जा रहे हो, मृत्युशय्या पर पड़े हो, न इष्ट का स्मरण कर रहे हो और न परमात्मा का भजन कर रहे हो । गोरखधन्धे में उलझ रहे हो। तुमसे बढ़कर मूर्ख इस दुनिया में कोई हो नहीं सकता। यह लो छड़ी।
पदार्थ सम्बन्धी चेतना इतनी प्रगाढ़ बन गई है कि वह अन्तिम समय तक भी नहीं छूटती । मरते दम तक औषधि लेने की तमन्ना, जीवित रहने की तमन्ना बनी रहती है। वह जिजीविषा उसे सब कुछ करने को बाध्य करती है ।
जो व्यक्ति मरना सीख लेता है वह सम्बन्धातीत चेतना में चला जाता है। भगवान् महावीर ने जीने की कला बताई या नहीं, उन्होंने मरने की बहुत सुन्दर कला बतलाई है। जो व्यक्ति मृत्यु के प्रति सावधान होता है, अच्छी मौत से मरना चाहता है, वह अपने आप सुन्दर जीवन जीता है। जो मृत्यु की चिन्ता नहीं करता, जो पण्डितमरण या समाधिमरण की कामना नहीं करता उसका जीवन कभी शान्तिपूर्ण, समाधिपूर्ण नहीं हो सकता। जीवन और मरण- दोनों परस्पर गुँथे हुए हैं। इनको अलग-अलग काटकर हम देख नहीं सकते, व्याख्या नहीं कर सकते । हमारे जीवन का ऐसा कौन-सा क्षण है जो जीवन का क्षण है और मौत का क्षण नहीं है। आदमी जब से जन्मा तब से मरना प्रारम्भ कर दिया । इसे पारिभाषिक शब्दावली में कहा जाता है - 'आवीचिमरण' । एक होता है- मारणान्तिक मरण । यह अन्तिम मृत्यु है । आवीचिमरण क्षण-क्षण में होने वाला मरण है । जीवन और मृत्यु का क्षण अलग नहीं है । चढ़ने और उतरने की सीढ़ियाँ दो नहीं होतीं। जिन सीढ़ियों से चढ़ा जाता है उन्हीं सीढ़ियों से उतरा जाता है। जिन सीढ़ियों से उतरा जाता है उन्हीं सीढ़ियों से चढ़ा जाता है। केवल आरोहण और अवरोहण का अन्तर
है ।
जीवन और मरण में भी कोई अन्तर नहीं है। जीवन का एक सम्बन्ध है । इसके विषय में हमारी मूर्च्छा है। हम केवल सम्बन्ध को ही जानते हैं, विसम्बन्ध को नहीं जानते । शरीर, जीवन और पदार्थ के साथ सम्बन्ध हम जानते हैं । मेरी माँ, मेरे पिता - यह सम्बन्ध तो है ही । यदि इतना ही मानकर बैठ जाते हैं और सम्बन्धातीत चेतना को गौण कर देते हैं तो समस्या पैदा हो जाती है। यदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org