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सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना सम्बन्ध है, उसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं भी है। अनेकान्त का सूत्र है-अस्ति
और नास्ति, है भी और नहीं भी है। यदि हम केवल अस्ति को-है भी को ही स्वीकारेंगे तो उलझन पैदा हो जाएगी। साथ-साथ हमें यह भी स्वीकारना होगा कि नास्ति-नहीं भी है। शरीर मेरा है' और 'शरीर मेरा नहीं भी है। क्योंकि यह पचास वर्ष पहले बना ही नहीं था और पचास वर्ष बाद छूट जाने वाला है। इस स्थिति में वह मेरा कैसे रहा ? इस पहलू पर जब हम सोचते हैं तो आँखों के सामने दो सचाइयाँ तैरने लग जाती हैं। 'शरीर मेरा है'-यह भी सच है और शरीर मेरा नहीं है'-यह भी सच है। इन दोनों कोणों को एक साथ स्वीकारना ही अनेकान्त है, पारमार्थिक सत्य है और अध्यात्म की साधना है। मैं अनेकान्त और अध्यात्म की साधना को अलग नहीं मानता। आध्यात्मिक साधना से जिस दर्शन का विकास होता है, वह है अनेकान्त। आध्यात्मिक साधना के बिना अनेकान्त जीवन में फलित नहीं हो सकता। फिर तो व्यक्ति आग्रही बन जाएगा, एक ही बात को पकड़कर बैठ जाएगा।
इस दुनिया में दो खेमे हैं। एक खेमा है भौतिकवाद का और दूसरा खेमा है अध्यात्मवाद का। भौतिकवाद का आग्रह है कि इस दुनिया में जो कुछ सार है, वह पदार्थ ही है। अध्यात्मवाद का आग्रह है कि जगत् में जो कुछ सार है, वह आत्मा ही है। दोनों एकांगी दृष्टिकोण हैं। कोई कितना ही अध्यात्मवादी हो, भौतिकता के बिना उसका काम नहीं चलेगा, पदार्थ के बिना उसका काम नहीं चलेगा। पदार्थ को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। आत्मा का एकान्त आग्रह भी जटिलता पैदा करता है। आज ही नहीं, प्राचीन काल में भी एक आग्रह पनपा था कि धर्म से सब कुछ हो जाता है। प्राचीन आचार्यों ने यहाँ तक लिख डाला
प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां, रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः,
किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिं धर्मकल्पद्रुमस्य ।। -धर्म कल्पवृक्ष है। उसके एक नहीं, अनेक फल हैं। विस्तृत साम्राज्य, मनोज्ञ स्त्री, अच्छे लड़के, सुस्वर, सुन्दर रूप, रसपूर्ण कविता बनाने की कला, चातुरी, मधुस्वर, आरोग्य, गुणों की समृद्धि, सज्जनता और सुबुद्धि कितना गिनाऊँ, ये सारी धर्म की परिणतियाँ हैं।
एक ओर धर्म सिखाता है कि त्याग करो और दूसरी ओर साम्राज्य की प्राप्ति और भोग धर्म का फल है। एक ओर धर्म कहता है कि अनासक्त रहो, ब्रह्मचारी बनो और दूसरी ओर सुन्दर स्त्री का मिलना धर्म का फल है। कितना विरोधाभास !
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