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सामाजिक सम्बन्ध और सम्बन्धातीत चेतना
सामाजिक सम्बन्धों में तब तक परिष्कार सम्भव नहीं है जब तक सम्बन्धातीत चेतना न जाग जाए। एकान्तवादी होना या एकांगी होना हमें बहुत पसन्द है। अनेकान्त में हमारा विश्वास बहुत कम है। सर्वांगीण दृष्टि से देखना और पक्षमुक्त होकर देखना हमने सीखा ही नहीं। सत्य तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है-अनेकान्त । अनेकान्त का अर्थ है-पक्षातीत चेतना। वह किसी एक के प्रति नहीं झुकती। उससे (अनेकान्त से) तटस्थ रहकर सारे पक्षों को एक साथ समन्वित कर निष्कर्ष निकाला जा सकता है। _ मनुष्य सम्बन्ध की अच्छाई के विषय में जानते हैं। बुराई को ओझल कर देते हैं। वे सम्बन्ध की बुराई के विषय में जानते हैं, अच्छाई को ओझल कर देते हैं। सम्बन्धों की अपनी अच्छाइयाँ हैं, उपयोगिता है तो उनकी खामियाँ और कमजोरियाँ भी हैं। दोनों बातें स्पष्ट और ज्ञात रहनी चाहिए।
__ हमारा सबसे पहला सम्बन्ध रहता है-शरीर के साथ। 'शरीर मेरा है'. इसको कोई अस्वीकार नहीं करेगा। यदि इसे कोई अस्वीकार करता है तो वह बोलेगा कैसे ? खाएगा-पीएगा कैसे ? यह स्वीकार करना कि 'शरीर मेरा नहीं है', और फिर उससे सतत काम लेते रहना कौन-सी सचाई है। जो कहता है 'शरीर मेरा नहीं है' और सब कुछ शरीर से करता जाता है लोग उसे निरा मूर्ख ही मानेंगे। 'शरीर मेरा है'-यह बहुत स्पष्ट है। और 'शरीर मेरा नहीं है'-यह मात्र एक पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकृत है। जब व्यक्ति अनुप्रेक्षा और भेद-विज्ञान का प्रयोग करता है तब 'शरीर मेरा नहीं है'-इसे आलम्बन बनाता है। पर सामान्यतः शरीर के साथ हमारा जो सम्बन्ध है, उसे अस्वीकार नहीं कर सकते। शरीर मेरा है'-इसे मानना ही होगा। यह एक पक्षीय स्वीकृति उलझन में डाल देता है। हमने शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ लिया। अब शरीर जो नाच नचाता है वैसे ही नाचना पड़ता है। शरीर को 'मेरे' से कैसे अलग किया जाए ? बड़ी समस्या पैदा हो जाती है। सम्बन्धों की सारी समस्याएँ इसीलिए पैदा होती हैं कि हम दूसरे पक्षों को नहीं जानते । सम्बन्धातीत चेतना को नहीं जानते। एक सूत्र है-जिसके साथ हमारा
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