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समाज-व्यवस्था के सूत्र
है तब गढ़े का होना अनिवार्यता है। इस प्रकार आर्थिक व्यक्तित्व भी विरोधाभासों से मुक्त नहीं है। आज आदमी के विचार में विरोधाभास है, कार्य में विरोधाभास है और वह श्वास भी विरोधाभास की ले रहा है। इसलिए उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में विरोधाभास है।
एक बीमार डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने उसका परीक्षण किया और गोलियाँ दीं। रोगी ने पूछा-कैसे लूँ गोलियों को ?
डॉक्टर बोला-दो गोलियाँ सोने के बाद ले लेना और दो गोलियाँ उठने से पहले ले लेना।
कितना विरोधाभास। सोने के बाद दो गोलियाँ कैसे लेगा और उठने से पहले दो गोलियाँ कैसे लेगा ?
जब समाज व्यवस्था में विरोधाभास है, अर्थ-व्यवस्था में विरोधाभास है तब फिर चिन्तन में, विचार में, और वाणी में विरोधाभास कैसे नहीं होगा ? पूरी व्यवस्था में ही विरोधाभास का बोलबाला है।
तीसरा सन्दर्भ है-राजनीति का। राजनैतिक व्यक्ति राजनीति को छोड़कर जी नहीं सकता। क्योंकि जीवन पर राजनीति का सबसे ज्यादा नियन्त्रण है। और यह इसलिए कि अर्थ क्रा और समाज का नियमन भी उसके हाथ में है। इसमें भी विरोधाभास है। यहाँ सत्ता और अधिकार का संघर्ष है, कुसी का संघर्ष है। इस संघर्ष को समझाने के लिए व्यंग्य लिखा गया
एक जहाज जा रहा था। समुद्र में तुफान आया। जहाज डगमगाने लगा। जानकार व्यक्तियों ने कहा कि यह तूफान नहीं है। नीचे कोई विशाल मगरमच्छ है, जिसके कारण पानी कुलबुला रहा है और यही तूफान का रूप धारण कर रहा है। सोचा-क्या मगरमच्छ को मार डाला जाए। मगरमच्छ दिखाई दिया। उसका मुँह खुला था। उसमें जहाज से अनेक वस्तुएँ डाली गईं। एक कुर्सी भी डाल दी गई। अब आदमियों को डालना प्रारम्भ किया, जिससे कि एक-दो-चार की वलि से शेष बच जाएँ। दो अधिकारी भी यात्रा कर रहे थे। उनको मगरमच्छ के मुँह में डाल दिया गया। मगरमच्छ शान्त हुआ। मल्लाहों ने उसे पकड़ा और जहाज में लाद दिया। उसके पेट को चीरा तो देखा कि दोनों अधिकारी कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं। कुर्सी एक और अधिकारी दो थे। दोनों कुर्सी पर अपना-अपना अधिकार बता रहे थे। लोगों ने देखा कि मौत के मुंह में भी लड़ाई जारी है।
सत्ता और कुर्सी का प्रलोभन सबसे बड़ा होता है। उसके लिए संघर्ष होना स्वाभाविक है।
चौथा सन्दर्भ है-आध्यात्मिकता का। यह तीनों व्यक्तित्वों का समीकरण
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