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अस्तित्व और व्यक्तित्व
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करता है, वह देखता हुआ भी नहीं देखता। यह उपलब्धि है, साधना है। किन्तु जो मदोन्मत्त है, जो केवल वाह्य को देखता है, भीतर का स्पर्श नहीं करता, वह भी देखता हुआ नहीं देखता । यह उपलब्धि नहीं, अन्धता है। यह एक समस्या है। जब तक इसका समाधान सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर नहीं किया जाएगा तब तक समस्याएँ उलझती रहेंगी। जब तक यह मूल बात समझ में नहीं आएगी, परिवर्तन नहीं होगा। जब आन्तरिक चेतना जाग जाती है। तव सारी व्यवस्थाएँ ठीक चलती हैं। यह न मानें कि आन्तरिक चेतना के जागरण से कंवल आन्तरिक लाभ ही होता है। ऐसा नहीं है। आन्तरिक शक्ति के सहारे सारी बाह्य प्रवृत्तियाँ भी सुचारु रूप से चलती हैं। यह आधारभूत नियम है। आज पूरा समाज इसे गाण करता जा रहा है और केवल फूल और पत्तों को सींचकर वगीचे को हरा-भरा रखना चाहता है । यह असम्भव है। मैं बाह्य प्रवृत्तियों को सर्वथा छोड़ने की बात नहीं करता । मेरा कहना है कि उसके साथ इस मूलभूत तथ्य को भी जोड़ दें। इसमें व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण निहित है ।
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