Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ विरोधाभासी जीवन प्रणाली है। दोनों साथ-साथ चलेंगे। हमारे मूल्यों का सिद्धान्त विरोधों से ही निकलता है। वर्तमान में दर्शन की एक नई शाखा विकसित हुई है। प्राचीन काल में भी मूल्यों का सिद्धान्त था, आज वह बहुत विकसित हो गया है। पश्चिमी दर्शनो में मूल्यों के सिद्धान्त की काफी चर्चा है। प्रश्न होता है कि मूल्य किसे माना जाए ? इसकी अनेक परिभाषाएँ हुई हैं। जिससे इच्छा की पूर्ति हो उसे मूल्य माना जाए। इस परिभाषा के अनुसार पशुओं में भी अनेक मूल्य विकसित हुए हैं। वे भी अपनी इच्छा पूर्ति के लिए प्रवृत्ति करते हैं। और उनकी इच्छा पूरी हो जाती है। भूख और प्यास की इच्छा होती है, काम की इच्छा होती है। इच्छा की पूर्ति और विलास की पूर्ति के आधार पर मूल्य के सिद्धान्त को स्थापित नहीं किया जा सकता। यह कोई मूल्य की परिभाषा नहीं बनती। मूल्य की एक परिभाषा यह की गई है कि जो उपयोगी है, वह मूल्य है। यह भी यथार्थ परिभाषा नहीं है। क्योंकि किसी के लिए कुछ उपयोगी होता है और किसी के कुछ। सबके लिए एक ही बात उपयोगी नहीं बनती। उपयोगिता का कोई निश्चय नहीं होता। अतः यह परिभाषा भी ठीक नहीं बनती। एक परिभाषा आर्थिक की गई है कि मूल्य वह होता है जिससे विकास हो सके। यह महत्त्वपूर्ण परिभाषा है। जिससे आत्मा का विकास होता है वह मूल्य है। हम विरोधों के बीच, विरोधाभासी जीवन प्रणाली के बीच का प्रयोग इसलिए करते हैं कि उसका मूल्य है। स्वतन्त्र मूल्य है। उससे विकास होता है, जीवन का और आत्मा का। तो क्या इन विरोधों और प्रदूषणों के बीच विकास की सम्भावना की जा सकती है ? निश्चित ही की जा सकती है। यहाँ हमें एक बात का अंकन करना है कि हम जो जी रहे हैं, क्या अन्न, पानी और प्राणवायु के आधार पर जी रहे हैं ? बहुत सूक्ष्मता से ध्यान दें। क्या हम अन्न के आधार पर जी रहे हैं ? क्या हम पानी के आधार पर जी रहे हैं ? क्या हम श्वास के आधार पर जी रहे हैं ? यदि इनके आधार पर जी रहे हैं तो क्या मरते समय अन्न नहीं मिला ? पानी नहीं मिला ? श्वास नहीं आया ? दवा नहीं मिली ? हम देखते हैं कि आदमी के प्राण-पखेरू उड़ रहे हैं और उसके चारों और आक्सीजन की नलियाँ लगी हुई हैं। ग्लूकोज दिया जा रहा है। दवाइयाँ पिलाई जा रही हैं और फिर भी आदमी मर जाता है। यदि भोजन, पानी, दवा, ऑक्सीजन, ग्लूकोज ही आदमी को जिला पाता तो आदमी कभी नहीं मरता। फिर प्रश्न यही है कि हम किस आधार पर जीते हैं ? हम जी रहे हैं अपनी प्राण-शक्ति के आधार पर। हमारा जीवन हे प्राण। प्राण है तो भोजन-पानी भी काम देता है। श्वास और दवा भी काम देती है। यदि प्राण नहीं है तो सब व्यर्थ हैं। ये सारी वाह्य वस्तुएँ प्राण को ही सहारा देने वाली हैं। मूलतः जिलाने वाली नहीं हैं। हमारा जीवन अन्न, पानी, श्वास या दवा नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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