Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 52
________________ अस्तित्व और व्यक्तित्व ४७ है। इसमें स्वार्थ और विषमता का संयम घटित होता है। इसमें विषमता के स्थान पर समता प्रतिष्ठित होती है और स्वार्थ के स्थान पर त्याग आ जाता है। मैत्री का विकास होता है। पोषणशास्त्र का नियम है कि सन्तुलित भोजन के बिना स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। कोई व्यक्ति केवल अन्न ही खाए, केवल दूध ही पीए, केवल घी ही खाए तो स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा। क्योंकि इनसे एक-एक तत्त्व की ही पूर्ति होती है। स्वास्थ्य के लिए अनेक तत्त्वों की आवश्यकता रहती है। केवल श्वेतसार या कार्बोहाइड्रेट से काम नहीं चलता। सन्तुलित भोजन वह होता है जिसमें शरीर के लिए आवश्यक सभी तत्त्व मिलते हों। शरीर की पुष्टि के लिए श्वेतसार भी चाहिए, क्षार और लवण भी चाहिए, चिकनाई और विटामिन्स भी चाहिए। ये सब होते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है। इसी प्रकार सामाजिक प्राणी के लिए सामाजिकता, आर्थिकता, राजनैतिकता और आध्यात्मिकता-इन सबकी आवश्यकता रहती है। इन सबके सन्दर्भ में ही जीवन सन्तुलित रहता है। इनसे ही जीवन की सारी प्रक्रिया में सन्तुलन बना रहता है। एक की भी कमी जीवन में कमी ला देती है। यदि सामाजिक प्राणी केवल आध्यात्मिक जीवन जीने का प्रयत्न करेगा तो उसका जीवन असन्तुलित हो जाएगा। यदि वह सोचे कि मुझे समाज से क्या लेना-देना है तो उसकी भूल होगी। उसका सन्तुलन गड़बड़ा जाएगा। प्राचीन काल में अर्थव्यवस्था सामुदायिक थी और आज वह वैयक्तिक है। आदिकाल में लोग मिल-जुलकर धन्धा करते थे, मिलकर आजीविका चलाते थे। वे धन्धे ही ऐसे थे। जैसे खेती अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता। एक कवि ने कहा है-ध्यान एकाकी करे। अध्ययन में दो साथ रहें। गायन में तीन रहें। यात्रा में चार और खेती में पाँच साथ रहें। तो प्राचीनकाल में खेती आदि के कुछ ऐसे कार्य थे, जिनमें अनेक लोग साथ-साथ काम करते थे। आज अकेला आदमी बड़े धन्धे पर स्वामित्व रखता है और इतना कमा लेता है कि उसे समाज की अपेक्षा नहीं रहती। आज आर्थिक क्षेत्र में वैयक्तिकता आ गई। वे वातें तो समाजवाद की करते हैं, पर व्यक्तिगत सम्पत्ति पर उनका बड़ा अधिकार है। यह आज की समस्या है। इसलिए आज नया चिन्तन उभर रहा है कि सामदायिक नैतिकता के स्थान पर वैयक्तिक नैतिकता की बहुत जरूरत है। जो आर्थिक सम्पन्नता के कारण समाज की अपेक्षा नहीं रखते उनके लिए वैयक्तिक नैतिकता आवश्यक है। आज आर्थिक सम्पन्नता के कारण आदमी समाज से कटा हुआ है, परिवार से कटा हुआ है। अर्थ की यह विपरीत प्रकृति है। जब आदमी सुखी होता है तव सबसे कटता चला जाता है। जब वह दुःखी होता है तो सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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