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पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा
की प्रक्रिया को जानकर भयभीत हो रहे हैं। वे जानते हैं कि इससे मनुष्य समाज अनेक मुसीबतों में फँस जाएगा।
इन सब बातों से ऐसा लगता है कि मनुष्य का दृष्टिकोण केवल आर्थिक बन गया है। केद आर्थिक और आर्थिक । मानवीय दृष्टिकोण का मानो सर्वथा ही लोप हो गया है। मानव पर्दे के पीछे चला गया है। उस पर पूरा आवरण जैसा आ गया हैं। यह आवरण आध्यात्मिकता से ही दूर हो सकता है। आदमी चाहे कितना ही बड़ा वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या समाजशास्त्री हो जाए, यह पर्दा अन्तर्मुखता के बिना नहीं हटेगा ।
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एक साधक दीर्घकाल से साधना कर रहा था। उसे सिद्धि प्राप्त हो गई। शिष्यों को यह ज्ञात हुआ। उन्होंने पूछा- गुरुदेव ! आपकी साधना सिद्ध हो गई है । यह हमने सुना । आपको क्या प्राप्ति हुई ? गुरु ने कहा-प्राप्ति कुछ भी नहीं हुई। यह सुनकर शिष्य अवाक् रह गए। कुछ नहीं मिला तो फिर इतने वर्ष साधना क्यों की? शिष्य ने कहा- साधना से क्या हुआ ? साधक ने कहा- यह प्रश्न मौलिक है । साधना में मिलता कुछ भी नहीं है । उसमें होना होता है। मिलना और होना - ये दो बातें हैं । मिलना छोटी बात है । महत्त्वपूर्ण बात है - होना । होना हमारा अस्तित्व है। अस्तित्व की बात मौलिक है। मिलना गौण बात है। आज मिला, कल खो दिया । मिलने के साथ आनन्द और हर्ष होता है। खोने के साथ शोक होता है । हर्ष और शोक का एक युगल है। मिलने की बात सोचने का अर्थ है - खोने की बात सोचना। मिलने के सुख के साथ दुःख भी होता है ।।
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महत्त्वपूर्ण प्रश्न था - क्या हुआ ? गुरु ने कहा- साधना से जो होना था वह हो गया । पर्दा हट गया। आवरण टूट गया। साक्षात्कार हो गया। जब तक आवरण नहीं हटता तब तक मोह छाया रहता है। आदमी में कितना ही बौद्धिक विकास हो जाए, आदमी कितना ही पण्डित और विद्वान् हो जाए, वह विद्या की कितनी ही शाखाओं में पारंगत क्यों न हो जाए, जब तक पर्दा नहीं हटता तब तक सत्य का साक्षात्कार नहीं होता । सत्य को खोजने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। वह सामने है। पर दिखाई नहीं देता मूढ़ता के कारण। इन्द्रियों का असंयम, लोलुपता का अतिरेक, अनन्त आकांक्षा- इन सबके कारण आदमी सत्य को नहीं पकड़ पा रहा है। वह असन्तोष और तनाव से ग्रस्त होता जा रहा है 1
आज इस औद्योगिक युग की सबसे बड़ी देन है- असन्तोष । आदमी कहीं भी सन्तुष्ट नहीं है, मन में चैन नहीं है। पुराने जमाने में आदमी अपनी प्राप्त वस्तुओं से सन्तुष्ट था । वह इतना तनावग्रस्त नहीं था जितना आज का सभ्य आदमी है। आज का आदमी गोलियाँ खाकर नींद लेता है। नींद जीवन की
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