Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ ४२ समाज-व्यवस्था के सूत्र अनिवार्य आवश्यकता है। पर नींद की गोलियाँ खाकर नींद ली जाए, यह आवश्यकता नहीं है। आदमी का असन्तोष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। उसके पास पैसा सीमित है। पर उसकी आकांक्षा असीमित है। उसके पास इतना पैसा नहीं है कि वह जो चाहे सो खरीद ले। यही असन्तोप का कारण है। आदमी मानता है कि घड़ी आवश्यक है। पर क्यों ? घड़ी तब आवश्यक हो सकती है जब कि आदमी में नियमितता है। आज समय की पाबन्दी कहाँ है ? फिर घड़ी को आवश्यक कैसे माना जा सकता है ? इस आकांक्षाबहुल युग में सन्ताप की बात ही प्राप्त नहीं होती। सभी असन्तोप का जीवन जी रहे हैं। इसमें कोई अपवाद नहीं है। इन सारे सन्दर्भो में हम यदि सामाजिक समस्या और सामाजिक स्थिति तथा आर्थिक व्यवस्था का विश्लेपण करें तो ज्ञात होगा कि अध्यात्म के सूत्र को अपनाए बिना आदमी सुखी नहीं हो सकता। आर्थिक विकास के सूत्रों ने आदमी के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। प्रश्न होता है कि असन्तोष कैसे मिटे ? कायोत्सर्ग का मूल्य इसलिए है कि उससे तनाव मिटता है, पर उससे असन्तोष नहीं मिटता। आदमी पुनः तनाव से भर जाता है। इसलिए कायोत्सर्ग के साथ ही साथ पदार्थों के उपभोग पर नियन्त्रण करने से ही असन्तोष मिट सकता है। तनाव से छुटकारा पाने के लिए असन्तोष से छुटकारा पाना होगा। असन्तोष मिटे, सन्तोष आए। जो प्राप्त है उसमें सन्तोष करना सीखें। यह कहा जा सकता है कि सन्तोष पिछड़ेपन का द्योतक है। इससे आर्थिक विपन्नता आती है। एक सीमा तक हम इसे स्वीकार भी कर लें तो भी यह प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य केवल आर्थिक विकास के लिए ही है ? मनुष्य शान्ति से जीवन जीने के लिए है। यदि जीवन में शान्ति नहीं आई, केवल अर्थ का संचय हुआ तो उसका अर्थ ही क्या होगा ? केवल अर्थ के संचय से तनाव बढ़ेगा, अनेक बीमारियाँ होंगी और चिन्ता की चिता में निरन्तर झुलसता जाएगा ऐसी स्थिति में उसका अर्थ-संचय किस काम आएगा। बीमारियों के कारण न वह कुछ खा-पी सकेगा और न उसका उपयोग ही कर पाएगा। मूल बात है कि असन्तोष मिटे। जब असन्तोष मिटता है तब शारीरिक और मानसिक-दोनों स्वास्थ्य प्राप्त होते हैं और आदमी शान्ति से जीता है। इसलिए कायोत्सर्ग के साथ आवश्यक वस्तुओं के उपभोग पर भी नियन्त्रण आए। दोनों के योग से ही असन्तोष समाप्त हो सकता है और जीवन आनन्दमय बन सकता है। इसी प्रकार जब इन्द्रिय-संयम विकसित होता है तब इच्छाएँ कम होती हैं और सन्तोप स्वतः आता है। इससे अनासक्ति का विकास भी होता है। आदमी अनेक स्तरों पर जीता है। वह केवल शरीर के स्तर पर ही नहीं जीता, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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