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समाज-व्यवस्था के सूत्र खतरनाक मोड़ लेती है। जो समाज-व्यवस्था मनुष्य में इन्द्रिय लोलुपता बढ़ाती है, उसे अति आसक्त बनाती है, वह निश्चित ही खतरे में डालती है। उस स्थिति में व्यक्ति के सामने खतरनाक परिस्थितियाँ आती हैं और वह उनसे पराजित हो जाता है।
___ अब हम वार्तमानिक समाज-व्यवस्था पर विचार करें और देखें कि उसका आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण क्या है ? अर्थ का संग्रह करना सामाजिक सन्दर्भ में बुरा नहीं माना जा सकता पर आर्थिक विकास कैसे हो, यह माननीय विषय है। आज आर्थिक विकास का पहलू है कि नई-नई चीजें तैयार करना, उनका विज्ञापन करना, उनको पेटेण्ट बनाना और जनता का ध्यान आकर्षित करना। उन वस्तुओं को पेटेण्ट बनाने के पीछे दृष्टि यह रहती है कि अन्यान्य कम्पनियाँ उन वस्तुओं को तैयार न कर सकें, जिससे कि अर्थ का विनियोग एक ही स्थान पर हो। वे व्यक्ति वस्तुओं को पेटेण्ट बनाकर उनके मूल फार्मूलों को दुर्लभ बना देते हैं। फिर भाव तेज कर जनता को लूटते हैं। इसमें उनकी सारी दृष्टि आर्थिक रहती है। मानवीय दृष्टि का लोप हो जाता है। कम्पनी चाहती है कि प्रतिवर्ष आय बढ़े। फिर उसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। विज्ञापन से आदमी आकर्षित होता है। उस आकर्षण के कारण वस्तु की प्राप्ति आवश्यकता बन जाती है। उसके बिना रहा नहीं जा सकता। उसे खरीदना ही पड़ता है। फिर मूल्य कितना ही क्यों न हो ? यह चक्र चलता है। इसका परिणाम कुछेक लोगों के लिए सुविधाजनक होता है, क्योंकि इससे बहुत पूँजी उनके हाथ लग जाती है, वे सम्पन्न हो जाते हैं। और दूसरे विपन्न अवस्था में ढकेल दिए जाते हैं। इस वस्तु-प्रतिबद्धता से आदतें बिगड़ती हैं, स्वास्थ्य बिगड़ता है और अनेक हानियाँ, जाने-अनजाने, उठानी पड़ती हैं।
___ एक प्रश्न और आता है कि आज का समाज जितनी वस्तुओं का उपभोग कर रहा है, क्या वे सारी आवश्यक हैं। आवश्यक और अनावश्यक का विवेक होना जरूरी है। उन्हीं पदार्थों का उपभोग होना चाहिए जो आवश्यक हों। अनावश्यक पदार्थ का उपभोग नहीं होना चाहिए। आज विज्ञापन और आकर्षण के इस युग में आवश्यक और अनावश्यक का विवेक समाप्त हो गया। जितनी अनावश्यक चीजों का इस्तेमाल होता है उतनी आवश्यक चीजों का इस्तेमाल नहीं होता। आवश्यक चीज गौण भी हो सकती है पर अनावश्यक चीज जरूरी बन जाती है।
साम्यवादी देशों में प्रसाधन की सामग्री पर रोक है। प्रसाधन की सामग्री जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक नहीं होती। वे चाहते हैं कि जनता को प्राथमिक
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