________________
३४
समाज-व्यवस्था के सूत्र
महत्त्व दे दिया। आज प्रजातन्त्र का जमाना है। उसमें बहुमत मान्य है। इसका कुछ तो मूल्य है, इसलिए चल रहा है। प्रजातन्त्र का विचार यूनान के दार्शनिकों ने दिया। एकान्ततः यह बुरा भी नहीं है तो बहुमत वाली बात एकान्ततः अच्छी भी नहीं है। जहाँ सत्य का प्रश्न है वहाँ बहुमत वाली बात भ्रामक हो जाती है। जहाँ दुःख और दुर्व्यवस्था को मिटाने का प्रश्न है वहाँ बहुमत की वात सफल भी हो सकती है किन्तु सत्यशोध में वह सफल नहीं हो सकती। गहराई में उतरने वाला एक व्यक्ति सत्य को अधिक प्रगट कर सकता है और ६६वें आदमी झूठ हो सकते हैं। बहुमत वहाँ काम नहीं दे सकता। महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, मुहम्मद, ईसा-सब अकेले थे। एक-एक व्यक्ति थे। एक-एक ने सत्य की घोषणाएँ की, शोध किया और उनके द्वारा बताए गए सत्य के आधार पर लाखों-करोड़ों व्यक्ति अपना जीवन चला रहे हैं। बताने वाला अकेला था, बहमत नहीं था। महावीर, बुद्ध आदि ने जो भी सत्य दिया वह वहुमत के आधार पर नहीं दिया। उस समय का बहुमत था कि जाति से आदमी ऊँचा होता है, जाति से ही नीचा होता है। महावीर ने कहा-जाति से आदमी ऊँचा-नीचा नहीं होता। वह ऊँचा-नीचा होता अपने कर्म से। बहुमत मानता था कि युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में चला जाता है_ 'जिते च प्राप्यते लक्ष्मीः, मृते चापि सुरांगना।
क्षणभंगुरको देहः, का चिन्ता मरणे रणे॥' __इसके विपरीत महावीर ने कहा-युद्ध करना और युद्ध में मरना महान् हिंसा है। यह असत्कर्म है, नरक ले जाने वाला कर्म है।
उस समय बहुमत था पदार्थासक्ति का। कृष्ण ने कहा-अनासक्त बनो। अनासक्त होना ही परमार्थ है। अनासक्ति की बात क्या बहमत की बात थी ? नहीं। अकेले कृष्ण ने इसका घोप किया।
बहुमत पदार्थ की ओर दौड़ता है। परमार्थ या सत्य की ओर जाने का बहुमत नहीं होता। कुछेक व्यक्ति ही सचाई तक पहुँचते हैं ओर सत्य का प्रतिपादन करते हैं। वहुमत ऐसा नहीं होता।
अर्थ-व्यवस्था में भी बहुमत की बात आ गई। वहुमत क्या चाहता है ? यह वास्तविकता नहीं है। यदि वास्तविकता पर ध्यान होता तो समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था दूसरे ही प्रकार की होती । गाँधी ने बहुत ठीक कहा-मैं बहुमत को नास्तिकता मानता हूँ। यह कट हो सकती है, पर है सत्य । जहाँ सत्य का प्रश्न है वहाँ बहुमतवाद व्यर्थ है। वहाँ उसकी वात होगी जो सत्य के निकट पहुँच गया। इसीलिए कहा गया--'महाजनो येन गतः स पन्था' । महान का अर्थ है-सत्यनिष्ठ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org