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समाज-व्यवस्था के सूत्र
जाता है। इस सत्यनिष्ठा की कमी ने आस्था को आन्दोलित कर दिया। आदमी की आस्था कहीं जम नहीं पा रही है। सत्यनिष्ठा की कमी के कारण मानसिक तनाव बढ़ गया है। आज का दृष्टिकोण है- 'धनं शरणं गच्छामि।' धर्म के जो चार शरण माने जाते हैं-'अरहते सरणं गच्छामि', 'धम्म सरणं गच्छामि' आदि-ये तो केवल वाचिक मात्र रह गए और 'व्यापार शरण गच्छामि', 'धनं शरण गच्छामि'-ये शरणभूत बन गए।
आदमी सामाजिक प्राणी है। एक-दूसरे को देखकर प्रतिक्रियाएँ होती हैं। एक आदमी को जब दस लाख रुपए खर्च करते देखता है तो वह सोचता है कि मैं भी धनी होता तो कितना अच्छा होता। मेरा भाई व्यापारी है और आज धनकुबेर है। मैं नौकरी में रहा और आज उसका मुँहताज बन रहा हूँ।
राजस्थानी लोक साहित्य की एक लघु कथा है, जो प्रदर्शन पर सटीक आक्षेप प्रस्तुत करती है
एक सेठानी ने चूड़ा पहना। वह चन्दरबाई का चूड़ा था। गाँव की सैकड़ों महिलाएँ उसे देखने आईं। सबने उस चूड़े की बनावट, रूप-रंग की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक गरीब चमारिन भी देखने आई। उसके मन में प्रतिक्रिया हुई। उसने सोचा, कितनी स्त्रियाँ आती हैं, पूछती हैं और वाह-वाह करती हैं। वह तत्काल घर आई, पति से बोली, मुझे भी चन्दरबाई का चूड़ा लाकर दो। पति बोला-घर में तो खाने को अनाज भी नहीं है और तू चूड़े की बात करती है। महिला ने हठ पकड़ा अन्ततः आदमी ने बनिए से रुपए उधार लिए और महिला को चूड़ा पहना दिया। वह गाँव के बाहर एक झोपड़ी में रहती थी। वहाँ कोई उसके चूड़े को देखने नहीं आया। चूड़ा पहनने का मजा किरकिरा हो गया। कोई प्रदर्शन करे और यदि दूसरा उसे देखने नहीं आए तो प्रदर्शन अपनी मौत मर जाता है। प्रदर्शन को मूल्य तब मिलता है जब लोग देखने आते हैं। प्रदर्शनकर्ता में अहंकार होता है और प्रदर्शन देखने वालों में उत्सुकता। दोनों का योग होता है तब कुछ होता है।
उस चमारिन में अपना चूड़ा दिखाने की भावना प्रबल हुई और उसने लोगों को एकत्रित करने का एक उपाय, ढूँढ़ा। उसने एक दिन अपनी झोपड़ी में आग लगा दी। लोगों ने आग की बात सुनी। वे दौड़े आए। वह चमारिन हाथ को ऊँचा किए जलती हुई झोंपड़ी के बाहर खड़ी थी। कुछ महिलाओं ने देख लिया और पूछा-अरे ! यह चन्दरबरदाई का चूड़ा कब पहन लिया। वह बोली- 'अरे ! पहले ही पूछ लेती तो यह झोंपड़ी तो नहीं जलती। अब पूछ रही हो ?'
यह प्रदर्शन की वृत्ति विचित्र होती है। फिर हम उस बिन्दु पर आते हैं कि
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