Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 32
________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र की असफल अवस्था है। क्रोध को विफल करने का अर्थ है कि उसे अभिव्यक्त होने का अवसर न देना । शरीरशास्त्रीय भाषा में कहा जाता है कि आवेग के रसायन मस्तिष्क के इमोशनल एरिया में उत्पन्न होते हैं और वे अभिव्यक्त होते हैं नाभि के पास, एड्रिनल ग्लाण्ड के पास । यदि एड्रिनल ग्लाण्ड पर नियन्त्रण कर दिया जाए तो आवेग के रसायन नाभि तक जाएँगे पर अभिव्यक्त नहीं होंगे। आवेग के उत्पन्न होने का पोइण्ट और अभिव्यक्त होने का पोइण्ट अलग-अलग है। आवेग का उत्पन्न होना और आवेग का सफल होना -- ये दो बातें हैं, एक नहीं है । चंचलता के कम होने पर आवेग उत्पन्न तो हो सकते हैं, पर प्रगट नहीं हो सकते। जब आवेग प्रगट नहीं होते तब ज्ञानतन्तु, अपना कार्य बन्द कर देते हैं । उस स्थिति में प्रमाद भी कम होने लगता है । इच्छा भी कम हो जाती है और दृष्टिकोण बदल जाता है। जब जीवन के प्रति, दूसरे व्यक्ति के प्रति और समाज के प्रति दृष्टिकोण बदलता है तो संवेदनशीलता का विकास होने पर व्यक्ति दूसरे के प्रति बुरा आचरण नहीं कर सकता, अन्याय नहीं कर सकता और किसी का अतिक्रमण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में ही नैतिकतापूर्ण और चारित्रनिष्ठ समाज रचना की कल्पना की जा सकती है तथा इसी स्थिति में पदार्थ - -युक्त समाज-संरचना का स्वप्न संजोया जा सकता है। प्रेक्षाध्यान पदार्थमुक्ति का प्रयोग है। पदार्थमुक्ति का तात्पर्य है - दृष्टिकोण का परिवर्तन ! जब तक दृष्टिकोण नहीं बदलता, तब तक आदमी बदलने का बहाना करता रहता है, पर बदलता नहीं। उसमें आकांक्षा की तीव्रता बनी रहती है । वह आकांक्षा किसी भी शासन प्रणाली से मिट नहीं सकती। वह अवसर की टोह में रहती है और अवसर मिलते ही प्रगट हो जाती है। यह मौलिक मनोवृत्ति है। कड़ी से कड़ी शासन व्यवस्था में भी वह प्रगट हो जाती है । पत्नी ने पति से कहा- 'आज ही अखबार में पढ़ा कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को साइकिल के बदले बेच डाला। कहीं आप तो ऐसा नहीं करेंगे ?' पति बोला- 'मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि तुमको साइकिल के बदले बेच डालूँ । यदि सौदा करूँगा तो मोटरकार का करूँगा ।' २७ आकांक्षा इतनी तीव्र बनी रहती है कि उसका अन्त ही नहीं आता। इसका मूल कारण है दृष्टिकोण का अपरिवर्तन । दृष्टिकोण का परिवर्तन होना अत्यन्त आवश्यक है और इसके लिए आध्यात्मिक विकास बहुत जरूरी है। आज समाज-व्यवस्था की सबसे बड़ी कमी यही है कि इसमें पदार्थ-व्यवस्था अर्थात् उत्पादन, वितरण और विनिमय पर बहुत ध्यान दिया गया किन्तु उत्पादक, वितरक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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