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समाज-व्यवस्था के सूत्र
भगवान् महावीर से पूछा गया-भन्ते ! धर्मनिष्ठा या अध्यात्म निष्ठा का परिणाम क्या होता है ? भगवान ने कहा-धर्मनिष्ठा का परिणाम है-अनुत्सुकता। वहाँ उत्सुकता समाप्त हो जाती है। बन्धन और मुक्ति तथा पदार्थ-प्रतिबद्धता और पदार्थमुक्त में यही अन्तर है कि एक में पदार्थ के प्रति उत्सुकता बनी रहती है और एक में उत्सुकता कम हो जाती है। यहाँ पदार्थ उपयोगिता और आवश्यकता का साधन मात्र बना रहता है। इस स्थिति में प्रतिक्रिया भित्र होती है। जब उत्सुकता समाप्त होती है तो चंचलता कम हो जाती है। उत्सुकता चंचलता को पैदा करती है। उत्सुकता की कमी का अर्थ है चंचलता की कमी। जिस व्यक्ति में उत्सुकता का आवेग कम हो जाता है, उसमें चंचलता की कमी सहज घटित हो जाती है। इस अवस्था में दूसरी स्थितियाँ भी वदल जाती हैं। चंचलता अपने आप में कोई बुरी नहीं है। चंचलता को पैदा करने वाली जो उत्सुकता है, वह दुरी है। चंचलता हमारी पकड़ में नहीं आती। उत्सुकता को हम पकड़ सकते हैं। इसलिए हम कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर की चंचलता को कम करते हैं, मौन के द्वारा दाणी की चंचलता को कम करते हैं तथा श्वास-प्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा आदि के द्वारा मन की चंचलता को कम करते हैं। ___एकाग्रता के अभाव में चंचलता की अधिकता से भारत की क्या स्थिति बनी हे वह स्पष्ट है। अभी-अभी ओलम्पिक खेल सम्पत्र हुए। भारत को कितने पदक मिले ? भारत की अपेक्षा अत्यन्त छोटे-छोटे राष्ट्रों ने स्वर्ण पदक जीते, पर भारत को एक कांस्य पदक भी नहीं मिला। इसके कारण की खोज में क्या भारत की राजनैतिक व्यवस्था, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था कारणभूत नहीं है ! इन सबसे बड़ा कारण है एकाग्रता की कमी। यहाँ के निवासी एक विन्दु पर एकाग्र होकर कार्य करना नहीं जानते। जव तक एकाग्रता की गहरी साधना नहीं होती, तव तक व्यक्ति, समाज या राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता।
चंचलता को मिटाने, कम करने के तीन प्रयोग हैं-कायोत्सर्ग, मौन और ध्यान। जव चंचलता कम हो जाती है तब आवेश आता भी है, पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। जब क्रोध आए और उसकी अभिव्यक्ति न हो तो कुछ ही दिनों में वह अपनी मौत मर जाता है। यह ज्ञानतन्तुओं का एक नियम है। जव शरीर में कोई ज्ञानतन्तु लम्वे समय तक निष्क्रिय रहते हैं तव अपना कार्य विस्मृत कर देते हैं, उनकी निष्क्रियता वहत बढ़ जाती है और वे अपना कार्य करना बन्द कर देते हैं। इसी प्रकार जब आवेश की तरंग उठती है और चंचलता की कमी के कारण वह वाहर प्रगट नहीं होती, तव वहाँ के ज्ञानतन्तु निष्क्रिय होने लगते हैं और धीरे-धीरे आवेग भी कम होने लगता है। अध्यात्म की भाषा में यही आवेग
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