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समाज-व्यवस्था के दो सूत्र
जॉन रश्किन ने एक किताब लिखी-अन्टू दि लास्ट (UNTO THE LAST)। उन्होंने इसमें प्राचीन अर्थशास्त्रियों की समालोचना की है। पुराने अर्थशास्त्री मानते थे कि मजदूरों को अधिक वेतन देना गलत है। क्योंकि वे सुसंस्कृत नहीं हैं । यदि उन्हें अधिक वेतन मिलेगा तो वे शराब पीएँगे तथा अन्यान्य व्यसनों में फँसेंगे। जीवन को वे बर्बाद कर देंगे ।
रश्किन ने एक प्रश्न उपस्थित किया कि उन व्यक्तियों को असंस्कृत रखने का उत्तरदायित्व किन पर है ? यदि समाज का बहुत बड़ा भाग असंस्कृत रहता है तो उसका उत्तरदायी कौन है ? यह बहुत बड़ा प्रश्न है । हमको भी इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए ।
समाज के दो चित्र सामने आते हैं। एक है पदार्थ- प्रतिबद्ध समाज और दूसरा है पदार्थ मुक्त समाज। जब तक जीवन है, शरीर है, जीवनयात्रा को चलाना है, तब तक पदार्थ नहीं छूट सकता । पदार्थ रहेगा। पदार्थ का होना एक बात है और पदार्थ - प्रतिबद्ध होना दूसरी बात है । पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज वह होता है जहाँ धन साधन नहीं रहता, साध्य बन जाता है। धन साधन है जीवनयापन के लिए, किन्तु जब वह साध्य बन जाता है तो पदार्थ की प्रतिबद्धता आती है और सारे समाज में प्रतिबद्धता होती है। एक व्यक्ति क्रूर है, एक व्यक्ति हिंसक है, एक व्यक्ति सृजनात्मक शक्ति को खो बैठता है, ऐसा क्यों होता है ? इसमें व्यक्ति के अपने दोष या कर्म-संस्कार माने जा सकते हैं, पर केवल व्यक्ति ही इसमें दोषी नहीं है, समाज-व्यवस्था भी दोषी है। समाज की जैसी अवधारणा होती है, उसी के अनुरूप व्यक्ति का रूप बनता है 1
जो पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज होता है, उसका पहला लक्षण होता है-उत्सुकता । पदार्थ के प्रति उत्सुकता निरन्तर बनी रहती है और वह वृद्धिंगत होती रहती है । उत्सुकता असीम बन जाती है। वह उत्सुकता इतनी मात्रा में बढ़ जाती है कि योग की भाषा में कहा जा सकता है कि व्यक्ति का विशुद्धिकेन्द्र गड़बड़ा गया है | शरीरशास्त्र की भाषा में कहा जा सकता है कि व्यक्ति का थायराइड
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