Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 28
________________ समाज-व्यवस्था के दो सूत्र ग्लाण्ड अस्त-व्यस्त हो गया है। उत्सुकता का पहला काम है-विशुद्धिकेन्द्र को असन्तुलित करना। शरीर में कंठ का भाग बहुत महत्त्वपूर्ण है। यही विशुद्धिकेन्द्र है। इसके साथ मन की चंचलता का बड़ा भाग जुड़ा हुआ है। ज्योतिषशास्त्र में मानसिक अवस्थाओं का अध्ययन चन्द्रमा के आधार पर किया जाता है। विशुद्धिकेन्द्र चन्द्रमा का प्रभाव-क्षेत्र है। इस आधार पर विचारों में उतार-चढ़ाव आता है। अति उत्सुकता असन्तुलन पैदा करती है। और यह असन्तुलन बहुत लम्बी कार्य-कारण की श्रृंखला को जन्म देती है। पदार्थ-प्रतिवद्ध समाज में पदार्थ साध्य बन जाता है और तव प्रत्येक पदार्थ के प्रति उत्सुकता बढ़ती है, असन्तुलन बढ़ता है और मन की चंचलता बढ़ती जाती है। चंचलता बहुत बड़ी समस्या है। जिस समाज-व्यवस्था में चंचलता के बीज अधिक हैं, उस समाज-व्यवस्था में अच्छे परिणाम नहीं आ सकते । जव तव शरीर, मन और वाणी हैं तब तक चंचलता को छोड़ा नहीं जा सकता। किन्तु जब चंचलता उस विन्दु पर पहुँच जाए जहाँ वह प्रमाद का प्रतिनिधित्व करे, आवेश और इच्छा का प्रतिनिधित्व करे, वह चंचलता खतरनाक बन जाती है। आवेश आता है, पर यदि चंचलता नहीं है तो वह अभिव्यक्त नहीं होगा। प्रमाद आता है, पर चंचलता के अभाव में वह अभिव्यक्त नहीं होगा। इच्छा पैदा होती है, पर यदि चंचलता नहीं है तो इच्छा की क्रियान्वित नहीं होगी। सारी प्रवृत्तियाँ चंचलतामय हैं। चंचलता प्रवृत्ति है, प्रवृत्ति ही चंचलता है। मन की चंचलता, वाणी की चंचलता और शरीर की चंचलता कहें या मन की प्रवृत्ति, वाणी की प्रवृत्ति और शरीर की प्रवृत्ति कहें, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। उत्सुकता के कारण चंचलता अधिक बढ़ती है और चंचलता की अन्तिम परिणति होती है-पागलपन, मानसिक तनाव। मानसिक तनाव के अनुपात से ही पागलपन बढ़ता है। कोई आदमी पचीस प्रतिशत पागल होता है तो कोई पचास प्रतिशत और कोई अस्सी प्रतिशत पागल होता है और कोई शत-प्रतिशत पागल होता है। पागलपन का मूल कारण है चंचलता। पागलपन का अर्थ ही है किसी एक विपय पर न टिक पाना, किसी एक विन्दु पर न टिक पाना। समाज में जो असंस्कृत वर्ग है उसका उत्तरदायित्व किस पर है। समाज की व्यवस्था ही इसके लिए उत्तरदायी है। व्यक्ति अपने लिए, अपने आचरण के लिए उत्तरदायी हो सकता है, पर एक सीमा तक। व्यक्ति का अपना कर्म-संस्कार, आनुवंशिकता आदि वैयक्तिक कारण निमित्त बन सकते हैं, किन्तु समाज-व्यवस्था भी एक निमित्त है। उसकी प्रतिक्रिया होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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