Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ समाज-व्यवस्था के सूत्र से निष्पन्न स्थिति पर रो पड़ा और अकेला ही घर आ गया। आदमी आने-अनजाने ऐसा निर्माण कर देता है, ऐसी संस्कृति को जन्म दे देता है जो सर्वभक्षी बन जाती है। आज वह ऐसी अर्ध-व्यवस्था को जन्म दे रहा है जो स्वयं उसको ही ग्रसने को तैयार है। यदि हम एक प्रश्न पर विचार करें कि अणु-शस्त्रों का निर्माण आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए ही तो हुआ। प्राचीन काल में भूमिगत विस्तार की वात सोची जाती थी। आज आर्थिक साम्राज्य की वात प्रमुख वन गई। मान लें छोटा राष्ट्र है, थोड़ी भूमि और सीमित जनसंख्या पर आर्थिक साम्राज्य यदि बढ़ जाता है तो वह सारी दुनिया पर अपना सिक्का जमा सकता है। छोटे-छोटे राष्ट्र आज आर्थिक साम्राज्य के कारण बहुत शक्तिशाली बन गए। आर्थिक व्यवस्था के साथ सारा दृष्टिकोण ही बदल गया। पहले लड़ाइयाँ होती थीं भूमि के लिए और आज संघर्ष चल रहा है आर्थिक प्रभुत्व के विकास के लिए, आर्थिक साम्राज्य को बढ़ाने के लिए। आर्थिक व्यवस्था का दूसरा सूत्र है-आवश्यकता बढ़ाएँ, कार्य-क्षमता को चढ़ाएँ और उत्पादन को बढ़ाएँ। इस सूत्र ने आर्थिक साम्राज्य का विस्तार किया और साथ ही साथ मनुष्य के लिए संकट और खतरे भी पैदा कर दिए। आवश्यकता बढ़ाने का पहला अर्थ है-संघर्प। पदार्थ कम, आवश्यकता अधिक। खाने वाले अधिक, खाद्य वस्तुएं कम। एक ओर कहा जा रहा है परिवार नियोजन करो। विरोधाभास है। एक ओर आवश्यकता को बढ़ाओ और एक ओर आवश्यकता को घटाओ। उसका सीधा-सा अर्थ है-चेतना को घटाओ और पदार्थ को बढ़ाओ। चेतन घटे, पदार्थ बढ़े। सारा दृष्टिकोण ही पदार्थवादी हो गया। चेतनाशील और विवेकशील प्राणी है मनुष्य, उसको कम करना और पदार्थ या जड़ को बढ़ाना। यदि आवश्यकता बढ़ाने की बात नहीं होती तो शायद दृष्टिकोण ऐसा नहीं बनता। अव दूसरी बात है-कार्यक्षमता बढ़ाने की। मनुष्य की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात कम है और यन्त्रों की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात अधिक है। यन्त्रों की कार्यक्षमता बढ़े कि कौन-सी मिल में कितना उत्पादन हो रहा है, कितनी मशीनें ज्यादा उत्पादन कर रही हैं। सारा ध्यान यन्त्रों की कार्यक्षमता बढ़ाने पर है। आदमी भला कितना उत्पादन कर सकता है। इसका परिणाम है कि मजदूर कम होते जा रहे हैं और यन्त्र उसका स्थान ग्रहण कर रहे हैं। ___दूसरा प्रहार है फिर मनुष्य पर, चैतन्य पर, कि जड़ की क्षमता को बढ़ाओ और मनुष्य की क्षमता को कम करो, मनुष्य को कम करो। अर्थ-व्यवस्था की इस अवधारणा ने सबसे अधिक प्रहार किया है-मनुष्य पर और चेतना पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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