Book Title: Samaj Vyavastha ke Sutra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ वास्तविक समस्या आर्थिक या मानसिक ? मनुष्य समाज में जीता है। समाज में जीने का अर्थ है समस्या में जीना। समाजे एक समस्या भी है और एक समाधान भी हैं अनेक लोगों का होना एक समस्या है, पर समाधान भी है। प्रत्येक आदमी दो आयामों में जीता है-बाहर में जीता है। और भीतर में जीता है। भूख लगती है भीतर में और खाता है बाहर में। धन, अनाज, पैसा-सब बाहर से आता है, पर माँग होती है भीतर से। एक है माँग का जगत् जो भीतर में है, और दूसरा है पूर्ति का जगत् जो बाहर में है। माँग भीतर से उठती है और उसकी पूर्ति बाहर से होती है। ये दो आयाम हैं। इन दो आयामों में जीने के कारण समस्या और अधिक जटिल बन गई है। समस्या को समाहित करने के लिए अनेक प्रणालियाँ चालू हुईं। सामाजिक प्रणाली, राजनैतिक प्रणाली, धार्मिक प्रणाली आदि अनेक प्रणालियाँ जीवन के साथ जुड़ गईं। इनका उद्देश्य था कि समस्या का समाधान हो सके। पर आज ऐसा अनुभव हो रहा है कि सारी प्रणालियाँ समाधान देने में असफल रही हैं। कुछ अंश में धार्मिक प्रणाली को सफल माना जा सकता है, पर वह भी पूरा समाधान देने में असफल रही है। समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, वैसे ही उलझी हुई पड़ी है। प्रश्न होता है कि क्या समस्या को सुलझाने के लिए कोई उपाय है ? क्या कोई उपाय खोजा जा सकता है ? या जैसा है वैसा ही रहने दें ? दो प्रकार के विश्वास होते हैं। कुछ व्यक्ति यथास्थिति में विश्वास करते हैं और कुछ व्यक्ति परिवर्तन में विश्वास करते हैं। परिवर्तन का विश्वास बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो व्यक्ति यथास्थिति में विश्वास करता है वह रूढ़ हो जाता है, आगे नहीं बढ़ सकता। जो व्यक्ति परिवर्तन की बात सोचता है, वह आज नहीं कल समाधान ढूँढ लेता है और आगे बढ़ जाता है। पूरे संसार का विकास इसी बदलने के विश्वास पर हुआ है। यदि बदलने की बात नहीं होती तो विकास कभी नहीं होता, जो जहाँ है वहीं रह जाता। आदम युग का आदमी ही रह जाता। वह आज के इस बौद्धिक और वैज्ञानिक युग में नहीं पहुँच पाता। परिवर्तन की प्रक्रिया चलती है और आदमी आगे से आगे प्रगति करता जाता है। परिवर्तन स्वभाव है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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