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वास्तविक समस्या-आर्थिक या मानसिक
मार्क्स ने अर्थशास्त्र का पूरा दर्शन प्रस्तुत किया लेनिन और उसके साथियों ने इसका प्रयोग किया। मार्क्स के दर्शन को पढ़कर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने टिप्पणी करते हुए लिखा- “यह मात्र कल्पना है, स्वप्न है। यह स्वप्न क्या कभी पूरा हो सकेगा ?" तीस वर्ष पश्चात् उन्होंने रूस की यात्रा की। वहाँ का जनजीवन देखा। फिर उन्होंने लिखा- “यदि मैं रूस नहीं आता, वहाँ की समाजवादी व्यवस्था को स्वयं नहीं देखता तो मेरे जीवन की एक बात अधूरी रह जाती। रूस में कितना बड़ा परिवर्तन हुआ है आर्थिक क्षेत्र में। इस आर्थिक समस्या को सुलझाने के लिए एक बड़ा उपक्रम हुआ है। मैंने साक्षात् उसे देखा है।" यह थी रवीन्द्रनाथ की टिप्पणी।
प्रश्न होता है, इतना होने पर भी क्या समस्या सुलझ गई ? समस्या सुलझी नहीं, यथावस्थित है। नियन्त्रण और अंकुश के कारण उस पर एक आवरण आ गया है। यदि आज यह हट जाए, नियन्त्रण हट जाए तो आदमी वैसा का वैसा है। उसमें स्वार्थ, वैयक्तिकता की भावना, लोभ, आकांक्षा-सब कुछ वही है। कुछ भी परिवर्तन नहीं है। जब तक सत्ता का अंकुश है तब तक लगता है कि कुछ समाधान हो गया। पर जिस दिन सत्ता का अंकुश हट जाएगा तब तीव्र प्रतिक्रिया सामने आएगी। आज भी वहाँ अनेक प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं। वहाँ का आदमी मानने लगा है कि जहाँ व्यक्तिगत स्वामित्व है, वहाँ आर्थिक विकास अधिक होता है। समाजवादी देशों में व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होता, इसलिए आर्थिक विकास कम होता है। यह जनमत वनता जा रहा है। वहाँ के कुछेक शीर्षस्थ व्यक्ति एक सीमा तक व्यक्तिगत स्वामित्व को स्वीकृति दे रहे हैं।
साम्यवादी जीवन प्रणाली में आर्थिक हेराफेरी की घटनाएँ सामने आती हैं, तब लगता है कि आदमी की मनोवृत्ति बदली नहीं है।
एक व्यक्ति ने कहा, कितना विषम जमाना आया है कि बस में मैं यात्रा कर रहा था। मैंने देखा कि मेरी अटैची गायब है। लोगों की कितनी नीच मनोवृत्ति है। मैंने पूछा-क्या अटैची नई थी? उसमें कितने रुपये थे ? उसने कहा-मैं तो उसे रेल से उठा लाया था। भीतर क्या था, मुझे ज्ञात नहीं है।
आदमी की मनोवृत्ति है कि जब दूसरा कोई उठा लेता है तो वह सोचता है, कैसा विषम जमाना है और जब स्वयं दूसरे की चीज उठा लाता है तो हृदय में कम्पन नहीं होता। वह सोचता है, पड़ी थी, उठा ली। आदमी का सीधा ध्यान दूसरों की मनोवृत्ति पर जाता है, अपनी मनोवृत्ति पर ध्यान ही नहीं जाता।
अर्थ की समस्या अवास्तविक है, ऐसा तो मैं कहना नहीं चाहता क्योंकि यह जीवन के साथ जुड़ी हुई यथार्थ समस्या है। पर प्रश्न होता है, क्या यही मूलभूत
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