Book Title: Ritthnemichariyam Part 4 1
Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 18
________________ तिrasat संधि घत्ता रहु लइउ करेण लक्खिज्जइ णाई कणय - कवय-पहरण - भरिउ । गिरि- गोवद्धणु उद्धरिउ || [१८] जायव - णिवण जिह सो तिह ते वि Jain Education International परमेसरु पर पर देंतु जाइ उत्तिण्णु जउण-जलु उण्ह - मेत्तु मणे दुम्मिउ दुद्दम-दणु-दमणु जसु सयल-काल-कुल- पक्खवाउ सो-वि ते वि सव्व पट्टणु पट्ठ तहे तणय-तणउं णामेण अज्जु पंडवह - मि दाहिण- महुर सिद्ध अलि-वलय- जलय- कुवलय-सवण्णु णारायणु घत्ता रहवर - झिंदुएण रमंतु णाई तो भीमें आणिउ जाणवत्तु कंतारे दुरुत्तरे खेड्ड कवणु चिंतिज्जइ तहो किर किह अपाउ महुमण सुद्दा विदिट्ठ तो दिज्जइ कुरु - जंगलउ रज्जु वहु-दिवसेहिं ते तेत्त पट्ठ णिय - - पुरवरु पवण्णु तहो तो पडिवत्ति किय । रज्जु सई भुंजंत थिय ॥ इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभूएव - कए तेयाणमो ( तिणवइमो ) संधि समत्तो । *** For Private & Personal Use Only ४ ९ ९ www.jainelibrary.org

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