Book Title: Ritthnemichariyam Part 4 1
Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 109
________________ १०० रिट्ठणेमिचरिउ पत्ता सुमरेवि जिण-चलण रेवइ-रोहिणिहि विहूसिउ। महहत्थिल्लउ णहि णं चंदु जणेण पदीसिउ। ज दूरुश सेयणु लग्गया गया जाइ-कुल-विसुद्धा सच्चइ चारु णिसढरी(?)-दीवायणाणिरुद्धा ॥ १ (हेला) अण्णु वि संचल्लिए मरंकें जे दूरुज्झिय-अयस-कलंकें जे रुप्पिणि-मण-भुवणाणंदें । जे रिउ-णियर-सरोरुह-चंदें जे जगि णारि-चित्त-अवहरणे जे कंचण-माला-परिहरणे जे सोलस-महलंभावण्णे जे सोहग्ग-शव-संपुणे जे महि-कंप-जलहि-सुरसेले जे सयलंगणोह-मण-वोले जे कुरु-खंधावार-विणासें जे दुजोहण-पहु-संफासें जे ससिविर-तवसुय-परिखलणे जे णर-भीम-मडप्फल-दलणे जे सहदेव-पराभव-करणे जे वंदिण-जण-अब्भुद्धरणे [मागधिकायां भाषायां पादाकुल-छंद :।] ८ घत्ता गंजोल्लिय-तणु परिसेसिय-पवर-मरट्टड। सुहि-सय-परिमियउ सविणेउ सकलत्तु पयट्टउ ।। ताव हियोलियहिं चंदो व्व कंतिवंतो। भाणुकुमार-णरवरो णिग्गउ तुरंतो ॥ १ (हेला) कल-विण्णाण-जुत्तए सेविय णरत्तए पारस-लक्खणंगए मेरु-तुंग-सिंगुत्तमं गए चामीयर-चारु-वण्णए कुंडल-जुय-ललंत-कण्णए कंगहरणणिल्लकोरए(?) रेहमाण-गुरुइणिय(?)-दोरए इंदीवर-वर-दलच्छए हार-परिफुरिय-वच्छए केऊराविद्ध-वाहए रयण-खुसिय-अब्भत्थए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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