Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[पुरुषार्थ सिद्धय पाय हैं । इसलिये दर्पण का दृष्टान्त स्थूल दृष्टि को लेकर, केवल प्रतिबिंबित होने के अंश को लेकर दिया गया है । दृष्टान्त का दूसरा अंश यह भी घटित होता है कि जिस प्रकार दर्पण स्वयं रागद्वेष-विहीन एवं इच्छारहित (जड़) है, उसमें झलकने वाले पदार्थ भी उसी प्रकार हैं, केवल वस्तु-स्वभाव से दर्पण में प्रतिबिंबित होते हैं, दपण उन्हें अपने में प्रतिबिंबित कर लेता है, उसी प्रकार केवलज्ञान भी रागद्वष-विहीन इच्छा रहित केवल स्व-स्वरूप में ही पदार्थों को विषय करता है । दृष्टांत का तीसरा अंश स्थिरता की अपेक्षा से है, जिस प्रकार दर्पण पदार्थों के पास नहीं जाता
और पदार्थ-दर्पण के पास नहीं आते, उसी प्रकार ज्ञान भी आत्मा से बाहर नहीं जाता और पदार्थ भी ज्ञान के पास नहीं आते । इस प्रकार दृष्टान्त दार्टान्त की अंश-विवक्षा को समझकर वस्तु स्वरूप पहिचानना बुद्धिमानों का कर्तव्य है।
श्लोक में जो 'सम' पद दिया गया है, वह केवल ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट निर्मलता दिखाने के लिये ही दिया गया है । जिस प्रकार मति, श्रुति, अवधि
और मन:पर्ययज्ञान क्रम से पदार्थों का बोध करते हैं, उस प्रकार केवलज्ञान कम से बोध नहीं करता किन्तु एक साथ ही समस्त पदार्थों को जानता हैं । इसका कारण यह है कि केवलज्ञान निरावरण है, उसमें इन्द्रिय और मन की किंचिन्मात्र भी अपेक्षा नहीं हैं, इसके विपरीत मति, श्रुत आदि चारों ही ज्ञान सावरण हैं, आदिके दो ज्ञानों में तो इन्द्रिय मन की साक्षात् अपेक्षा है, इसीलिये वे परोक्ष हैं, बाकी के दो ज्ञानों में परम्परा है । परंतु उपयोग की सनत्र आवश्यकता है, बिना उपयोग के लगाये ज्ञान पदार्थों की ओर उन्हें जानने के लिये उपयुक्त नहीं होता है, और उपयोग मनःपूर्वक होने से क्रम भावी है, इसीलिये अवधिज्ञान और मनःपर्मयज्ञान तभी उपयुक्त होते हैं, जब कि पदार्थों के जानने की इच्छा रखकर उन्हें उपयोग में लाया जाता है। यदि बिना उपयोग के जोड़े ही वे सदैव
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