Book Title: Puran Sukti kosha
Author(s): Gyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ -- यह शरीर अनित्य है। ---- शरीर पानी के बबूले के समान सररहीन है। ..... शरत्कालीन बादल के समान देह अकस्मात् ही नष्ट हो जाती है। ..... ''यह शरीर पानी के बुबुदे (बुलबुले) के समान नि:सार है ।"-यह बात बडं कष्ट की है। ... इस मरणशील शरीर के लिए शोक करना व्यर्थ है। - शरीर रोगरूपी सांप का बि लहै । - रोगों से भरा प्राणियों का यह शरीर अल्पकालीन है । ....- शरीर रोगों का घर है । ...... यह शरीर रोगरूपी सर्पो का घर है । - सबका साधन शरीर है और शरीर का साधन प्राहार । --. कायर पुरुष ही अपने प्रकृत लक्ष्य से भ्रष्ट होते हैं । ..... कायर को विषाद होता है। ..... संसार में धर्म का कारण कर्म ही प्रशंसा योग्य है। ----- जीव पूर्वभव में किये कार्य के अनुसार ही जन्म लेता है। ... जगत् में जो जैसा करता है वैसा भरता है। ---- विना विचारे कार्य करनेवालों का कार्य विफल हो जाता है । ... नाम की उपलधि मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती। ..- विचारपूर्वक किये हुए कार्य से प्राणियों को सुख मिलता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129