Book Title: Puran Sukti kosha
Author(s): Gyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 69
________________ ww JUL -FT LILIS — AAAAAA KAA wwwwww - भोगों में प्रासक्ति के कारण मनुष्य कर्म से नहीं छूटता । भोग क्षणभंगुर हैं। भोग नाग के कण के समान भयंकर एवं नरक में गिरानेवाले हैं । star देनेवाले भोगों से किसी लाभ की आशा नहीं । भोग स्वप्नभोग के समान हैं । मोगों के प्रति उत्सुक मनुष्य प्रायः हिताहित नहीं जानते । भोग सर्प के शरीर के समान चञ्चल है । भोग किपाकफल के समान परिपाककाल में अत्यन्त विरस होते हैं । भोग के लिए धर्म का त्याग काच के लिए महामणि के स्याम के समान है । भोग सर्पण के समान हैं । भोग भोगकाल में सुखकर प्रतीत होते हैं परन्तु अन्त में सन्तापकारी हैं । समृद्ध राज्य भी धूल के समान है । भोगे जाने पर भी विषयों से प्राणियों को तृप्ति नहीं होती । दुःखदायी विषय भोगकाल में मनुष्यों को सुखदायी लगते हैं । सांसारिक सुखों के त्याग से ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। विषय सुख कड़वे होते हैं । विभूतियां बिजली के समान चंचल होती हैं । भोग सर्प के फण के समान ताप को ही बढ़ानेवाले होते हैं । प्राणियों को दुःख भी सुखरूप जान पड़ता है । विषयादि सुख भोगकाल में ही रमणीय होते हैं । भूज

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