Book Title: Puran Sukti kosha
Author(s): Gyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwuAMINI - - - - KAAIKOMornima पुराण-सूक्ति-कोष सम्पादक श्री शानचन्द्र खिन्द्रका प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन सहायक सम्पादक पं. भंवरलाल पोल्पाका सुश्री प्रीति जैन संकलनकर्ता डॉ. कस्तूरचन्द 'सुमन' डॉ. बुद्धिचन्द जैन प्रबन्ध सम्पादक श्री नरेशकुमार सेठी मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी श्री शानधन खिन्दूका डॉ. कमलचन्द सोगानी श्री नवीनकुमार बम संपादक मण्डल डॉ. गोपीचन्द पाटनी डॉ. दरबारीलाल कोठिया श्री प्रेमचन्द जैन प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन प्रकाशक जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी (राजस्थान) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DHARisinitisaniem - - aumaticodnainitaluminimuanwarmindainbowww विषय-सूची विषय पृष्ठ सं० दो शब्द प्रस्तावना सम्पादकीय १. अनुप्रेमा ३. अवस्था ४. अशक्य ५. मामा/जीव ६. प्रायु ७. पाशा ६. इच्छा १०. उन्नति ११. उपकार १२. कथा १३. कलह १४. काम १५.. काय १६. कापर १७. कार्यकारवत १८. काव्य १६. कोष क्षमा २०. कुतसा/कृतघ्नता २१. गुरु/गुरुभक्ति २२. गुणगुणी २३. ग्रहस्थ २४. चरिथ २५, चिन्ता २६. जिनशासन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. जीवन/मृत्यु २८. आन/प्रशान २६. सय ३०. सेज ३१. त्याग ३२. हमा ३३. दान ३४. दाहक ३५. दूरदर्शिता ३६. बैंव/पुरुषार्थ कर्म ३७. धर्म/अधर्म ३६. धर्य ४०. मिन्दा/प्रशंसा ४१. निमित्त ४२. निर्भीकता ४३. निति ४४ निश्मय ४५. नीति ४६. न्याय/अनाय ४. परिग्रह भोग १६. परिणाम/भाव ५०. पर्याय/भव ५१. पुदमन ५२. पुण्य/पाप ५३. प्रत्यक्ष ५४. प्रमाद ५५. प्रिय ५६. ध/भक्ति ५५. भोजन ५६. मन M ........ M . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S etiamondmanMIll A t ६.. मध्यस्थ ६१. महापुरुष १२. मान अपमान/विनय ६३. माया ६४. मित्र मंत्री शत्रु ६५. मोह ६६. यश अपयश १७. यौवन जरा ६८. रागविराम देव ६६. रूप ७०. लोक ७१. लोभ शोमा सन्तोष ७२. बचन क्ति/मोम ७३. वस्तु पदार्थ 5 ४ । । I U 3 IFA की बी* ७५. विद्वान् ७६. व्रत ७७ व्यवहार 82. व्यसन ७४ शक्ति ८०. शील २१... संकाय ५२. संयोग विमोग 1. मंगति ८४. सरन शुजन ५५. समय ६. सम्मान ८.७. सम्यक्त्व मिथ्यात्व ८. साधू ५६. सुख/दुःय १., स्थान ६१. वजन १२. स्वामी शासक मूल्य १३. स्वास्थ्य ६४. हिंसा अहिसा ६५. विविध १०४ १०६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. adde Ww. दो शब्द रुपने मन के धामों को करने के लिए 'मानव' को प्रकृति से जो भाषागत विशेषता प्राप्त है वह प्राणिजगत् में अन्य किसी को भी प्राप्त नहीं है । भाषा के माध्यम से मानव अपने विवारों का आदान-प्रदान करता है। अपने विचारों को सर्वजनहिताय अभिव्यक्त करने एवं स्थायीरूप प्रदान करने का प्रवास ही साहित्य-सृजन का प्राधार है । साहित्य जाति, धर्म, समाज, देश-विदेश की सांस्कृतिक स्थिति का परि नायक तो होता ही है साथ ही प्रतीत में घटित घटनाओं एवं तथ्यों का ज्ञान भी करता है और भावी संभावनाओं के सम्बन्ध में सतर्क- सावधान भी करता है। साहित्य सर्जक प्रपने मत या विचार के पोषण के लिए अथवा अपनी अभिव्यक्ति को सरस, सटीक एवं मर्मस्पर्शी बनाने के लिए सूक्तियों का प्रयोग करते हैं । सूक्ति, साहित्य-उपवन में से चुने हुए कुछ शब्द - पुष्पों का सुनियोजित, सुन्दर संयोजन है। सूक्ति का शाब्दिक अर्थ है सु-सुन्दर सुष्ठु उक्ति वचन, वाक्य अर्थात् वह वाक्य जो सुन्दर मनोहारी एवं कर्णप्रिय हो और साथ में हितकारी हो । ग्रहितकारी वाक्य 'सूक्ति' नहीं होता। ग्रनुभवों का प्रावार, कुछ fafree aa का कलात्मक संयोजन, मर्मस्पर्शी शैली और संक्षिप्तता सूक्ति की विशेषताएं हैं। सूक्ति में सापवत सत्य की भरा पर जीवन के गहन चिन्तन व प्रभुभवों का निचोड़ होता है । सूक्ति का प्रासा है संप्रेषणीयता । सूक्ति बहुत कम शब्दों में अपने कथ्य को अभिव्यक्ति करती है जो गंभीर एवं सटीक होती है इसीलिए कथन की पुष्टि में सूफियां बहुत सहायक होती हैं और श्रोता के मन पर सीधा प्रभाव डालती है । (i) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहित्य जगत् में तो मुक्तियों का प्रयोग महलता से पाया जाता ही है। झोंपड़ी से लेकर पहलों तक, मिनिस-प्रशिक्षित सभी क्गों में अपने दैनिक बोल. चाल में भी मुक्तियों का प्रयोग सामान्य बात है। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों, विषयों, अंगों यथा-नीति, गुण, परम्परा, विश्वास, लोक-महार, सुस्ता समृद्धि, प्रापति विपर्यास, धार्मिक सिद्धान्त, सुत्सबत्योहार आदि सभी से सम्बन्धित सूक्तियां जनसामान्य में प्रचलित व साहित्य में विद्यमान हैं । उल्लिखित है । एक ही अभिप्राय: को घोषित करनेवाली सैकड़ों सूक्तियां विश्व की विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध होती हैं। सूक्तियों की लोकप्रियता उनको मूल्यबसा के कारण है। सूक्तियां साहित्यदोहन से प्राप्त अमृत है । वास्तव में सूक्तियां कालजयी, देश-काल की सीमा से मुक्त, अ-मृप्त होती हैं। भारत में प्राचीनकाल से ही सूस्ति सुभाषिप्त संग्रहों की सुद्ध परम्परा चली मा रही है। यत्र-तत्र बिखरी हैं। सुलभ सामग्री को एक मजूम में लायोजित, एकरित, मंगहीत करना जिससे उसके गौरव-मूल्य-महत्व प्रादि से लाभ लेना मानव लिए सुलभ हो सके, यही उद्देश्य होता है सुक्ति संग्रह का। पुराण मुक्तियों के भण्डार हैं। उनकी सूक्तियों से जनसामान्य लाभान्वित हो इसी इण्टिकोण में जैनविद्या संस्थान द्वारा संस्कृत भाषा के पांच प्रमुख जैन पुराणों यथा-महापुराण, हरिवंशपुराण, पदमपुराण, पाण्डवपुराण एवं वीर अधमानचरित में से मुक्तियों का संकलन कर प्रकाशन किया जा रहा है। से मूक्तियां प्राहार-विहार, लोक-परलोक, जीवन-मृत्यु मादि विषयों से सम्बन्धित हैं। इनमें कही गम्भीर मार्गनिकता का पुट है तो कहीं सहज व्यावहा• रिकता की झलक । हीं सदाचार का पाठ है, कहीं परोपकार, दान, करुणा, प्रादि सुसंस्कारों की शिक्षा है तो कहीं अनीति के दुष्परिणामों से अवगत कराकर उनके लिये वर्जना 1 माही खौकिक धर्म की धारा प्रवाहित है तो कहीं वैराग्य की सरिता । धम गूक्तियों के संकलम, सम्पादन, अफरीडिंग हेतु भी सहयोगी धन्यवादाई हैं 1 जर्नल प्रेस के स्वामी श्री अजय काला भी इसके मुद्रा के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। जयपुर भीर शासन अयन्ती भाषण १० १.वी. नि. म. २५१३ ११.७-७ मानचन्द्र खिचूका संयोजक अनविता संस्थान समिति श्रीमहावीरनी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रस्तावना wwwwwww.amaniasawaimwanwwwww nawwamwammawaiseDimininemarcasmame भारतीय वाङमय में जैन वाङ्मय का एक विशिष्ट स्थान है। अम मनी. षियों, माचार्यों यादि साहित्य-सड़कों ने प्रायुर्वेद, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, गणित. काव्य, मोति, संगीत, वर्शन न्याय, कला, पुरातस्त्र, अश्यात्म यादि सभी विषयों पर अपनी गंभीर, सरस और प्रौढ़ लेहमी चलाई है। जैन वाङ्मय की एक विधा है 'पुराण-साहित्य । इसमें बोधीस तीर्थक, बारह चक्रवतियों, नो नारायणों, नौ प्रतिनारायणों और नौ बलदेशों इस प्रकार वेसठ शलाकापुरुषों (जैम परम्परा में मान्य प्रसिद्ध महापुरुषों) का विस्तृत जीवनचरित, उनके पूर्वभव प्रादि का वर्णन होता है । माथ ही इनसे सम्बन्धित अन्य महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट पुरुषों के उपाख्यान भी पुराणों में निबद्ध हैं। पुराणों के सृजन का मुख्य प्रयोजन है कि उन महापुरुषों के चरित को जानकर हम भी उन जैसे धर्मपषिक, न्यायशील, अन्याय और पाप से दूर रहनेवाले परोपकारी, जनसेवी एवं प्रास्मबली बनें । अपने अधिकार की रक्षा और दूसरे पर अाक्रमण न करने की दृत्ति अहिंसा है । ये सब प्रवृत्तियां लोकप्तान के लिए प्रत्यन्त प्रायगयक हैं। पुराण में इन्हीं प्रवृत्तियों की पोर प्रेरित करते हैं। इस दण्टि से पुराण-साहित्य महत्त्वपूर्ण है। पुरासा ज्ञान के सागर हैं । उनका मध्ययन मंथन करते समय अनेक तथ्य उद्घाटित होते हैं, जीवन की कई दिशाएँ पालोकित होती हैं । अनुभव की अनेक शुक्तियां सीषिया सुलती हैं पोर सूक्तीरूपी मुक्ता प्राप्त होते हैं। संस्थान के विद्वानों ने पुराणों का परिशीलन करते समय इन्हें खोजा और संजोया है । ये सरस, सरन एवं भावप्रवरण सूक्तियां वार्तालाप प्रवचन, भाषण ...22.mammawratiisaniamrakiindiaDainbowinnicaciesankin Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादि में प्रयोग करने पर उन्हें न चल सौष्ठव प्रदान करती हैं अपितु वक्ता एवं श्रीता दोनों के लिए शिक्षाप्रद सिद्ध होती हैं। प्रस्तुत पुराण मूक्तिकोष में ५ विषयों से सम्बन्धित १०३२ सूक्तियां संग्रहीत हैं जो जनसाहित्य के प्रमुख पांच पुराणों यथा महापुराण, पद्मपुराणा, हरिवंशपुराण, बीर बीमामयरिस (पुराण) एवं पाण्डवपुराण के गर्भ में प्रतिनिथीं। जैन विद्या संस्थान के विद्वानों ने इन्हें संग्रहीत करने का जो कार्य किया है यह उसी प्रकार का दुष्कर कार्य है जिस प्रकार गोताखोर गहन परिश्रम करके समुद्रतल से रत्नों को निकाल कर ले आता है। हम इन विद्वानों को बधाई देते हैं, साथ ही जनविद्या संस्थान की विद्यारसिक समिति और संस्थान की संस्थापिका दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की प्रबन्धकारिणी कमेटी दोनों धन्यवादाई हैं । (डॉ.) वरमारीलाल कोठिमा सेवानिवृत्त रोडर, जम, बौद्ध धर्णन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (iv) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पुराण भारतीय वाङ्मय के गौरव-ग्रन्थ है। जैन परम्परा में उनका और भी विशेष महत्त्व है। तीर्थकरों की वाणी को विशिष्ट पारिभाषिक शब्द 'अनुयोग' नाम से व्यबहुत किया गया है । समग्र अनुयोग प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रश्यानुयोग इन चार भागों में विभक्त है। इनमें में प्रथमानुयोग के अन्तर्गत को परिक्षत किया !::: :: पुराण शब्द की व्युत्पत्तियों में 'पूरणात पुराणम्' भी मन्यतम व्युत्पत्ति है । अन तीर्थंकरों की वाणियों का पूरण करने के कारण इस साहित्य का नाम 'पुरा पड़ा। पूरक पदार्थ में मूल पदार्थ से भिन्नता होते हुए भी साश्य बना रहता है। उसमें मूल पदार्थ से एकजातीयता अनिवार्य है । फलतः पुराण तीर्थकरों की शान एवं तपःसाधना के कारण अन्स प्रस्फुटित वाणियों का शैली विशेष में उपस्थापन कर जनमानस का पथप्रदर्शक है । यह भी कहा जा सकता है कि पुराणों का तीर्थकरों की वाणी से सीधा सम्बन्ध है। जैन वाङमय में साहित्य, धर्म, दर्शम प्रादि की सतत प्रवाहशील पारामों के साथ-साथ मुक्तिधारा भी प्रारम्भ से ही अविरल रूप से बहती रही है । जीवन की गहन अनुभुतियों को भारत के मनीषी प्राचार्यों, कवियों आदि ने काध्यममी भाषा में जनमानस के कल्याण के लिए--लोककल्याण के लिए प्रस्तुस किया है । इस प्रकार सूक्तियां भूतकाल की उपलब्धियों का सार तो है ही, बर्तमान युग के लिये पथ-प्रदशिका भी हैं । नैतिक स्थान के प्रेरक भनेक पद अथवा पद्यात्मक रचनाएँ सूक्तियों के रूप में समाज में प्रचलित हो गई हैं जो प्राप्त-जन की तरह कठिन एवं गहन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करके समाज के लिए वरद सिद्ध PPPPPPLIPPI-Py-d (v) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई हैं। संकटग्रस्त मानवमात्र को मनियां बन्धुजन की भाति उनित मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं। शाब्दिक रष्टि से सुन्दरतापूर्वक कही गयी उक्ति के अर्थ में सूक्ति का प्रयोग होता है । संस्कृत वाहमय में सूक्ति का प्रयोग एक विशेष पर्थ में किया जाता है। मूक्ति वह पदरचना है जो स्वयं में परिपूर्ण हो मोर नसिक, चारित्रिक, धार्मिक अथवा रागारमक किसी एक विचार को प्रस्तुत करने में समर्थ हो। इस प्रकार वाक्पटुता के साथ कही गयी मुक्तक से साम्य रखने वाली रचना को मूक्ति कहा जाता है । मद्यपि मूक्ति और सुभाषित दोनों ही मुक्तककाव्य में परिगणित हैं किन्तु प्रयन्धकाव्य की तरह दोनों के लिए किसी पूर्वापर सम्बन्ध की प्रावश्यकता नहीं होती । जैसा पहले कहा गया है, वे अपने आप में पूर्ण एवं स्वतन्त्र होती हैं । दोनों उद्देश्य में भी समान ही हैं । इनमें अन्तर केवल इतना ही है कि सुभाषित विस्तार की दृष्टि से पूरे पक्ष में रहता है जबकि सक्ति श्लोकार्ष अथवा फ्लोक के एक चरण में होती है । मस्तियां प्रायः दो कारणों से प्रत्यधिक प्रिय एवं अभिरुचि का विषय रही हैं । एक तो ये दुलहता से मुक्त होती हैं। इनकी समझने में कठिन श्रम एवं साधना की अधिक अपेक्षा नहीं रहती, दूसरे ये सरलता मे कण्ठस्थ हो जाती हैं तथा समुचित अवसर पर आवश्यकः प्रभात्र उत्पन्न करने के लिए इनका प्रयोग होता रहता है। आधार एवं व्यवहार सम्बन्धी इन सूक्तियों के महत्त्व को जितना प्रतिपादित किया जाय उतना कम होगा। मनीषियों ने अपनी अगाध अन्तचेतना एवं मनन के द्वारा समाज के लिए मुक्ति-धारा प्रवाहित करने का प्रत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया है । जीवन के सराम और वीतराम इन दोनों पक्षों की पोर उनकी दृष्टि रही है। दोनों ही पक्षों से सम्बन्धित मुक्तियों का अभिप्रेत समाज का उन्नयन रहा है। अंगसाहित्य में सूक्तितत्व पूर्णरूप से विकसित हुँधा है । इसके विकाम-क्रम पर दृष्टिपात करने से इसका स्वरूप स्पष्ट हो आता है। विकास की प्रथम अवस्था है निर्देश । इसमें किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य करके उपवेश दिया जाता है । यह उपदेश भतिक, धामिक मादि किसी भी विषय का हो सकता है। विकास के दूसरे चरण में सक्ति व्यक्ति से उठकर समष्टि तक पहुंच जाती है। अध यह केवल व्यक्तिपरक न रहकर समाज में फैल जाती है। सूक्तियों में निस्सार का प्रभाव होता है, पर उनको संक्षिरित महज ही तीव्रता में परिणत हो जाती है। यह तीयता मानव को कर्मठ बनाने में-सही मार्ग पर चलने में सहायक होती है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rimminan arraminesiranuman in-mur मुस्कियों का संकलन कर कोष के रूप में उन्हें प्रस्तुत करने का महस्थ भी कम नहीं हैं । कोष से सूक्तियों के रचयितानों का तो बोध होता ही है साथ ही वे सहज ही विस्मृत भी नहीं हो पाती। प्रस्तुत मुक्तिकोष की रसना पुराणकोष तयार करते समय प्राई हुई सैकड़ों सूक्तियों के अध्ययन से प्रेरणा पाकर हुई । इस कोष में संग्रहीत मुक्तियों के स्रोत निम्नांकित पांच जैन पुराण हैं १ पपुराण....रविवणाचार्य (पाठवीं शती विश्रम) २. हरिवंशपुराण-जिनसेनाचार्य (नवी माती विक्रम) ३. महापुराण-भिमसेनाचार्य द्वितीय एवं अामायं गुमा भन्न (नवीं-दसवीं शती विक्रम ४. वीरवर्धमानधरित (पुराण)-भट्टारक सकलकीति (पन्द्रहवीं मती धिक्रम) ५. पाण्डवपुराण-शुभचन्द्राचार्य (सत्रहवीं भती विक्रम) ये पुराग विक्रम को आठवीं शताब्दी में मत्रहवीं शताब्दी तक संस्कृत भाषा में विरभित दिगम्बर जैन पुराणों की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं । इम सूक्तिकोष से पुराणकारों की परिपक्व प्रभा एवं प्रौद्ध प्रतिभा का परिचय प्रारत होता है। इन सूक्तियों में संस्कृत काव्य-शैली का प्रकृष्ट रूप प्रस्फुटित हुआ है। इनमें मौलिकता भी है। इनकी भाषा चमत्कारपूर्ण, गागर में सागर भर देने वाली है 1 पुराणकारों ने अपनी प्रमर कृतियों में सक्ति पी मणि-मासानों को इस प्रकार संशोया-पिरोया है कि वयं विषय शुष्क एवं नीरस में रहकर सरस एवं मचिकर बन गया है। इस कोष में विविध विषयों पर आधारिल १०३२ सूक्तियां संगृहीत हैं। इनसे जैनपुराणकारों की रचनामिता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । सक्तियों के विषयों को वर्णक्रमानुसार विभक्त किया गया है एवं प्रत्येक मूति के साथ ही उसके स्रोत का संकेत भी दिया गया है। सूक्ति के सामने उसका हिन्दी अनुबाद सरल और सुन्दोन भाषा में दिया गया है जिससे संस्कृत भाषा से अनमित पाठक भी मुक्ति का लाभ उठा सके । समग्र रूप से जन पुराणों की सूक्तियों के इस प्रकार के कोच का सम्पादन और प्रकाशन पहली बार हो रहा है। प्राणा है यह कोष पाठकों को रुचिकर और लाभप्रद सिद्ध होगा। इस कोष की मूक्तियों का संकलन संस्थान के शोषसहायक डॉ. कस्तूरचन्द्र सुमन ने किया है, प्रारम्भ में थोड़ी मी सहायता डॉ. वृविचन्द्र जैन ने भी दी थी । Po..d.. ramWAAISM" " (vii) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके सम्पादन और यूक सधन में सहायता मेरे सहयोगी मं. भंवरलाल पोल्याका और कु. प्रीसि जैन ने दी है । मुद्रण जर्नल प्रेस के स्वामी श्री अजय काला ने किया है । इन सबकी सहायता के प्रभाव में तथा डा. गोपीचन्द्र पाटनी एवं संयोजत महोदय श्री ज्ञानयन्द्र बिन्दुका की प्रेरणा के बिना इस पुस्तक का प्रकापान सम्भव नहीं था । मैं इन सबके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूं। (प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन (viil) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण सूक्ति-कोष Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनुप्रेक्षा १ विनाऽनुप्रेक्षश्चित्तसमाधानं हि दुर्लभम् । २ मनुष्यजोवितमिदं क्षरणान्नाशमुपागतम् । ३ सर्व भंगुरं विश्वसंभवम् । ४ क्षरध्वंसि जगत् । ५. विद्याकालिकं ह्य तज्जगरसारविवजितम् । ६ कस्यात्र वसूलत्वम् ? ७ कोऽत्र कस्य सुहृज्जनः ? २ न कोऽपि शरणं जातु रुग्मृत्यास्तथाङ्गिनाम् । e संसारे सारगन्धोऽपि न कश्चिदिह विद्यते । १० संसारं दुःखभाजनम् । ११ संसारः साश्वजितः । १२ निःसारे खलु संसारे सुखलेशोऽपि दुर्लभः । १३ असारोऽयमहोऽत्यन्तं संसारो दुःखपूरितः । १४ प्राप्यते सुमहदुःखं जन्तुभिर्भवसागरे । १५ दुःखं संसारसंज्ञकम् । १६ एकाकिनंव कर्तव्यं संसारे परिवर्तनम् १७ एक एव भवभृत्प्रजायते मृत्युमेति पुनरेक एव तु । १८ संसारोनाविरेवायं कथं स्यात् प्रीतये सताम् ? १६ स तु दुःखमेवात्र सुखं तत्रापि कल्पितम् । म. पु. ४२.१२७ प. पु. ११८.१०३ ख. च. ५.१०१ व. ख ११.१३३ प. पु. ११०.५५ म.पु. ६६.११ प. पु. १२.५१ व. च. ११.१४ प. पु. ७८.२४ प. पु. ८.२२० प. पु. १२.५० प. पु. १७.१७ प.पु. ३६.१७२ प. पु. ५.१२१ प. पु. २.१८१ प. पू. ५.२३१ ६. पु. ६३.६२ ब. . ६.२१ प. पु. १४.४६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Radiixitter WititunfiancianRRA RSS महा -~-~- अनुप्रक्षाओं का चिन्तन किये बिना चित्त का समाधान कठिन है । -- यह मनुष्य का जीवन मरणभर में नष्ट हो जाता है । --- संसार में उत्पन्न सभी वस्तुएं क्षणभंगुर हैं । - संसार क्षणभंगुर है। संसार बिजली के समान क्षणभंगुर तथा सारहीन है। --- इस संसार में किसी की भी जड़ मजबुत नहीं है। ...... संसार में कोई किसी का मित्र नहीं है । --- प्राणियों को रोग और मरण से बचाने के लिए कोई कभी शरण नहीं है। -- संसार में कुछ भी सार नहीं है । - यह संसार दुःख का स्थान है। ---- संसार असार है। ..... इस प्रसार संसार में लेशमात्र भी सुख दुर्लभ है । ..--- यह संसार असार और अत्यन्त दुःखों से भरा है । ..... प्राणी संसाररूपी सागर में बहुत दुःख पाते हैं । ----- दुःख ही संसार का दूसरा नाम है । -- जीव को संसार में अकेले ही परिभ्रमण करना पड़ता है। -- यह जीव अकेला ही जन्मता और अकेला ही मरता है । -- यह अनादि संसार सज्जन पुरुषों की प्रीति के लिए नहीं हो सकता। ---- इस लोक में सब दुःख ही दुःख है, सुख तो कल्पनामात्र है । NAMEIAS HEREnt Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर की श्रेष्ठता २० कालज्ञानं हि सर्वेषां नयानां मूमिन संस्थितम् । ५. पु. २४. १० ॥ ... कालनिभिरते गोनिन । है. पु. ६३.३१ ५. पु. ७.१६७ अवस्था २२ सर्वसाधारण मरणामवस्थान्तरवर्तनम् । अशक्य २३ भवेबमृतवल्लीती विषस्य प्रसवः कथम् ? २४ अवलम्ब्य शिलाकण्ठे दोया सतुं न शक्यते । २५ न हि सागररत्नानामुपपत्तिः सरसो भवेत् । २६ बालुकापीडनाद वालस्नेहः संजायतेऽय किम् ? २७ नीरनिर्मथने सम्धिनवनीतस्य किं कृता ? प.पु १२३.७५ प. पु. ३१.१५५ १ ३ ११८.७६ प. पु. ११६.७६ प्रात्मा जीव २८ जलः कि शुद्धिरास्मनः ? २६ नात्मलाभात्परं ज्ञानम् । ३. नात्मलाभात्परं सुखम् । ३१ भात्मलाभारपर ध्यान । पा, पु. २५.११५ था. पू. २५.११५ पा. पु. २५.१२५ पा पु. २५.११५ प. पु. १०६.१२६ २२ नात्मलाभारपरं पदम् । ३३ कुरुष्वं चित्स्वबन्धुताम् । ३४ अनादिसिद्धो नास्तीह कश्चन । ३५ याति जीयोऽयमेककः । म पु. ४२.१०१ प. पु. ३१.१४५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का ज्ञान सब नयों से श्रेष्ठ है । --- अवसर को जानने वाला पुरुष निश्चय ही यथोचित कार्य करता है । wwwww 1111 / VTT मनुष्यों की अवस्थाओं का परिवर्तित होना सामान्य बात है । की बेल से विष की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अमृत कंठ में शिला बांधकर भुजाओं से तेरा नहीं जा सकता । समुद्र के रत्नों की उत्पति से नहीं होती। बालू को पेलने से लेशमात्र भी तेल नहीं निकल सकता । पानी के मथने से मक्खन की प्राप्ति नहीं हो सकती । जल से आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती । आत्मलाभ से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । ग्रात्मलाभ से बढ़कर कोई सुख नहीं है । आत्मलाभ से बड़ा कोई ध्यान नहीं है । आत्मलाभ से बड़ा कोई पद नहीं है । अपने चैतन्य स्वरूप के साथ बंधुता करो। कोई भी जीव अनादि से सिद्ध नहीं होता । यह जीव अकेला ही जाता है । 笑 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. पक्षी वृक्षमिव त्यास्या देहं जन्तुर्गमिष्यति । प. पु. ३१.२३६ ३७. भवे चतुर्गती भ्राम्यन् जीवो दुःखैश्चितः सदा। ५. पृ. १७.१७५ ३८. एकाको जायते प्राणी हो को याति यमान्तिकम्। व. च. ११.३५ ३६ विद्यते स प्रवेशो न यत्रोस्पन्ना मता न च । व. च. ११.२६ ४० कायश्चतत्ययो वयं विरोधिगुरणयोगतः । ४१ विचित्र खलु संसारे प्राणिनां नटचेष्टितम् । प. पु. ८५.६२ प. पु. ४४.१०० प्राय ४२ प्रतीक्षते हि तत्काल मृत्युः कर्मप्रचोदितः । ४३ आयुर्वागुन । ४४ प्रायुजलं गलत्याशु। ४५ घटिकाजलधारेव गलत्यायुःस्थिति तम् । पु. ४८.६ म. पु. १७.१६ म. पु. ८.५४ ब स. ११.५ ४६ प्रतिक्षणं गलत्यायुः । ४७ प्रायुनित्यं यमाकान्तम् । ४६ प्रायुरेव निजारणकारणम्, तत्क्षये भवति सर्वथा क्षयः । ४६ प्रायुःकर्मानुभावेन प्राप्तकालो विपद्यते । प्राशा ५० किमाशा नावलम्बते ? XBANAONGS प. पु. ५२.६६ म. पु. ४३.३०५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA WONG 1083 मान जैसे पक्षी वृक्ष को छोड़कर चला जाता है वैसे ही यह जीव शरीर को छोड़कर चला जायगा। - चतुर्गतिरूप संसार में भ्रम करता मुभा सीब ना कुली रहता है। -- जीव अकेला ही जन्म लेता और अकेला ही मरता है । - संसार में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहां जीवों का जन्म और मरण नहीं हुआ हो । ----- शरीर और चेतन में परस्पर विरोधी गुण होने में दोनों एक नहीं हो सकते। ----- संसार में प्राणियों की चेष्टाएं नट की चेष्टानों के समान विचित्र होती हैं। wamiARASHT ANDRAKARMA - कर्म से प्रेरित मृत्यु अपने योग्य समय की प्रतीक्षा करती ही है । प्रायु वायु के समान चंचल है। प्रायु रूपी जल (हिम के समान) शीघ्र गलनशील है । - आयु की स्थिति घटी-यन्त्र की जलधारा के समान शीघ्रता से कम ___होती रहती है। आयु प्रतिक्षण क्षीण होती जाती है । -- प्रायु सदैव यम से आक्रान्त है । ....... प्रायु ही अपनी रक्षा का कारण है, उसका भय हो जाने पर सब प्रकार से क्षय हो जाता है । ---- मायुकर्म की समाप्ति पर मृत्यु निश्चित है । R A .... आशा सब वस्तुओं की होती है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. पु. ४३.२६८ ५१ प्राशा हि महती नृणाम् । ५२ प्राशापाशवशाज्जीवाः मुच्यन्ते धर्मबन्धुना। -wliadi2MARRIAcsibhasamise प.पु. १४.१०२ म. पु. ५८.२८ s unn प्राश्रय ५३ प्राश्रयः कस्य वैशिष्ट्यं विशिष्टो न प्रकल्पते ? ५४ मलिनामपि नो धत्ते कः धिताननपायिनः ? ५५ स्थीयते दिनमप्येक प्रीतिस्तत्रापि बायते । म. पु. ६.७६ e प. पु. ६१.४५ cess ५६ प्राश्रयसामात् पुसा कि नोएजायते ? प. पु. ४७.२० इच्छा ५७ सत्यमित्रसंबन्धाद् भवन्तीप्सितसिद्धयः । म. पु. ६८.६३८ ५८ निस्सारमोहितं सर्व संसारे दुःखकारणम् । ५६ बिगिचछामकाजलाम् ।। पु. १...७ ६० सर्वो हि वांछति जनो विषयं मनोशम् । म. पु. २६.१५३ ६१ पालादः कस्य पान स्यात् ईप्सितार्थसमागमे? म. पु. ४३.२५३ ६२ जन्तुरन्तकदन्तस्थो हन्त जीवितमीहते । म. पु. ४६.४ NINENEWSMISSIONNOISSERIESXSAIBABESENGEEEEE म. पु. १५.१७ म. पु. १४.६४ ६३ सोपाया हि जिगीषवः । उन्नति ६४ सूत्रतः कस्य नाश्रयः ? ६५ को न गच्छति संतोषमुत्तरोतरद्धितः ? उपकार ६६ प्रणिपाताबसानो हि कोपो विपुलचेतसाम् । म. पृ. ७१.३६८ पा. पु. २०.३५२ '- womin Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मनुष्य की आशा बहुत बड़ी होती है । - धर्मरूपी बंधु के द्वारा जीव प्राशा के पाश से मुक्त हो जाते हैं । विशिष्ट का प्राश्रय सबको विशिष्टता देता है। - मलिन होते हुए भी निरुपद्रवी अधीनों को सब प्राश्रय देते हैं । हीक एक दिन के लिए भी जटा रहता है उससे उसकी प्रीति हो जाती है। - प्राश्रय के सामर्थ्य से मनुष्यों को सब कुछ मिलता है। ---- उत्तम सेवकों और मित्रों के सहयोग से इष्टसिद्धियां मिल जाती हैं । • संसार में समस्त इच्छाएं नि:सार हैं तथा दुःख का कारण हैं । - अन्तविहीन इच्छा को धिक्कार है। - सभी लोग मनोज्ञ विषय को ही चाहते हैं। --- अभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति होने पर सबको मानन्द होता है। .... खेद है कि जीव, यम के दांतों के बीच रहकर भी जीवित रहना ___चाहता है। ---- विजय के इच्छुक मनुष्य उपाय करते ही हैं । - अच्छी तरह उन्नत हा व्यक्ति सबका प्राश्रय होता है । ...- अपनी उत्तरोत्तर उन्नति से सत्र प्रसन्न होते हैं । --- उदारचित्तवालों का कोप विनतिपर्यन्त रहता है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पु. १२.१३१ ६७ जवारा भवन्ति हि दयापराः । ६८ पापिनामुपकारोऽपि सुभुजंगपयायते । ६६ प्रकारणोपकाराणामवश्यंभावि तत्फलम् । म. पु. ४६.३१६ म. पु. ७५.३६५ ७० कथं हत्या उपकारकरा नराः ? ७१ समाधये हि सर्वोऽयं परिस्पन्दो हितापिनाम् । पा. पु. १२.२६७ म.पू. ११.७१ म. पु. ५६.६५ . ७२ भवेत्स्वार्था परार्थता। ७३ परोपकारवृत्तीनां पर तृप्तिः स्वसृप्तये। ७४ मुल्यं फलं ननु फलेषु परोपकारः । #. पु. ५६.६७ म. पु. ७६.५५४ ७५ यशस्तु सत्कथाजन्म यावच्चन्द्रार्कसारकम् । प. पु. १.२५ PASCHAMACAMERASNiya प. पु. १.३२ म. पु. ७४.११ पा. पु. १२.३४ ७६ दन्तास्त एव ये शान्तकथासंगमरंजिता । ७७ सा कथा यो सभाकर्ण्य हेयोपादेयनिर्णयः । कलह ७८ कुटुम्बकलहो यत्र तत्र स्वास्थ्य कुतस्तनम । काम ७. कामग्रहगृहीतस्य का मर्यादा कमोऽपि कः ? ८० को विधेको हि कामिनाम् ? ५१ मारसेवा न तृप्तये। ८२ कर्मणा कलितः कामी कुरुते किं न दुष्करम् । ह पु. १७.१५ पा. पु. ७८ पा. पु. ३.६ पा. पु. ७.२१६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- उदार मनुष्य दयालु होते ही हैं । ----- पापी पर (दुष्ट पर) उपकार करना सांप को दूध पिलाना है । --..- बिना कारण (निःस्वार्थ) किये गये उपकार अवश्य ही फलदायी होते हैं। -~- उपकार करनेवाले मनुष्य मारने योग्य नहीं हो सकते । --- परोपकारी पुरुषों की सम्पूर्ण क्रियाएँ दूसरों की भलाई के लिए ही होती हैं। - परोपकार में स्योपकार भी निहित है । -- परोपकारी के लिए दूसरों की सन्तुष्टि ही अपनी सन्तुष्टि है। - सब फलों में परोपकार ही मुख्य फल है। । ..... सस्पुरुषों को कथा से उत्पन्न या जच तक चन्द्र, सूर्य और तारे हैं तब सक रहता है। ---- दांत बही हैं जो शान्त कथाओं के समागम से रंजित रहते हैं। .... कथा वही है जिसके श्रवण से हेय और उपादेय का निर्णय होता है। -- जिस परिवार में कलह हो वहां स्वास्थ्य नहीं रह सकता। ...... कामी मनुष्य के लिए कोई मर्यादा और नियम नहीं होते। --- कामी जनों को विवेक नहीं रहता । -~- काम सेवन से कभी तृप्ति नहीं होती। --- कर्म के वश में होकर कामी जीव प्रत्येक दुष्कार्य कर सकता है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ का लज्जा का मिना किल? . . . पा.पु. १.८० ८४ मशृणोति स्मरग्रस्तो न जिघ्रति न पश्यति । ५ पृ. ३६.२०६ ५५ स्त्रीचित्तहरणोच क्ताः किं न कुर्वन्ति मानवाः ? प. पु. ४१.६२ SSS SHREE ४६.६३ ८६ कुशीलस्य विभवाः केवल मलम् ५७ हेयोपेयविवेकः कः कामिनां मुग्धचेतसाम् । 4. ४५.१४३ ८८ कामिना क्वान्तरज्ञता ? प. पु४८.६६ मह धिक्कामं धर्मदूषकम् । म. पृ. ५६.२७० ६. विवा तपति तिग्मांशुमदनस्तु विवानिशम् ।। ६१ चित्रं हि स्मरवेष्टितम् । प. पु. ४६.१८६ ९२ समस्तरोगाणां भदनो मूर्टिन वर्तते । प. पू. १२.३४ ६३ कामासक्तमतिः पापो न किंचिद् देसि वेहवान् । ५. पु. ८३.५३ १४ ज्येष्ठो व्याधिसहस्त्राणां मदनो मतिसूदनः। 7. पु. १५.३३ प. पू. ३१.१३६. इ. ५. ४३.१५४ ६५ कामाचिषा परं वाहं बजन्ति कुत्सिता नराः ६६ परस्त्रीहरणं सत्यं बुगलेई :खकारणम् । ६७ परस्त्रीसंगपंकेन विग्धोऽक्रोति ब्रजेस्पराम् । १८ परदाराभिलाषोऽयभयुक्तोऽतिभयंकरः । KE ये परदारिका दुष्टा निग्राह्यास्ते न संशयः। काय १०० धर्मसाधनमा हि शरीरमिह देहिनाम् ।। १०१ गते प्राणे भवेत्सुप्रभा तमो : । प. पु. ७३.६० ५. पृ. ४६.१२३ प. पु. १०६.१५४ म. पु. ७२.६४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माल commonweadotcom TAWANIRAHAWANA - कामी जनों को लज्जा नहीं होती। ..... काम से ग्रस्त मनुष्य न सुनता है, न सूघता है और न देखता है। ..... स्त्रियों का चित्तहरण करने में लगे हुए मानव सब कुछ कर सकते हैं। .--- कुशील मनुष्य का वैभव केवल मल्ल है । .... मोहग्रस्त कामियों को हेयोपादेय का ज्ञान नहीं होता। ... कामी मनुष्यों को हिताहित का ज्ञान नहीं होता। ...... धर्म को दुषित करनेवाले काम को धिक्कार है। ...... सूर्य सो दिन में ही तपता है किन्तु काम दिन रात तपता रहता है। ..... काम की पंष्टा विचित्र होती है। ..... काम समस्त रोगों में प्रधान है । .... कामासक्त पापी व्यक्ति कुछ भी नहीं समझता । ... बुद्धि को नष्ट करनेवाला काम हजारों बीमारियों में सबसे बड़ी बीमारी है। --... क्षुद्र मनुष्य काम की ज्वाला से परम दाह को प्राप्त होते हैं : .... सत्य है, पर स्त्री हरण दुर्गति के दुःख का कारण है । ..... पर स्त्री कर्दम से लिप्त पुरुष की अपकीति होती है। ... पर स्त्री की अभिलाषा अनुचित और अति भयंकर है। -. जो परस्त्री-लम्पट हैं वे अवश्य ही दण्ड के पात्र हैं। .-- इस संसार में देहधारियों की देह ही धर्म का पहला साधन है । .- प्राण निकल जाने पर शरीर शोभाविहीन हो जाता है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ वेहोऽयमभुवः । १०३ जलबुबु बस्कायः सारेख परिवर्जितः । १०४ शरधनइवाकस्माद्देहो नाशं प्रपद्यते । १०५ जलबुवनिःसारं कष्टमेतच्छरीरकम् । १०६ श्रानाय्ये नियतं देहे शोकस्यालम्बनं मुधा । १०७ रोगोरगबिलं कायम । १०८ अपकालमिदं जन्तोः शरीरं रोगनिर्भरम् । १०६ रोगस्थायतनं देहम् । ११० रोगोरवालां तु ज्ञेयं शरीरं वामलूरकम १११ सर्वस्य साधनो देहस्तस्थाहारः सुसाधनम् । कायर ११२ कापुरुषा एव स्वलन्ति प्रस्तुताशयात् । ११३ कातरस्य furatsier | कार्यकारण ११४ कर्मकमेव संसारे शस्यते धर्मकारणम् । ११५ यथया निर्मितं पूर्वतयोग्यं जायतेऽधुना । ११६ फलति फलं स्वकर्म जगतो हि यथाविहितम् । ११७ आयते विफलं कर्माप्रेक्षापूर्वक कारिलाम् । ११८ नामोपलब्धिभारेण कार्यसिद्धिः किमिष्यते ? ११६ निश्चित्य विहिते कार्ये लभन्ते प्राणिनः सुखम । १४ प. पु. १३.७२ प. पु ५.२३७ प. पु. १०.१५६ प. पु २६.७३ प. पु. ११७.९ थ. च. ११.५. १२.५ प. पु. म.पु. ३६१२४ म. पृ. ५२.४६ म.पु. ६०.३५७ प. पु. ७. २५० प. पु. ३०.७३ पं. प. पू. *£.&= प. पु. ३६.१४२ हृ. पु. ४६.१७ प. पु. १२.१६५ प. पु. ७३.१२० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- यह शरीर अनित्य है। ---- शरीर पानी के बबूले के समान सररहीन है। ..... शरत्कालीन बादल के समान देह अकस्मात् ही नष्ट हो जाती है। ..... ''यह शरीर पानी के बुबुदे (बुलबुले) के समान नि:सार है ।"-यह बात बडं कष्ट की है। ... इस मरणशील शरीर के लिए शोक करना व्यर्थ है। - शरीर रोगरूपी सांप का बि लहै । - रोगों से भरा प्राणियों का यह शरीर अल्पकालीन है । ....- शरीर रोगों का घर है । ...... यह शरीर रोगरूपी सर्पो का घर है । - सबका साधन शरीर है और शरीर का साधन प्राहार । --. कायर पुरुष ही अपने प्रकृत लक्ष्य से भ्रष्ट होते हैं । ..... कायर को विषाद होता है। ..... संसार में धर्म का कारण कर्म ही प्रशंसा योग्य है। ----- जीव पूर्वभव में किये कार्य के अनुसार ही जन्म लेता है। ... जगत् में जो जैसा करता है वैसा भरता है। ---- विना विचारे कार्य करनेवालों का कार्य विफल हो जाता है । ... नाम की उपलधि मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती। ..- विचारपूर्वक किये हुए कार्य से प्राणियों को सुख मिलता है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० तस्कायं बुद्धियुक्त न परत्रेह च यत्सुखम् । प.पु. ७३.१०४ प. पु. ३७.६७ १२१ सहसारभ्यमाणं हि कार्य प्रति संशयम् । १२२ तस्कृय धीमतां येन होहामुत्र सुखं यशः । ब. स. म ७.३२१ १२३ अनाप्यं कि सबनुष्ठानसत्परः? १२४ पर्जन्यवत्सता बेष्टा विश्वलोकसुलप्रवा। ४६.५४ १२५ अकृतोसमकर्माणो याम्ति मृत्यु निरर्थकाः । १२६ मारमार्थ कुर्वतः कर्म सुमहासुखसाधनम् । १२७ पूज्यातिलंघनं प्राहरुभयत्रानुभावहम् । ४४.३६ १२८ व्यसनस्फीतिकरं शिवतरम् । प पु. १२३.१७१ १२६ दुष्कायें को न मुह्यति ? म. पु. ४४.६० १३० प्रनालोचितकार्याणां कि मुक्त्यान्यत् पराभवम् ? म. पु. ७१.३७४ ।। १३१ अनिरूपितकार्याणा नेह नामुत्र सिद्धयः । १३२ न किाँचमध्यनालोख्य विषेयं सिद्धिकाम्यता। म. पु. २८.१४३ म. पु. ७५.५८० १३३ प्रकालसाधनं शौयं न फलाय प्रकल्पसे । १३४ बुद्धिांग्रेसरी यस्य न निबन्धः फलस्यसौ। १३५ भस्मभावं गसे गेहे कपखानश्रमो वृथा। १३६ प्रदीप्ते भवने कीवक तडागखननावरः ? ५. पु. ४६.६६ ........" पु. ६६.१०२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बुद्धिमान् मनुष्य को इस लोक और परलोक में सुखदायी कार्य करना चाहिये। ---- सहसा प्रारंभ किया हुआ कार्य संशय में पड़ ही जाता है । ----- बुद्धिमानों के लिए वही करणीय है जिससे इस लोक और परलोक में सुख और यश प्राप्त हो । ..... सत्कार्य करने में तत्पर मनुष्यों को सब सुलभ है। -. सत्पुरुषों की चेष्टा मेघ के समान सब लोगों को सुखप्रद होती है। ..... जिन्होंने उत्तम कार्य नहीं किये हैं वे व्यर्थ ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। - आत्मा के लिए करनेवाले का कर्म महासुख का साधन होता है । ---- पूज्य पुरुषों का उल्लघंन दोनों लोकों में अशुभकारक कहा गया है। --- बुरा कार्य कष्टों की वृद्धि करता है । -- बुरे कार्यों में सब मोहग्रस्त हो जाते हैं। ---- बिना विचारे किये कार्य का फल पराभव के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता । _... बिना विचारे कार्यों से न तो इस लोक में और न परलोक में सिद्धि होती है। --- सफलता के इच्छुक पुरुष को बिना विचारे कुछ भी नहीं करना चाहिये । --- प्रतिकूल समय में प्रकट की हुई शूरता फलदायी नहीं होती । ~~~~- बुद्धिहीन प्रयत्न कभी सफल नहीं होता । --- घर के भस्म हो जाने पर कूप खुदाने का श्रम व्यर्थ है । ..... घर में आग लग जाने पर तालाब खोदने से कोई लाभ नहीं । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ प्रशपयारम्भवृसीनां क्लेशायन्यत् कुतः कलम् । भ. पु. ६८.१५० و هي 4. पु. ४४.१४६ १३८ तदकृत्यतरं येन निन्दा दुःख पराभवम् । १३६ फलम्त्यकार्यश्चर्याणां दुःसहा दुःखसंततिम् । भ. पु. ६५.११३ १४० प्रायोऽना बहुत्वगरः । १४१ कारणेन विना कार्य न कदाचित् प्रजायते । १४२ कारणे सति कार्यस्य कि हानि श्यते क्वचित् । म. पु. १४३ न कारणाद्विना कार्यनिष्पतिरिह जातुचित् । भ. पु. من ५.१७ م ي من २६.१५४ १४४ हेतुना न विना कार्य । १४५ न कार्य बोजवजितम् । १४६ कारणान विना कार्यम् । १४७ क्वचित्काचितिक जायते कारणाहिला? هنا म. पु. ७६.३८० NIRASIMHA ESEAR काव्य १४८ कविरेष कवेर्वेत्ति कामं काग्यपरिश्रमम् । १४६ कविश्वे का दरिद्रता ? म. पु. ४३.२४ म. पु. १.१०१ ६६.५४ و क्रोध/क्षमा १५० प्रतिशब्देषु क: कोपः ? १५१ न प्रसादयितु शक्यः क्रुद्धः शीघ्र नरेश्वरः । १५२ कोपोऽपि सुखवः क्वचित् ।। १५३ कोपोऽपि क्वापि कोपोपलेपनापमुझे मतः من ४४ ६६ म. पु. ६८.१३८ هن म. पु. ६३.२५४ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ share कार्यों को प्रारंभ करनेवाले मनुष्यों को क्लेश ही मिल सकता है । वही कार्य प्रकृत्य है जिससे निन्दा, दुख और पराभव हो । अकार्य में प्रवृत्ति करनेवाले दुःसह्य दुःख संतति को प्राप्त होते हैं। अनर्थ प्रायः अनेक रूपो में आते हैं। कार्य की उत्पत्ति कभी भी कारण के बिना नहीं होती । कारण के रहते हुए कार्य की हानि नहीं होती । इस संसार में कारण के बिना किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती । कारण के बिना कार्य नहीं होता । कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता । कारण के बिना कार्य नहीं होता । बिना कारण के कभी कोई कार्य नहीं होता । بست afat afa के काव्यसृजन के परिणाम को जान सकता है । कविता करने में दरिद्रता नहीं बरतनी चाहिए। सुनी सुनाई बात पर कोध करने से कोई लाभ नहीं । - कुपित शासक को शीघ्र प्रसन्न करना संभव नहीं है । कभी कभी क्रोध भी सुखदायी होता है । कभी कभी कोष से भी क्रोध दब जाता है । १९ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عن ما هي १५४ कोषः करोति मोहान्धमपि वीक्षामुपाश्रितम् । प. पू. ३१.१६७ १५५ भवेस्कोधाबधोगतिः । ७५.१२६ १५६ न हि प्रियजने कोपः सुधिरं किल शोभते । ___७७.४३ १५७ परलोकजिगोषणां समा साधनमुसमम् । म. पु. ३४,७७ १३५ या निजामते ! म पु. ४६.२५२ कृतज्ञता/कृतघ्नता १५६ कृतं परेणाण्युपकारयोग, स्मरन्ति नित्यं कृतिनो मनुष्याः । १६० कृतोपकारिणे देयं कि न तत्कृतविभिः । १६१ असम्भाष्यः सतां नित्यं योऽकृतको नराधमः नित्य प्राकृतज्ञा नराधमः प पु. ४६.६४ गुरु गुरुभक्ति १६२ विद्यालाभो गुरोर्वशात् । ह. पु. १.१३० १६३ उपदेशं देवत्पात्रे गुरुयति कृतार्थताम् । ह. पु. १००.५२ १६४ कि न स्यात् गुरुसेवया ? ह. पु. ९.१३१ १६५ गुरौ भक्तिस्तु कामदा । पा. पु. १०.३० पु. ०.२७६ गुरण/गुरगी 4 पु. २८.१४३ १६६ स्वभावः खलु बुस्स्यजः । १६७ भवेत्स्वभावो न टेकः कलहंसबकोग्योः । १६८ गुणजता अगत्पूज्या गुणी सर्वत्र मन्यते। १६६ गुणरावयते न ? १७० गुणा हि गुणतां यान्ति गुज्यमानाः पराननः। पा. पु. ७.१० पा पु २.६६ प. पु. ७३.७४ Amra wwwwwwwwwwm Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — - mal - Ivin कोव दीक्षित को भी मोहान्ध बना देता है । 'साधु — hta से प्रगति होती है । प्रियजनों पर अधिक समय तक के लिए क्रोध करना अच्छा नहीं हैं । परलोक सुधारने के लिए क्षमा उत्तम साधन है । क्षमा से सब कुछ हो सकता है । कृतज्ञ मनुष्य दूसरे के द्वारा किये हुए उपकार का निरन्तर स्मरण रखते हैं । wwww कृतज्ञजनों द्वारा अपने उपकारी को सब कुछ देय है । कृतघ्न सत्पुरुषों से वार्तालाप करने योग्य नहीं है । विद्या की प्राप्ति गुरु से ही होती है । पात्र को उपदेश देनेवाला गुरु कृतकृत्य हो जाता है। गुरुसेवा से सब कुछ हो सकता है । गुरुभक्ति इष्ट फल देती है । स्वभाव कठिनाई से छूटता बदलता है । कलहंस पक्षी और बगुले का स्वभाव एकसा नहीं होता । गुणज्ञता संसार में पूज्य है और गुणों का सब जगह सम्मान होता है। गुणों से सभी वशीभूत हो जाते हैं । दूसरों द्वारा प्रशंसित गुण ही गुण कहलाते हैं । २१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ अत्युनतगुणः शत्रुः श्लाघनीयो विपश्चिताम्। प. पु. ७८.२६ १७२ दोषान् गुणान गुणी गृहान गुणान बोषास्तु घोषवान् । म. पु. ४३.२० १७३ दीप्तं हि भूषणं नैव भूषणान्सरमीक्षते। म. पु. २५.१६ १७४ गुणाधिको हि मान्यः स्याद् बन्धः पूज्यश्च सत्तमः । म. पु. ४८.२०१४ १४५ गुणाधिको हि लोकेऽस्मिन् पूज्यः स्याल्लोकपूजितः । म. पु. ४०.१८५ १७६ स्खलन्ति न विधातव्ये वनेऽपि गुणिनो जनाः।। 4. पु. १७.३५७ १७७ गुणोत्कटान शंसन्ति धीरा; स्वं स्वयमुत्तमाः । १७८ गुणा गुणाथिभिः प्रायाः । १७६ गुणिसंगाद गुणो भवेत् । गृहस्थ १५० मलिमत्वं गृही याति शुक्लाशुकमिव स्थितम् । प. पु. ११०.४५ 44 पा. पृ. ३.१७ प. षु ११०.७३ ५ पु. ३१ १३५ १५१ गृहपंजरक मूढाः सेवन्ते न प्रबोधिनः । १८२ कामक्रोधादिपूर्णस्य का मुक्तिगहिसे विनः। चरित्र १५३ कायवाक्चेतसा वृत्तिः शुभा हितविधायिनी। १४ दुराचाराजितं पापं सच्चरित्रेण नश्यति । १८५ चारित्रेण न तेनार्यो थेन नारमाहितोद्भवः । १८६ स्वचरितरविरेव प्रेरयत्यात्मकायें । प. पु. १५.१७० ७२.४६ ܦܝܕܪܕܝܕܩܕ २७.३८ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... विद्वान् उत्कृष्ट गुणवाले शत्रु की भी प्रशंसा करते हैं । ..-- गुणी पुरुष दोषों को गुणरूप से और दुष्ट लोग गुणों को भी दोषरूप से ग्रहण करते हैं। - स्वयं दैदीप्मान प्राभूषण को दूसरे प्राभूषणों की अपेक्षा नहीं होती । गुणों की अधिकता से ही पुरुष सत्पुरुषों द्वारा मान्य और पूज्य होता है। Nagarikaawinner .... इस संसार में अधिक गुणवान् पुरुष लोक पूजित पुरुषों द्वारा भी पूना जातहै. ---- गुणीजन बन में भी करने योग्य कार्य से नहीं चूकते । --- गुणवान् उत्तम, धीर पुरुष स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करते। ----- गुणार्थी गुणों की कामना करते हैं । - गुणियों की संगति से गुण प्रकट होते है । F - -- - - गृहस्थ पड़े हुए शुक्ल वस्त्र के समान मलिनता को प्राप्त हो ही जाता है। ---- गृहरूपी पिंजड़े को मूर्ख मनुष्य ही पसन्द करते हैं, बुद्धिमान् नहीं । – काम और क्रोध आदि से पूर्ण गृहस्थ की मुक्ति नहीं हो सकती। - - मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति हो हितकारिणी है । - दुराचार से कमाया हया पाप सच्चरित्र से नष्ट हो जाता है। ----- वह चरित्र जिससे प्रारमा का हित न हो, ब्यर्थ है । - मनुष्य का अपना चरित्ररुपी सूर्य ही उसे आत्म सुधार के लिए प्रेरित करता है। 3 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा. पु. १२.२७६ चिन्ता १५७ चिन्तया श्रीहि नश्यति । जिनशासन १५८ शासनस्थ जिनेन्द्राणामहो माहात्म्यमुत्तमम् । १८९ जिनशासनमेतद्धि शरणं परमं मतम् । भोजन दृत्यु १६० जीवितं ननु सर्वस्मादिष्टं सर्वशरीरिणाम् । १६१ यथा स्वीवितं कान्तं सर्वेषां प्राणिनां तया प. पु. ३०.४७ ५. पु. १०४.७० प. पू. १५.१२७ ५ पु. ५.३२८ ९.४८ SSRUARRRithilitRADES 4 4 १६२ विद्युल्लताबिलासेन सदृशं जीविलम् चलम् । ५. पु. ५.२३७ १६३ जीवितं स्वप्नसन्निभम् । १६४ करिबालककर्णान्स चपलं ननु जीवितम् । ३६.११३ १६५ जीवितं बुबुदोपमम् । १६६ समस्तेभ्यो हि वस्तुभ्यः प्रियं जगति जीवितम् । ५ १६७ चनः पश्मपुटासङ्गक्षणिक ननु जीवितम् । २.२२६ १९८ जाताना हि समस्तानां जीवानां नियसा मृतिः। ६१.२० १६ मरणास्परमं दुःखं न लोके विद्यते परम् । २०० जातेनाऽवश्यमध्यमत्र संसार-पंजरे । ११७.८ २०१ प्रतिक्रियाऽस्ति नो मृत्योरुपायैर्वविधैरपि । ११७.८ २०२ अनन्यापि समाश्लिष्टं मृत्युहरति देहिनम् । ११७.२६ २०३ मृत्युः प्रतीक्षाले नैव बालं तरुणमेव था । प. पु. ३१.१३३ २०४ सर्वतो मरणं दुःखमन्यस्मादुखतः परम् । प. पु. २६.२६ 4 4 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ansinadisio n चिन्ता से बुद्धि नष्ट हो ही जाती है। -- अहो ! जिनशासन का बड़ा माहात्म्य है । -- जिनशासन ही परम भरण है। HIMIRE DANSAR a: .निश्चय ही प्राणियों को अपना जीवन सबसे अधिक प्रिय होता है। --- जैसे हमें अपना जीवन प्यारा (प्रिय) है वैसे ही (अन्य) सब प्राणियों को भी। जीवन बिजली की चमक के समान चंचल है । जीवन स्वप्न के समान है। जीवन हस्ति-शिशु के कानों के समान चंचल है । --- जीवन पानी के बुबुदों के समान है। --- संसार में समस्त वस्तुओं से जीवन ही प्यारा होता है। -~~- जीवन नेत्रों की टिमकार के समान क्षणभंगुर है। --- उत्पन्न हुए समस्त जीवों का मरण निश्चित है । ... संसार में भरण से बढ़कर दुःख नहीं है। - संसाररूपी पिंजड़े के भीतर उत्पन्न हुए का मरण अवश्यंभावी है । .--- अनेक उपायों के द्वारा भी मृत्यु का प्रतिकार नहीं किया जा सकता। - माता से आश्लिष्ट प्राणी को मृत्यु हर लेती है । --- मृत्यु बालक अथवा तरुण की प्रतीक्षा नहीं करती । -- सब दुखों में मरणदुःख सबसे बड़ा दुःख है । . सा : Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पु. ३०.११३ २०५ जातस्य नियतो मृत्युः । २०६ पूर्घोपकण्ठदसानिमत्युः कालमुदौलते । २०७ बलबद्भ्यो हि सबभ्यो मृत्युरेव महाबलः । २०८ केनापि हेतुना किंवा न मृत्योर्हेतुता प्रजेत् ? २०६ पासप्तमृत्यूनो भवेत्प्रकृतिभ्रमः । ५.२६८ netBHBE 9CWMVIKyrY SHARASIAALKRISihi. ४६.६१ ५. पृ. ६४.५३० २१० नाकाले नियले कश्चिद्वनेगापि समाहतः। प.पु ४६.३५ । २११ मृत्युकालेऽमृत जन्तोविषतां प्रतिपद्यते । ज्ञान-प्रज्ञान २१२ विद्या बन्धुश्च मित्रं च विद्या कल्याणकारिणी म. पु. १६.१०१ २१३ सम्यगाराधिता विद्या देवता कामदायिनी। २१४ विद्याकामदुहा धेनुः । २१५ विद्या चिन्तामणिणाम् । २१६ त्रिवर्गफलिता सूते विद्या लम्पत्परम्पराम् म. पु १६.६६ २१७ विद्या यशस्करी घुसा। २१८ दिखा श्रेयस्करी मता। २१६ विद्या सर्वार्थसाधिनी । २२० सहयामि धनं विशा। म. पृ १६.६६ म. पु. १६.१०१ म पु. १६.१०६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो हुआ है उसकी मृत्यु नियत है । -- मस्तक पर खड़ा हुआ काल अवसर की प्रतीक्षा करता है । मृत्यु सभी बलवानों से अधिक बलवान है। मृत्यु का कारण कोई भी हो सकता है । जिनकी मृत्यु हो जाता है । जब तक मृत्यु का समय नहीं प्राता तब तक वक्त्र से श्राहत होने पर भी नहीं मरता । जब मृत्युकाल मा जाता है तब अमृत भी विष हो जाता है । Appapa निकट श्रा जाती है उनके स्वभाव में विभ्रम विकार -w विद्या (ज्ञान) मनुष्यों की बंधु है, मित्र है और कल्याण करने वाली है । अच्छी तरह से प्राराधित विद्या- देवता मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है । frer कामधेनु है । fear मनुष्यों के लिए चिन्तामणि के समान है । fter a rai (वर्म, अर्थ और काम ) रूपी सम्पदा उत्पन्न होती है । famr मनुष्यों को यशदात्री है। faur searणकारी मानी गई है । fear सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली होती है । विद्या साथ जाने वाला धन है । २७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ प्रक्षालनाद्धि पस्थ दूरावस्प-शनंवरम् । पा पृ. ५.६) २२२ गृहीत्वा त्यज्यले यच्च प्राक् सस्थाग्रहरणं परम् । पा पु. ५६१ म पु ५४.२१३ २२३ सद्बुद्धिः सिद्धिदायिनी। २२४ बोधिरेका सुदुर्लभा । २२५ दुर्लभा बोधिरुसमा २२६ स्थित ज्ञानस्य साम्राज्ये केस परिधीयते २२७ ज्ञानेन ज्ञायते विश्व धर्मपापं हिताहितम् । पु. ३२.६६ र. ७७.५२ २२८ ज्ञानेन तेन कि येन ज्ञातो नाध्यात्मगोचरः। ५ पृ. २२६ प्रासम्नमृत्यूनां सद्यो यिध्वंसनं मतेः । म. ६८.२६३ । २३० ननं विनाशकाले हि नृणां ध्वान्तायले मतिः। प. पू. २३१ अज्ञानेन कृतं पापं यत्तज्ज्ञानेन मुच्यते । २३२ न मुह्यति प्राप्तकृतौ कृती हि । २३३ पीयूषे हि करस्थेऽहो के भजन्ते विष बुधाः । वा ५. २५.१२५ ।। २३४ प्राप्य चिन्तामणि काचे को रति कुरुते पुमान् ? । ___पा १ २५.११६ २३५ भुधा बुधा न कुर्वन्ति किल्विषं कामवाञ्छया। पा. पु. ६.४३ २३६ उपाहि प्रवर्तन्ते स्वार्थस्य कृतयुद्धयः । २३७ विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मति याति कोविदः।। २३६ हुतं विनिर्गतं नष्टं न शोषन्ति विचक्षणाः प. पु. ३७.७२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कीचड़ लाक; उसे शोने की अपेष्टा कोष को न मा ही प्रथया है। - ग्रहण करके जो वस्तु छोड़नी पड़ती है उसको पहले हो छोड़ देना MER - सद्बुद्धि सिद्धि-दायक होती है । - बोधि ही अत्यन्त दुर्लभ हैं । - उसमाधि दुर्लभ है। - केवलज्ञान सब प्रकार के ज्ञानों में श्रेष्ठ है । ran ज्ञान के द्वारा ही सर्व धर्म-अधर्म मार हित अहित की परीक्षा मा उस ज्ञान से कोई लाभ नहीं है जिससे प्रध्यात्म का ज्ञान न हो। मरणासन्न व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। विनाश के समय मनुष्यों की बुद्धि अन्धकारमय हो जाती है। - प्रज्ञान से किया गया पाप ज्ञान से छूट जाता है । कुशल मनुष्य अवसर पाकर नहीं चूकता । अमृत हाथ में होने पर बुद्धिमान विष-मेवन नहीं करते । - चिन्तामणिरत्न के प्राप्त होने पर कोई भी काच से प्रेम नहीं करता। - बुद्धिमान् कामेच्छा से व्यर्थ पाप नहीं करते । -- कुशलबुद्धि मनुष्य प्रात्महित के उपायों में ही प्रवृत्ति करते हैं । --- सभी कुशल व्यक्ति लोक में विद्यावान् का सम्मान करते हैं । - चतुरजन हरण किए हुए, खोये हुए और नष्ट हुए का शोक नहीं करते। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ को नाम स्पृहयेद्धीमान् भोगान् पर्यन्ततापिनः । २४० शीतार्त्तः को न कुर्योत सुधीरातप सेवनम् । २४१ शंसन्ति निश्चिते कृत्ये कृतज्ञाः क्षिप्रकारिताम् । २४२ श्रवणाग्निशत्रूणां शेषं नोपेक्षते कृती । २४३ प्रयोजनवशात् प्राज्ञः प्राप्तोऽपि परिगृह्यते । २४४ प्रासनिः । २४५ प्राज्ञैः शोको न धार्यते । २४६ वाचो युक्तिविचित्रा हि विदुषामर्थदेशने । २४७ महत्यावशते मन्यनन्थः कः परिस्वलेत् । २४८ प्रवस्य चात्मज्ञः प्रादुर्भाव निषेधनम् । २४६ क्वापि कोपो न धीमताम् । २५० ग्रात्मवतां वित्तमात्मश्र यसि रज्यते । २५१ सर्वचक्षुर्यः यस्कूपे तस्य चक्षुनिरर्थकम् । २५२ प्राप्य चूडामणि मूढः को नामात्रावमभ्यते ? २५३ किंवा दुष्करं मूढचेतसाम् । २५४ नमत्यज्ञोऽधिकं क्षतः । २५५ प्रज्ञानेन हि जन्तूनां भवत्येव दुरोहितम् । २५६ ज्ञानहीनो न जानाति हैयावेयं गुणागुणम् । ३ भ. पु. १५.१११ प. पू. ११.६५ म.पु. ६८.४३३ म. प्.. ३४.४६ प.पु, ४३.२९६ भ.पु. ७३.१२३ प. पु. ४८.१५६ प. पु. ४८.१ प. पु. १,१६४ म.पु. ६२.११६ म.पु. ६३.१२९ म.पु, १०.१२४ व. च. १०.६२ म.पु. ७५.५०१ प. पु. ६७.४३ः म.पु. ३१.१३६ प. पु. ११.३०५ ब. व. १५.१६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कोई भी बुद्धिमान् अन्त में सन्तापदायी भोगों को नहीं चाहता है। - बुद्धिमान् शीत से पीड़ित होने पर धूप का सेवन करता ही है। - बुद्धिमान् निश्चित किए हुए कार्य में शो घसा करने की प्रशंसा करते हैं। ऋण, धात्र, अग्नि और शत्रु के शेष भाग की बुद्धिमान् उपेक्षा नहीं करता। -- बुद्धिमान् हटाये हुए पुरुष को भी अपने प्रयोजनवश फिर स्वीकार कर लेते हैं। बुद्धिमान् मार्ग के जानने वाले होते हैं । - बुद्धिमान शोक नहीं करते । मा- अर्थ प्रकट करने में विद्वानों की बनन-योजना निचित्र होती है। - महापुरुषों द्वारा प्रदणित मार्ग पर चलने वाला ज्ञानी मार्ग से स्खलित नहीं होता। मात्मशानी शत्रु और रोग को उत्पन्न होते ही नष्ट कर देते हैं । -- बुद्धिमान् किसी पर भी क्रोध नहीं करते। प्रात्मज्ञानियों का चित्त प्रात्मकल्याण में ही अनुरक्त रहता है । - आंख के होते हुए भी जो प्रादमी कुए में गिर जाय उसकी ग्रांख निरर्थक है। -- चूडामणि को पाकर कोई मूर्ख भी उसका तिरस्कार नहीं करेगा। ----- मूर्ख मनुष्यों के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। --- अज्ञानी अधिक दुःखी किए जाने पर ही नम्रीभूत होते हैं । - प्रशानवश जीवों से खोटे काम हो ही जाते हैं । ...... ज्ञानहीन व्यक्ति हेय-उपादेय, गुण-अवगुण को नहीं पहचानता । HARAMAYAN A Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ७३.११४ २५७ शास्त्रव्यसनमन्येषां ध्यसमानो हि बाधकम् ।। २५८ स्वाध्यायः परमं तपः । २५६ ज्ञानहीनपरिक्लेशो भाविदुःखस्य कारणम् । २६० सपमा लभते दिवम् । २६१ जना निस्तपसोऽवश्यं प्राप्नुवन्ति फलोदयम्। २६२ बलाना हि समस्ताना स्थितं मूनि तपोबलम्। प. पु. १३.६२ २६३ लोकत्रयेऽपि तन्नास्ति तपसा यन साप्यते । प. पृ. १३.६२ Ant ८५.१७० ५. पु. १०७.३३ २६४ तपः परमभकरम् । २६५ ज्ञानस्य सत्फलं तेषां ये चरन्ति सपोऽनघम् । २६६ द्वावशभ्यस्तपोभ्योऽन्यत्सपो नाधक्षयंकरम् । २६७ तपो हि श्रम उच्यते । २६८ न विनश्यन्ति कर्माणि जनानां तपसा दिना । २६६ शुद्धं हि तपः सुते महत्फलम् । २७० सपो हि फलतीप्सितम् । २७१ शानं हि तपसो मूलं । २७२ नंव वारयितुं शक्यास्तपत्तेजोतिदुर्गमाः । य. च. १८ प. पु. ६.२११ प. पु. ५६.३१ म. पु. ३४.२१४ म, पु. ६.६३ पु. ३६.१४८ ३६.१०३ م ا तेज २७३ कस्य तेजसो वृद्धिः स्वामिभ्यापरमागते ? प. पु. २.२०२. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र का व्यसन अन्य व्यसनों का बाधक है। - स्वाध्याय हो परम तप है। अज्ञानी का तप भावी दुःख का कारण है । तपसे स्वर्ग मिलता है। तप नहीं करने वाले संसार में कर्म का फल अवश्य भोगते हैं। - समस्त बलों में तपोबल श्रेष्ठ है। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो तप से सिद्ध नहीं हो सके। - तप प्रतिदुष्कर होता है। - ज्ञान का सत्फल उन्हीं को मिलता है जो निर्मल तप का प्राचरण करते हैं। करते हैं। - द्वादशतपों के अतिरिक्त अन्य कोई तर पापों का क्षयकारी नहीं है । - तप ही श्रम कहा जाता है। -- तप के बिना मनुष्यों के कर्म नष्ट नहीं होते । --- शुद्ध तप के परिणाम महान् होते हैं। ---- तप से अभीष्ट सिद्धि होती है । --- ज्ञान हो तप का मूल (प्राधार) है । --- तप के तेज के कारण अत्यन्त दर्गम महात्मानों को रोका नहीं जा सकता। ASSE P RE: ..... स्वामी के विपदग्रस्त होने पर किसी के भी तेज की वृद्धि नहीं हो सकती। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्रायस्तेजस्विसंपर्कस्तेजः पुष्णाति तावशम् । २७५ नियन्ते न सहन्ते हि परिभूति सतेजसः । म. पू. ४४.१६७ SEE य. पु. १४ ३५७ स्थाग २७६ महतो हि ननु त्यागो न मतेः खेदकारणम् । २७७ स्याग एव परं तपः । २७६ त्यागो हि परमो धर्मः । म पु. ४२.१२४ Postara बया २७६ दीनान दृष्ट्या हि कस्यात्र या नो जायते लघु? पा. पु. २.१४३ २४० धिग्जीव्यं सुदयातिगम् । पा. पु. १२.३०७ २८१ धर्मः प्राणिक्या। २५२ कि न कुर्वन्ति कृच्चेषु सुहृदो हिलाः । प. पु. ७५.४४३ २८३ धर्मस्य हि क्या मूलम् । ६.२८६ २८४ हितं करोत्यसौ स्वस्य भूतानां यो दयापरः । २८५ क्यामूलो भवेल्लमः। म पु. ५.२१ २८६ न किं वा सवनुग्रहात ? म. पु. ६२ ३७४ २८७ निर्वयानां हि का अपा? पा. पु. १२.२०१ प. पु. १७६ बान २८ जीवितास्मरणं श्रेष्ठ विना दानेन देहिनाम् । २६ दानारिक नाप्यते ? २६. दामतः सातप्राप्तिः । २६१ वानर्भोगस्य सम्पयः । १.१. १३.६७ पपु १२३.१०८ प. पु. १२३.१०७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजस्वी जनों के संसर्ग से लोगों का तेज प्रायः बढ़ता ही है । तेजस्वी पुरुष मर जाते हैं परन्तु पराभव सहन नहीं करते । Matth त्याग महापुरुषों की बुद्धि की विनता का कारण नहीं ही होता । त्याग ही परम तप है । स्थाग हो परम धर्म है । Aud - - LLT इस संसार में दीनों को देखकर तत्काल मन में दया उत्पन्न होती है । दयारहित जीवन को धिक्कार है । जीवों पर दया करना धर्म है । सहृदय व्यक्ति कष्ट में पड़े हुए लोगों का हित करते ही हैं। धर्म का मूल दया हो है । प्राणियों पर दया करने में तत्पर रहने वाला अपना ही हित करता है । - - WWTT JRTY -W दया धर्म का मूल है । सज्जनों के अनुग्रह से सब कुछ होना सम्भव है । निर्दयी को लज्जा नहीं होती । प्राणियों के दया रहित जीवन से मरण श्रेष्ठ है । दान से सब कुछ मिलता है । दान से सुख की प्राप्ति होती है । दान से भोग सम्पत्ति ( भोग सामग्री ) प्राप्त होती है। Im/Ary ३५ www................... Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ लब्धस्य च पुनर्दानं शंसन्ति सुमहाफलम् । २९३ बिना हि प्रतिवानेन महती जायते त्रपा । २६४ त्यागाविह यशोलभः । २६५ ग्रंथों का युक्तायुक्त विचारणा ? २६६ ऐश्वर्यं पाश्रदानेन । २६७ पात्रे दत्तं सुखाय हि । २६८ पात्रवानमहो दानम् । २६६ पावानात्परं दानं न च श्र योनिबन्धनम् । ३०० जायते ज्ञानवानेन विशाल सुखभाजनम् । न ज्ञानात्सन्ति दानानि । ३०१ ३०२ श्रभीतिदानपुण्येन जायते भयवजितः । ३०३ आहारदानपुण्येन आयते भोगनिर्भरः । बाहक ३०४ वाहकानां तु का कृपा ? ३०५ मरुत्सखस्य रौद्रस्य शिखिनः किमु दुष्करम् ? दूरदर्शिता ३०६ विजिगीषुत्वं क्रियते दीर्घदर्शिना । ३०७ ओमाय वोर्घदशित्वं कल्प्यते प्रारणधारिणाम् । देव / पुरुषार्थ / कर्म ३०८ सुखं वा यदि वा दुःखं, यत्ते कः कस्य संसृतौ । ३०६ पापपाकेन दौर्गत्यं सौगत्यं पुष्पपाकतः । ३६ प. पु. ४८.१७२ म. पु डा. पु ४२.१२४ म. . १८. १०६ ११०.५० प. पु. पा.पु. ६०८७ त्र. स. ७.६३ प. पु. ५३. १६४ १५.७ प. पु. ३२.१५६ म.पु ५६.७३ ग. पु. ३२.१५५ प पु. ३२.१५४ पा.पु. १२.१४७ ६. पु. २३१३६ प. पु. ११.६४ प. पु. १६.२३३ हृ. पु. ६२,५१ ह. पु. ४३.१२१ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- प्राप्त वस्तु का पुनः दान महाफल दायक है। ---- प्रतिदान (प्रत्युपकार) के विना बड़ी लज्जा उत्पन्न होती है । - त्याग से ही इस लोक में कीति का लाभ होता है। ---- याचकों को योग्य और अयोग्य का विचार नहीं होता है । - पात्रदान से ऐश्वर्य प्राप्त होता है 1 ----- पात्रदान में सुख होता है । -.. पात्रदान ही बड़ा दान है । --- पात्रदान से अन्य और कोई दान कल्याणकारी नहीं है । -- भानदान से विशाल युखों की उपलब्धि होती है । -- ज्ञानदान मे बढ़कर अन्य दान नहीं है। - अभयदान के पुण्य से यह जीव निर्भय होता है । प्राहारदान के पुण्य से यह जीव सब प्रकार के भोगों को प्राप्त करता है। ...-- जलाने वालों को दया नहीं होती। ___..... वायु से प्रज्वलित भयंकर अग्नि के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । ..... दीर्घदशी (दूरदर्शी) मनुष्य ही महत्त्वाकांक्षी होता है। .... दूरदशिता प्राणियों के कल्याण का कारण है। ..- संसार में कोई किसी को सुख या दुःख नहीं देता । ...पाप के उदय से दुर्गति और पुण्य के उदय से सुगति प्राप्त होली है । ३७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ज्येष्ठो विधिर्गुरुः । ३११ सर्व जीवाः स्वकुलभोगिनः । ३१२ कृत्स्नं स्वकृतभुग् जगत् । ३१३ कर्मण्युपस्थिते को बली ? ३१४ कर्मतो बलवानान्यो वर्तते भववासिनाम् । ३१५ कर्मणा कलिताः सन्तः सन्तः सीदन्ति संसृतौ । ३१६ देवे तु कुटिले तस्य स यत्नः किं करिष्यति । ३१७ दुर्वारा भवितव्यता । ३१८ परमो हि गुरुविधिः । ३१६ कृत्स्नं विधिवशं जगत् । ३२० कर्म विचित्रत्वाम्मासस्य विचेष्टितम् । ३२२ चित्रा हिलो वृद्धिः ३२२ निचितं कर्म नरेणयेन यस्य भुंक्ते स फलं नियोगात् । कर्म । ३२३ न काचिच्छूरता देवे प्राणिनां स्वकृताशिनाम् । ३२४ लभ्यते खलु लग्धव्यं नातः शक्यं पलायितुम् । ३२५ कृतानि कर्माण्यशुभानि पूर्वं सन्तापमुद्रं जनयन्ति पश्चात् । ३२६ कर्मणामुचितं तेयां जायते प्राणिनां फलम् । ३२७ कर्मणामुचितं तेषां सर्व फलमुपाश्नुते । ३२८ शक्नोति न सुरेन्द्रोऽपि विधातु विधिमन्यथा । ३२६ उपर्यधरता यान्ति जीवाः कर्मवशं गताः ३८ ३. पु. ४२.७३ हृ. पु. ६५.४७ ह. पु. ६२.५० पा.पु. १२.२७५ पा.पु. १२.२७१ पा. १२.१५८ ६२.४६ ६१.७७ १७.५४ ह. प्र. है. पु. प. पु. पपु. प. पु. १२२.१६ ६.४१३ प. पु. प. पु. प. पु. प. पु. ४५, ५२ ७२.६७ ७२,८७ ७२.५७ व पु. ८३.१३४ प. पु. १३.६८ प. पु. ३१.७६ प. पु. ३० २४ प. पु. १०३.६६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - AARTI - कर्म सबसे बड़ा गुरु (शिक्षक) है । सब जीव अपने किए का फल भोगते हैं । समस्त संसार अपने किये का फल भोगता है । इस संसार में कर्मोदय से अधिक बलवान कोई नहीं है । संसारी प्राणियों के लिए कर्मले श्रमिक जलवान् अन्य कोई नहीं है । कर्म से घिरने पर सज्जन इस संसार में दुःखी होते हैं । भाग्य के कुटिल होने पर यत्न (उद्योग) कुछ कहीं कर सकता । होनहार दुनिवार है । traft सबसे बड़ा गुरु है । समस्त संसार कर्म के अधीन है । कर्मों की विचित्रता के कारण मन की विविध चेष्टाएं होती हैं । अपने कर्मों के कारण लोगों की चित्तवृत्ति विचित्र होती है । जिस मनुष्य ने निकांचित कर्म बांधा है वह उसका फल नियम सं भोगता है स्वकृत भोगी प्राणियों की देव के श्रागे कोई गुरता नहीं चलती । मिलनेवाली वस्तु मिलती ही है उससे बचा नहीं जा सकता । पूर्व में किए हुए अशुभ कर्म बाद में उग्र सन्ताप उत्पन्न करते हैं । ---- -W wel - -w -- 157 प्राणियों को कर्म अनुसार ही फल मिलता है । सबलोग कर्मों का उचित फल भोगते हैं । होनहार को इन्द्र भी अन्यथा नहीं कर सकता । प्राणी कर्मवश ऊंची और नीची गति को प्राप्त करते रहते हैं । ------------------------------ ३६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ................................. ३३० नाना कर्मस्थितौ स्वस्यां कोऽनुशोचति कोविदः । ३३१ अवश्यं भावुकतीव्रो विरहः कर्मनिर्मितः । ३३२ स्वकृतप्राप्तिवश्याना कि करिष्यन्ति देवताः । ३३३ देवासुरमनुष्येन्द्रः स्वकर्मवशवर्तिनः । ३३४ नेत्रे निमील्य सोदथ्यं कर्मपाकमुपागतम् । ३३५ इदं कर्मविचित्रत्वाद् विचित्रं परमं जगत् । ३३६ यथथा भाव्यं कः करोति तदन्यथा । ३३७ न सुरैरपि कर्माणि शक्यन्ते कर्तुं मन्यथा । ३३८ पित्रादीनापि विघ्नन्ति नराः कर्मयलेरिताः । ३३६ कर्मानुभावतः सर्वे न भवन्ति समक्रियाः । ३४० विचित्रा कर्मणां गतिः । ३४१ कर्मवशाज्जन्तुः संसारे परिवर्तते । ३४२ गतयो भिरर्मानः कर्मभेदेन देहिनाम् । ३४३ नत्यंन्ते कर्मभिर्जन्तवः । ३४४ शुभाशुभ विपाकानां भावितों को निवारकः । ३४५ गतयः कर्मणां कल्य विचित्रा: परिनिचिता: ? ३४६ जगत्प्राग्विहितं सर्वं प्राप्नोत्यत्र न संशयः । ३४७ प्राप्तव्यं जायतेऽवश्यम् । ३४८ स्वकृत सम्प्राप्तिप्रवणाः सर्वदेहिनः । ४० प. पु. ३१.२३७. प. पु. ११३.१० प. पु. १२३.४० प. पु. ११३.११ प. पु. १७.८१ प पु. ४१.१०५ प. पु. ४१.१०२ प. पु.. ४१.७ प. पु. पपु. ४६.६२ प. पु. १०.११० म. पु. ५६.२६२ प. पु. ७५.२४० प. पु. ११.१२३ म. पु. ६८.४३५. १७८६ पु. ५२.६४ प. पु. प. पु. ५. पु. ४६.३१ ५७.४८ 1919.4€ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JA JAW कर्मों को विचित्रता के कारण यह संसार प्रत्यन्त विचित्र है । होनी को कोई नहीं टाल सकता | - देव भी कर्मों को बदल नहीं सकते 1 कर्मबल से प्रेरित होकर मनुष्य पिता आदि को भी मार डालते हैं। JAL MAAAAAAA - JAAAAAA WI कमों की स्थिति नाना प्रकार की है, बुद्धिमान् इसका शोक नहीं करते। कर्माधीन तीव्र वियोग श्रवश्यंभावी है । कर्माधीन लोगों का देव भी कुछ नहीं कर सकते । देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र सब अपने अपने कर्म के अधीन होते हैं । पूर्वोपार्जित कर्मों का फल आँखें बन्द करके ( धैर्यपूर्वक) सहन करना चाहिये । V कर्मोदय के कारण सब एक समान क्रियाशील नहीं होते । कर्मों की गति विचित्र होती है । कर्म के वश से जीव संसार में परिवर्तन ( परिणमन) करता रहता है । कर्मों के भेद से जीवों की गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं । प्राणी कर्मों के द्वारा नवाये जाते हैं । शुभाशुभ कर्म के उदय को कोई रोक नहीं सकता । कर्मो की विचित्र गति को कोई नहीं जान पाता । निस्सन्देह संसार के प्राणी पूर्वभव में जो कुछ करते हैं, इस भव में उसका फल अवश्य पाते हैं । जो वस्तु प्राप्त होती है वह अवश्य ही प्राप्त होती है । सभी प्राणी अपने कर्मो का फल प्राप्त करने में ही प्रवृत्त हैं । ४१ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.२१८ ............ ३४६ जन्तोनिज कम बान्धवः शत्रुरेव वा। पु. ११२.६० ३५० धियः कर्मानुभावेन । पु. १०६.१६८ ३५१ माहात्म्य कर्मणामेतवसंभाव्यमवाप्यते । प. पू. १७६.२११ ३५२ प्रत्यावृत्य कृतं कर्म फलमर्पयति ध्रुवम् । ३५३ कम वैचियोगेक विचित्रं यच्चराचरम् । ___.पू ११५.३६ ३५४ सर्वे शरीरिणः कर्मचशे वृत्तिमुपाश्रिताः । ११०.४५ ३५५ कर्मबन्धस्य चित्रत्वान सर्यो बोधिभाजनः ।। ३५६ बलाना हि समस्तानां बलं कर्मकृतं परम् । ५ ५ १०.२५, ३५७ चित्र विलासितं विधः । ३५८ विचित्रा विधिचोदना । ३२.३५६ ३५६ यस्य यद्भावितरिकमन्यथा । १५६.१२८ ............................................ AAAAAAAAAA 4.4 18 ६२.५०८ ३६. विधिरेब जगद्गुरुः । ३१.३६ ३६१ दुलझाया भवितव्यता । ६२.४४ ३६२ विधिः कि न करोति हि । ३६३ स्वकृतविधिविधानातकस्य किवा न स्यात् । म पु. ७२ २८५ ३६४ प्रलंध्यं केनचिम्चात्र प्रायेण विधिधेष्टितम् । म पु. ६८.३५० म ७१२.२९६ ६५.१४६ ३६५ विविलसितं चित्रमगभ्यं योगिनामपि । ३६६ किन स्थात् सम्मुखे विधौ ? ३६७ देवस्य कुटिला गतिः । ३६८ विचित्रा विधिवतयः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~ प्राणी का अपना कर्म ही उसका बन्धु या शत्रु है । ... बुद्धि कर्म के अनुसार होती है। --- कर्मों के माहात्म्य से असंभव वस्तु प्राप्त हो जाती है । ----- किया हुमा कर्म लौटकर अवश्य फल देता है। स- ARRIOR - कर्मों की विचित्रता के कारण यह चराचर विश्व विचित्र है। - सभी प्राणी कर्मों के वश से (अपनी अपनी) वृत्ति में लगे हुए हैं । - कर्मबंध की विचित्रता होने से सभी ज्ञानी नहीं हो जाते । - सब बलो में कर्मकृत बल ही सबसे अधिक बलवान है । कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। कर्मों को प्रेरणा विचित्र होती है । जिसका जो भवितव्य होता है वह अन्यथा नहीं हो सकता । विधि ही संसार का गुरु है । होनहार टाला नहीं जा सकता। विधाता सब कुछ कर सकता है । अपने किए कर्मों के अनुसार सबको सब कुछ मिल जाता है । - इस संसार में विधाता की चेष्टानों का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। भाग्य को विचित्रता योगियों द्वारा भी अगभ्य है । भाग्य की अनुकूलता से सब कुछ हो सकता है । भाग्य की मति बड़ी कुटिल होती है। भाग्य की लीला विचित्र होती है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. पु. ६८.४८४ ३६६ बिना देवात्कुतः श्रियः ? ३७० नरकेषुपजायन्ले पापभारगुरुकृताः । ३७१ दुरन्तः कर्मणरं पाको स्वाति काटकं फलम् । प. पु. १०५.११७ म. पु. १०.३० म ३७२ योग्ये समुद्यमो युक्तो। पा. पु. १२.२१८ ३७३ अदृश्यमपि संप्राप्यं सत्फलं व्यवसायसः । ३७४ घिग्दवं पौरुषापहम् । पा. पु. १२.३३७ ३७५ भवत्यर्थस्य संसिद्ध्ये केवलं च न पौरुषम् । प. पु. १२.१६६ ३७६ उपायो निष्फल: कस्य न विषादाय धीमतः। म. पु. ___४८.६५ धर्म/अधर्म ३७७ क्रोधलोभसुगारणां त्यागो हि वृष उभ्यते । पा. पु. १८.१६० ३७८ प्रापदाः धर्मतः पुसा सम्पदार्य भवेल्लघु । पा. पु. १७.१६० ३७६ प्रायोप्सित सुशर्माणि जायन्ते धर्मतो ध्र धम् । पा. पु. १७.१५७ ३८० धर्मस्यैव विजृम्भिलेन भविमा कि कि न बोभूयते ? पा. १२.३६७ ३८१ वृषाद वारीयते वह्निर्जलधिः स्थलति ध्रुवम् । पा. पु. १२.१७१ ३०२ धर्मो जीवदया धर्मः सत्यवाक संयमस्थितिः। पा. पु. ३.२४० ३८३ धर्मास्त्रिवर्गनिष्पत्तिस्त्रिषु लोकेषु भाषिता। हैं. पु. १८.३५ ३८४ धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम् । है. पु. १५.३७ ३८५ धर्म एव पर लोके शरणं शरणार्थिनाम् । १८.३६ AM Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव के बिना लक्ष्मी प्राप्त नहीं हो सकती। ..... पाप-भार से बोझिल जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं । बुरे कर्मों का फल कड़वा होता है। Ampe .... योग्य कार्य में उद्यम करना उचित है। ----- उद्यम से अदृश्य उत्तम फल भी प्राप्त हो जाता है । .... पौरुष को नष्ट करनेवाले भाग्य को धिक्कार है। --- केवल पुरुषार्थ ही कार्य सिद्धि का कारण नहीं है । ---- फलहीन प्रयत्न प्रत्येक बुद्धिमान् को दुःखी करता ही है । ..... क्रोध-लोभ और गर्व का त्याग ही धर्म कहा जाता है। ---- धर्म के कारण आपत्तियां भी पुरुषों को शीघ्र ही सम्पत्ति प्राप्त करा देती हैं। धर्म से प्राणियों को निश्चित रूप से इष्ट सुखों की प्राप्ति होती है । .-- धर्म के प्रभाव से मनुष्य को सब कुछ मिल जाता है। ..... धर्म के प्रभाव से अग्नि जलरूप हो जाती है, समुद्र स्थल के समान हो जाता है। जीवों पर दया करना, सत्य बोलना और संयम पालना धर्म है। ----- तीनों लोकों में त्रिवर्ग की प्राप्ति धर्म से ही कही गई है । --- धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। -- शरणार्थी-जनों के लिए लोक में धर्म ही उत्तम शरण है । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ धर्मों जगति सर्वेभ्यः पछार्थेभ्य इहोत्तम्। है. पु. १८.३८ ३८७ धर्मस्यैव विजृम्भितेन भुक्ने मान्यो जनो आयते । पा पु. २.२४६ ३८. धर्मेण लभते सौरख्यम। पा पृ. १८.१८ ३८९ पापक निमन्तेभ्यो धर्मो हस्तावलम्बनम् । २१.२५५ ३९० लोकधर्मप्रियो जनः । म पु. १५.७२ ३६१ धर्मः कल्पन्नुमश्विन्तारत्न धमों निधानकम् । ११.१३० ३९२ अहिंसादिवलेभ्योऽत्रापरो धर्मो न सत्त्वतः । ३६३ कार्यों धर्मो दयामयः। १६ १६३ २६४ भी भूल सुजोयसपना पुलकारम् । १३.३१० ३६५ सारस्त्रिभुवने धर्मः सर्वेन्द्रिय सुखप्रदः । स . ११ ३६६ नव किंचिदसाध्यस्वं धर्मस्य प्रतिपद्यते। प पू. १४.१२५ ३६७ धर्मायन्यश्च लोकेऽस्मिन् सुहम्नास्ति शरीरिणाम् । प. पु४.३६ ३६५ धुर्लभो धर्मो जिनेन्द्रवयनोद्गतः। प. ४६.१०६ ३६ प्राणिनां रक्षणे धर्मः । ४०० धर्मेण रहितलम्यं नहि किचित्सुखायहम् । ६.१.४८ ४०१ धर्मः प्राणिषया स्मृता। २६ ६४ ४०२ सहगामि सुधर्मान्न पाथेयं परजन्मनि । पू. १२.१३२ व. न. ५.६२ ४०३ धर्मात्सर्वार्थससिद्धिः। ४०४ धर्माविष्टार्थसंप्राप्तिः । ४०५ शोचं कार्य न नीरकृत् । ५.१४३ ब. अ. RSS Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www 11 WINL wwwww SALADA TITT धर्म के लिए कोई भी कार्य असाध्य नहीं है । धर्म से बढ़कर देहधारियों का लोक में कोई दूसरा मित्र नहीं है । - महंत के मुखारविन्द से प्रकट धर्म दुर्लभ है । प्राणियों की रक्षा करना धर्म है । धर्मरहित प्रारणी किसी सुखदायी वस्तु को प्राप्त नहीं कर पाते । जीव दया धर्म है । ― 1 yudAsa inian AAAA इस संसार में धर्म सब पदार्थों में उत्तम है। धर्म के माहात्म्य से ही प्राणी जगत् में मान्य होता है । धर्म से सुख मिलता है । पापरूपी कुए में डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्म हाथ का सहारा है । लोगों को लौकिक धर्म प्रिय होता है । धर्म ही कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और सब रत्नों की खान है । अहिंसादि व्रतों से बढ़कर वस्तुतः अन्य कोई धर्म नहीं है । दयामय धर्म ही सेव्य है । -- धर्म शोलिका भूल है और धर्म का है। धर्म ही समस्त इन्द्रियों को सुख देनेवाला तीनों लोकों में सारभूत सत्य है । सुधर्म के अतिरिक्त परजन्म में साथ जाने वाला अन्य कोई पाथेय नहीं है । धर्म से सब प्रथों की सिद्धि होती है । धर्म से इष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है । जल से शुद्धि शोचधर्म नहीं है । ४७ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब. च. ७.५७ ७.१२५ २.३४ __५.१८ १६.२७३ १७.१०६ ४०६ धर्मसमो बन्धुनन्यिो लोकत्रये पवित् । ४०७ धर्मादसे न स्युः सुन्धावभीष्ट संपदः । ४०८ धर्मोऽधर्महरः। ४०६ धर्मानास्त्यपरो जगत्सुशिवकृत् । ४१० धर्मःकल्पतरु स्येयान् । ४११ बिना पनि सम्पदः । ४१२ धर्मफलं हि शमं । ४१३ धर्मो बन्धुश्च मित्रच धर्मोऽयं गुरुरंगिनाम् । ४१४ धर्माविष्टार्थसम्पत्तिः । ४१५ धर्मो हि सरल परम् । ४१६ धर्म एको महाबन्धुः सारः सर्वशरीरिणाम् । ४१७ अहिंसादिगुणाढ्यस्य किमु धर्मस्य दुष्करम् ? ४१८ किन्नु धर्मस्य दुष्करम् । ४१६ धर्मों नाम परो बन्धुः । ४२० दयामूलस्तु यो धो महाकल्याणकारणम् । ४२१ धर्मो रक्षति मर्माणि । ४२२ धर्मो जयति दुर्जयम । ४२३ सुखदुःखमिदं सर्व धर्म एकः सुखावहः । ४२४ धर्मम्बसे सतां वंसः । ४२५ कस्य न धर्मः प्रीतये भवेत् ? ४२६ धर्म एव पर मित्रम् । ३६.२४ #०.१३८ ११.१८ ५५.२१ ७४.५६ ७४.५६ पु ७६.४१८ म. पु. ७५.६८ म. पु. ५६.२७० YE Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — www. MAAN JAAAAAA -- Sewala --- wwwww! - -- तीन लोक में कहीं भी धर्म के समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है । धर्म के बिना पत्रादि प्रभीष्ट सम्पदाएं प्राप्त नहीं होतीं । धर्म अधर्म का हर्ता है । धर्म के अतिरिक्त संसार में अन्य कोई कल्याणकारी नहीं है । धर्मं स्थिर रहनेवाला कल्पवृक्ष है । धर्म के बिना सम्पदा नहीं होती । सुख धर्म का ही फल है । धर्म ही जीवों का बन्धु है, मित्र है और गुरु है । af से यथेष्ट सम्पत्ति मिलती है । धर्म ही परम शरण है । धर्म ही एक सार है, देहवारियों का वही महाबन्धु है । अहिंसादि गुणों से युक्त धर्म के लिए कोई बात कठिन नहीं है । धर्म के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। धर्म ही परम बन्धु है । errer धर्म ही कल्याणकारी है । धर्म मर्मस्थानों की रक्षा करता है । धर्म से दुर्जय शत्रु भी जीता जाता है। संसार में सभी सुख-दुःख रूप है, एक वर्म ही सुख का आधार है । धर्म के नष्ट होने पर सज्जनों का नाश हो जाता है। धर्म सबको प्रिय होता है । धर्म ही परम मित्र है । se Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -REVIE.ME.inbo.m.nitarini.ki म. पु. ७१ ४६२ NewsASESS .dixit.siri........ २.३३ ... .....i.wwwIANRAI". 4 २४.६ ४२ लाहि हिम विहर्गमे नहाय । ४२८ धर्मो ह्यापत्प्रतिक्रिया । ४२६ धर्मो हि निधिरक्षयः। ४३० धर्मो हि मूलं सर्वासा धनद्धिसुखसंपदाम् ४३१ धर्म: कामदुधा धेनुः। ४३२ धर्मश्चिन्तामणिमहान् । ४३३ धर्मस्थो हि जनोऽन्यस्य इण्डप्रस्थापने प्रभुः । ४३४ घा न सहन्ते स्थितिक्षतिम् । ४३५ धर्मात्मना चेष्टा प्रायः श्रेयोऽनुबन्धिमी । ४३६ नाधर्मात्सुखसम्प्राप्तिः । ४३७ मोच तिरधर्मेण । ध्यान ४३८ नात्मध्यानात्परं ध्यान । ४३६ रौद्रातप्रवणा जीवा यान्ति मरकावनिम् । ४४० योगः समाधिः। ४४१ योगो ध्यानं । धैर्य ४४२ जीवन् पश्यति भद्राणि धीरचिरतरावपि । म. पु. १०,११६ १. प. १८ म. पु. ३८.१५५ ३८.१७६ A म. पु. १८.१३६ ४४३ श्लाध्यं धैर्य हि मानिनाम् । निन्दा प्रशंसा ४४४ मुच्यन्ते देहिनः पापैरात्मनिन्दा बिगहणः। ५. पु. २६.६४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- सार में गर्म सिवन्द सा कोई माया काही नहीं है। -- धर्म से ही प्रापत्तियों का प्रतिकार होता है । धर्म ही अविनाशी निधि है। धन, ऋद्धि, सुख और सम्पत्ति इन सबका मूल कारण धर्म ही है । धर्म कामधेनु है । ----- धर्म महान चिन्तामणि है। ..... धर्मात्मा पुरुष ही दूसरों को दण्डित करने में समर्थ है । - धर्मात्मा मर्यादा की हानि सहन नहीं करते । ..... धर्मात्माओं की चेष्टाएं प्रायः कल्याण के लिए ही होती हैं । - अधर्म से सुख नहीं मिलता। ..-- अधर्म से नीच गति मिलती है। KABEEKS.COM .- प्रात्मध्यान स बढ़कर कोई दूसरा ध्यान नहीं है। रौद्र तथा प्रातध्यान से जीव नरक में जाते हैं । योग हो समाधि है। योग ही ध्यान है । Kobsusawarsawalasalemsdradaaraadieos -धीर मनुष्य जीवित रहे तो बहुत समय बाद भी कल्याण को पा लेता है। - भानियों का धैर्य प्रशंसनीय है। - अपनी निन्दा, गर्दा करने से लोग पापों से मुक्त हो जाते हैं। NAMIN Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 012900AM ४४५ मियेवयन् गुणांस्तावलोकेल याति लाघवम् । प. पु. ४४.६६ 010020 n mgea :. : ................................: २५.१२४ .:.:.:42...... ४४६ प्रास्मस्तधान्यनिन्दा च मरणान्न विशिष्यते। म. पु. ७५.५६६ ४४७ न कश्चित्स्वयमात्मानं शंसनाप्नोति गौरषम्। प. पु७३.७४ निमित्त ४४८ लखच्छेथे तणे किंवा परशोरुचिता गतिः।। ६०.६८ ४४६ मिमिसमानतान्येषामसुखस्य सुखस्य वा। ८.२४८ ४५० समर्थे कारणे नूनं सता शीलं व्यवस्थितम् । ४५१ कारणानुगुणं कार्यम् । ५४.१६० ४५२ हेतुसमं फलम्। ७.२०२ ४५३ काललध्यात्र कि मायले दुर्घटम् । निर्भीकता ४५४ प्रायुधः किमभीताताम् ? पपु. १०५.१८३ निवृत्ति ४५५ पापानिवृत्तिरल्पापि संसारोसारकारणम्। प. पु. ४६.५७ ४५६ निवृत्तिरेकापि बदाति परमं फलम् । ६. पु. ४६.५६ निश्चय ४५७ निश्चयात् कि न लभ्यते ? प.पु. ७.३१५ नीति ४.५३ ..! ent.ma.pinterNKAniiiiii.:51 m 530MAILYMETROxym ४५८ कालप्राप्तं मयं सन्तो युनाना यान्ति तुंगताम् । प. पु. ६.२५ ४५६ कार्यसिद्धिरिहाभीष्टा सर्वथा नयशालिभिः प. पु. ५३.८५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AEBARMER ---- लोक में अपने गुणों का बखान करनेवाला मनुष्य भी लधुता को प्राप्त होता है। -- अपनी प्रशंसा तथा दूसरे की निन्दा करना मरण के समान है। ....... कोई भी पुरुष अपनी प्रशंसा करता हुआ गौरव को प्राप्त नहीं होता । m Sita RAMPAHIRE - नख से छेद्य तृरण के लिए परशु का प्रयोग उचित नहीं है। --- दूसरे लोग सुख अथवा दुःख के निमित्त मात्र हैं। -~~ समर्थ कारण मिलने पर ही सज्जनों का स्वभाव व्यवस्थित होता है। -- कारण के अनुसार ही कार्य होता है। . कारण के समान ही उसका परिणाम होता है । ..... काल-लब्धि से यहां कोई भी दुर्घट घटना घटित हो सकती है। ।। ....... निर्भीक लोगों को प्रायुधों से कोई प्रयोजन नहीं है । HearinidandiETAR ---- पाप से थोड़ी सी निवृत्ति भी संसार से पार होने का कारण है। ... निवृत्ति अकेली भी महाफलदायी होती है । निश्चय से सब कुछ मिलता है। लाला - समयानुकूल नीति का प्रयोग करनेवाले उन्नति को प्राप्त होते हैं । ... संसार में नीतिज्ञ पुरुष सभी प्रकार से कार्यसिद्धि चाहते हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AasanahuwwwAHARow न्याय/अन्याय ४६० न्यायानुवतिनां युक्तं न हि स्नेहानुवर्तनम् । म. पु. ६७.१००. ४६१ अन्यायो हि पराभूतिनं तस्यागो महीयसः। म. पु. ४४.२५२ः ४६२ न्यायो दयावृत्तित्वम् अभ्यायः प्राणिमारणम् । म. पु. ३६.१४१. पराक्रम ४६३ न कदाचिद्विषादोऽस्ति विकान्तस्य बुषस्य च । प. पु. ३०.७३. ४६४ वीर्यमक्षसकायानां शूराणां न हि वर्धते । प. पु. ८.२३३. ४६५ नरेश्वरा जिलशौर्यचेष्टा न भीतिभाजा प्रहरम्ति ४६.४० १०३.२२. ४६६ न विषादोऽस्ति शूराणामापरसु महतोष्यपि । ४६७ रणे पृष्ठं न दीयते। ४६८ कृत्ये कृन्छेऽपि सत्वाख्या न स्यजन्ति समुथमम् । म. ४६९ बीराणां प्रात्रुभंगेन कृतस्त्वं न धनादिना । ५६.१६५. .....norman a ntat Pri ४७० वरं प्राणपरित्यागो न तु प्रतिनरानतिः। ५. पु. १२.१७७ ४७१ वीरभोग्या वसुन्धरा। १०१.३३ ४७२ कि बीर्येण न रक्यन्ते प्राणिनो येन भोगलाः? ५. पु. १७.३७ ४७३ प्रस्थितः पौरुषं बिभ्रत्कथं भूयो निवर्तते ? परिग्रह /भोग ४७४ कथं घेतोविशुद्धिः स्यात् परिग्रहवां सताम् ? प. पु. २.१८१ ५४ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S - न्याय के अनुसार चलनेवाले पुरुषों को स्नेह का अनुवर्तन करना उचित नहीं है। - अन्याय करना ही महापुरुषों का पराभव है, अन्याय का त्याग नहीं । दया से कोमल परिणाम होना न्याय है और प्राणियों का मारना अन्याय है। SS HAMPAASAASAASAASASHIS ES WWAAAAAAASSSSSSSSSSSSSSSS meena - शूरवीर और बुद्धिमान् को विषाद कभी नहीं होता । .... जिनके शरीर में धाव नहीं लगते ऐसे शूरवीरों का पराक्रम बढ़ता ---- बलिष्ठ और शूरवीर शासक कभी भी भयभीत पर प्रहार नहीं करते। More ...- शूरवीर बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी विषाद नहीं करते । - युद्ध में पीठ नहीं दिखाई जाती। ... बलशाली कठिन कार्य में भी उद्यम नहीं छोड़ते । .. वीर मनुष्यों का कृतकृत्यपना शत्रुओं के पराजय से ही होता है, नादि की प्राप्ति से नहीं। - प्राणों का परित्याग अच्छा किन्तु शत्रु के आगे झकना अच्छा नहीं। -- पृथ्वी वीर भोग्या है। -- 'उस पराक्रम से कोई लाभ नहीं जिससे कि भयभीत प्राणियों की - रक्षा नहीं होती। ... पराक्रमधारी पुरुष प्रस्थान करने के पश्चात् फिर वापस नहीं लौटते । ..... परिग्रही मनुष्यों के चित्त की शुद्धि नहीं हो सकसी। SEKXSE Reme 2000000MBARMER ५ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४७५ भोगसंवर्तनं येन कर्मणा नावमुच्यते । प. पु. १०६.१९६ ४७६ भोगाः क्षणविनश्वराः । प. पु. ६.७६ ४७७ नागभोगोपमा भोगा भीमा मरकपालिनः । प. पु. ४७८ काचा येनेषु प्र. पु. ४७६ स्वप्नभोगोएमा भोगाः । ४८० भोगेष्वत्युत्सुकः प्रायो न च वेद हिसा हितम् । ४८१ भोगिavaचला भोगाः । ४८२ किपाकफलवत् भोगा विपाकविरसा भृशम् । ४८३ स्थागो भोगाय धर्मस्य काचावेध महामलेः । ४८४ भोगिनो भोगवद भोगाः । ४८४ प्रापातमात्ररम्याश्च भोगा पर्यन्तापिनः । ४८६ राज्यं रजोनिभं प्राश्यं । ४८७ विषयेर्भुज्यमानहि न तृप्तिं याति देहिनः । ४८८ भुज्यमानाः सुखायम्ले विषया दुःखायिनः । ree सुखरयागावि निर्वाणः । ४६० सुखं वैषयिक क I ४९१ विद्युल्लोला विभूतयः । ४६२ भोगिभोगसमा भोगास्तायोपचयकारिणः । ४६३ दुःखमेतहि मूढानां सुखत्वेनावभासते । ४६४ प्रापातरमणीयानि सुखानि विषयावयः । ५६ १३.८० प. पु. २१.११५ म. पु. ३६.८५. वा. पु. २३.२५. ७६.१३ म.पु. ५६.२६६ प. पू म.पु. ४६.१६८ म. प्र. पा.पू. पा.पु. हैं. पु. ५. २३४ च. ख. भ.प. प. पु. ८. ५४ १०.७. ६.४७ ६. ४५ ५. १४३ ५. १०१ म.पु. ४७.२३६ प. पु. २९.७५ प. पु. २९.७६ २६.७७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww JUL -FT LILIS — AAAAAA KAA wwwwww - भोगों में प्रासक्ति के कारण मनुष्य कर्म से नहीं छूटता । भोग क्षणभंगुर हैं। भोग नाग के कण के समान भयंकर एवं नरक में गिरानेवाले हैं । star देनेवाले भोगों से किसी लाभ की आशा नहीं । भोग स्वप्नभोग के समान हैं । मोगों के प्रति उत्सुक मनुष्य प्रायः हिताहित नहीं जानते । भोग सर्प के शरीर के समान चञ्चल है । भोग किपाकफल के समान परिपाककाल में अत्यन्त विरस होते हैं । भोग के लिए धर्म का त्याग काच के लिए महामणि के स्याम के समान है । भोग सर्पण के समान हैं । भोग भोगकाल में सुखकर प्रतीत होते हैं परन्तु अन्त में सन्तापकारी हैं । समृद्ध राज्य भी धूल के समान है । भोगे जाने पर भी विषयों से प्राणियों को तृप्ति नहीं होती । दुःखदायी विषय भोगकाल में मनुष्यों को सुखदायी लगते हैं । सांसारिक सुखों के त्याग से ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। विषय सुख कड़वे होते हैं । विभूतियां बिजली के समान चंचल होती हैं । भोग सर्प के फण के समान ताप को ही बढ़ानेवाले होते हैं । प्राणियों को दुःख भी सुखरूप जान पड़ता है । विषयादि सुख भोगकाल में ही रमणीय होते हैं । भूज Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४६५ विषया विषवारुणाः । ४६६ नीयन्ते विषयः प्रायः सत्त्ववन्तोऽपि वश्यताम् । ४६७ रिपत्र उग्रतारा विषयाः । ४६८ विषया विषसंपृक्ता: 1 ४६६ दुष्करो विषयत्यागः कौमारे महतामपि । विषयासक्तश्च मत्स्यो बंध समश्नुते । ५०१ प्रसिधाराम स्यादसमं विषयमं सुखम् । ५०२ शर्कराप्यलमास्वादान्नावदातिर सान्तरम् । ५०३ पहा इव गृहाः पुंसां विकाराकर कारिणः । ५०४ बिगिनां नृपतेर्लक्ष्मीं कुलदासमचेष्टिताम् । ५०५ विषवल्लीच दृष्टा पूर्व पचतिः । ५०६ राज्यं रजोनिभं भं सर्वपापविम्वमम् । ५०७ हिरण्यदानतः कोऽत्र न तुष्यति महीतले ? ५०८ स्वप्नप्रतिमैश्वर्यम् । ५०६ इन्दिरा सुम्बरी नेव मन्दिरं दुष्टकर्मणः । ५१० रमार्थ मारणं पुंसां सारमा विरमा मता । ५११ श्रियो माया । ५०० ५१२ स्वयं गृहागतां लक्ष्मों हत्यास्थावेन को विधीः ? ५१३ लक्ष्मीस्तडिद्विलोला । ५१४ लक्ष्मीरतिचला । ४ म.पु. ११.१७४ ८.७३ प.पु. प. पु. म. पु. म.पु. ८. ५३१ ब. ख. ४. १४६ प. पु. १०५.२५७ ६६.४४ प. पु. १०५.१५० ह. पु. २२.१६ पा.पु. २३.११ प. पु. ७६.१२ प. पु. प. पु. प्र. पु. ६. २०० ५१०० पा.पु. १४.१५८ प. पु. ३६.११४ पा.पु. १२.१४० पा.पु. १२.१२२ म. पु. म. पु. ६८.२३५ ५८.६ ८.५३ ४. १५० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -unnitionnanoonalodaaidsidilinks ESH - विषय विष के समान दुःखदायी होते हैं । .... विषय सात्त्विक लोगों को भी प्राय: अपने वश में कर लेते हैं । -~~ विषय प्रबलतम शत्रु होते हैं। --- विषय बिषपूर्ण होते हैं। --- कुमारावस्था में विषयों का त्याग करना महापुरुषों के लिए भी कठिन है। --- विषयरूपो मांस में प्रासक्त्त मत्स्य (मछली) बंध को प्राप्त होता है (विषयासक्त जीव बंध को प्राप्त होता है।) --- विषयजन्य सुख खड्गधारा पर लगे हुए मधु के स्वाद के समान है । :- शक्कर अधिक शाम करमा दूसरा स्वाद नहीं देती। -- घर (शनि मादि) ग्रहों के समान विकार उत्पन्न करनेवाले हैं । ...-- कुलटा के समान चेष्टाकारिणी इस राजलक्ष्मी को धिक्कार है । -- पूर्व पुरुषों ने राजलक्ष्मी को विषबेल के समान देखा है । -- राज्य निश्चय से धूलि के समान है और समस्त पापों का कारण है। .... सोने का दान पाकर सब सन्तुष्ट होते हैं। ...- ऐश्वर्य स्वप्न के समान होता है । - लक्ष्मी सुन्दर नहीं है, वह तो दुष्टकार्यों का घर है । ---- जिस लक्ष्मी के लिए मनुष्यों की हत्या की जाती है वह स्थायी नहीं है। - लक्ष्मी मायारूप है। --- स्वयं घर आयी लक्ष्मी को कोई भी बुद्धिमान् पैर से नहीं ठुकराता । --- लक्ष्मी बिजली के समान बञ्चल है। -- लक्ष्मी अत्यन्त चञ्चल है । A aavaanwui wwdaaiwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww w .r-44000000-80000-00 00000000000000000000000alese Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ न हि भूतीनामेकस्मिन् सर्वदा रतिः । ५१६ कपि भंगुरा लक्ष्मीः । ५१७ नीतिविक्रमयोर्लक्ष्मीः । ५१८ धमं दुःखानुबन्धनम् । ५१६ प्रर्थेन विप्रहीनस्य न मित्रं न सहोदरः । ५२० सदा सनिधनं धनम् । ५२१ न पश्यत्स्यायनः पार्थ वचनासंचितं महत् । ४२२ स्थापतेयमपिस्वापसदृशं सारयजितम् । ५२३ धनं किं न करोति ? ५२४ प्रर्थात् समीहितं सुखम् । ५२५ वेश्येव श्री निन्या । ५२६ संभोगः संविभागश्च फलमर्थार्जने द्वयम् । ५२७ स्वप्नदेशीया विनश्वर्यो धनर्क्षयः । ५२५ विषदन्ताश्च सम्पदः । ५२६ संपदो विषयोऽङ्गिनाम् । ५३० सम्पो जलकल्लोल विलोलाः सर्वमत्र वम् । परिणाम / भाव १३५ बुई टिका मनान्मरणं वरम् । ५३२ सुलेश्यानां प्रायेण हि गुणाः प्रियाः । ५३३ चित्रा हि परिणामवशात् गतिः । ६ प. पु. प. पु. म. पु. ध. च. व. च. म.पु. ए. पु. ३५.१६२ म.पु. प. पु. ६७.२३८ म.पु. ६.४८६ म. पु. ३२. ६२ पा.पु. १२.१२१ पा.पु. ४.२०२ ६२.४४ म.पु. ४. १४९ ८.७७ ५. १४३ ५. १०१ ३७. १८ ८.६८ म.पु. प. पु. ६३.२२८ ४. १५० ८.७७ प.पु १७६.१५१ म.पु. ७४.२८६ ६. पु. १८.१२४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRAAAAAA - MAA — - ― wwww! - - MAAAAAA T L — ― wwwwwww सम्पदाओं की सदा एक ही व्यक्ति में रति नहीं रहती । लक्ष्मी बार की भौंह के समान चल है। लक्ष्मी नीति और पराक्रम से उपलब्ध होती है । धन दुःख को बढ़ानेवाला है । धनहीन मनुष्य का न कोई मित्र होता है और न कोई भाई । धन सदा ही विनाशशील है । नाभिलाषी दूसरों को ठगने से उत्पन्न महान् पाप की परवाह नहीं करते । धन भी स्वप्न के समान सारहीन है । धन सब कुछ कर सकता है । अर्थ से मनोवात सुख मिलता है। लक्ष्मी वेश्या के समान ज्ञानियों द्वारा निन्द्य है । स्वयं उपयोग करना और दूसरों को दान देना अर्थार्जन के ये दो ही मुख्य फल हैं । धन-धान्यादि विभूतियों स्वप्न में प्राप्त विभूतियों के सदृश नाशवान हैं सम्पत्तियों का परिणाम विपत्ति होता है। सम्पदाएं प्राणियों के लिए विपत्तिरूप हैं। सम्पदाएं जल की लहरों के समान क्षणभंगुर और अस्थिर हैं । दुर्भावना रखने से मर जाना अच्छा है । शुभश्rarfरयों को प्रायः गुण ही प्रिय होते हैं । परिणामों (भावों) के अनुसार चित्र-विचित्र गतियां होती हैं । ६१ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ मोक्षसाधनत सारं मानुष्यं दुर्लभ च तत् । من ७५.२०६ هي ५३५ भवावर्त अन्तुः कि कि न जायते ? म. पु. ४६.३० ५३६ मानुष्यकमिदं कृच्छात् प्राप्यते प्राणधारिणा।। ४५.१०६ ५३७ लन्य तुःखेन मानुष्यम् । पु. ३,४७ ५३८ भवाना किल सर्वेषां बुलंभो मानुषो भवः ।। पु. ११०,४६ पुद्गल ५३९ विचित्रा पुद्गलस्थितिः । म. पु. ३३.६२ पुण्य/पाप ५४० प्रायः प्राक् कृतपुण्येन सनि विसन्ति देवताः ।। ५४१ शरूयो देवतानां च निःसाराः पुण्यवजने । ७०.४२६ ५४२ इष्टो मुहूतमात्रेण लभ्यते पुण्यभागिभिः । ३६.७६ ५४३ पुण्यसंपूर्णदेहाना सौभाग्य केन कथ्यते ? पु. ११.३७१ ५४४ पुण्यानुकलितानां हि नैरन्तय प्रजायते । पु. ६०.६० ५४५ पुण्यवता प्रायः प्रयोगामधान्तला भवेत् । पा. पु. १५.१०४ ५४६ सर्वत्र विजयः पुग्यवता । ७५.६५४ ५४७ में बिनाभ्युदयः पुण्याद् अस्ति कश्चन पुष्कलः । १५.२२१ ५४८ सति पुण्ये न कः सखा । म. पु. ७१.२१ ५४६ सिद्धिः पुण्यषिमा कुतः ? म. पु. ७.३२२ ५५० पुण्ये प्रसेदुषि नृणां किमिनास्थलध्यम् ? म. पु. २८.२१३ من wwwwwwwww w www v..........tiw من مين --..."WHA Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ d adisdiddedesminainterwaiiari साधन मन्ष्य पयायही सार है दुर्लभ है। - संसार चक्र में जीव सब कुछ बनता है। - प्राणी बड़ी कठिनाई से मनुष्य-भव पाता है। - मनुष्य पर्याय कठिनता से प्राप्त होती है । - सभी भवों में मनुष्य-भव दुर्लभ है। ... पुद्गल का स्वभाव विचित्र होता है। ---- पूर्वकृत पुण्य के प्रभाव से देवता भी समीप आ जाते हैं । -- देवों की शक्तियां भी पुण्यात्माओं के सामने निःसार हो जाती हैं । – पुण्यात्मा जीवों को इष्ट वस्तु मुहूर्तमात्र में प्राप्त हो जाती हैं । पुण्यात्मा जीवों के सौभाग्य के विषय में कोई नहीं कह सकता । -- पुण्यात्मा जीवों के किसी कार्य में अन्तर नहीं पड़ता। ----- पुण्यवानों के संयोग से प्रायः शान्ति मिलती है। .-- पुण्यात्मात्रों की सर्वत्र विजय होती है । - पुण्य के बिना किसी भी बड़े प्रभ्युदय की प्राप्ति नहीं होती। --- पुण्य के रहते सब मित्र हो जाते हैं । ... पुण्य के बिना सिद्धि संभव नहीं । ---- पुण्य के प्रसाद से मनुष्यों को सब कुछ प्राप्त हो सकता है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و من و هي .................................... ५५१ पुण्ये बलीयसि किमस्ति यजम्यम् । ४ १५:२२ ५५२ पुण्यात् परं न खलु सापनमिष्टसिद्ध्य । म. पु. २८.२१५ ५५३ वरिद्रति जने धनायि पुण्यम् । म. पु. २८.२१८ ५५४ पुण्यं सुखाणिनि जने सुखधायि रस्ने । म. पु. २८.२१८ ५५५ पुण्यालपत्रविश्लेषे तछाया मवावतिष्ठताम् ? म. पु. ६.४ ५५६ पुण्यात्तीकर श्रियं । पु. ३०.१२६ ५५७ पुण्यात् सुखं न सुखमस्ति दिनेह पुण्यात् । म. पु. १६.२७१ ५५८ अयः पुण्यादृते कुतः ? ५५६ पुण्यैः किं नु न लभ्यते ? म. पु. ६.१६५ ५६० पुण्यं कारणं प्राहुः बधाः स्वर्गापवर्गयोः । म. पु. ६.२१ ५६१ पुण्यः किम्नु बुरासवम् । म. पू. ६.१८७ ५६२ किं न स्मात् सुकृतोदयात् ? ५६.६७ ५६३ पुण्यं पुण्यानुबन्धि पत्। ५४.६६ ५६४ देवाः खलु सहायत्वं यान्ति पुष्पचता मृणाम् ।। ७४.४५८ ५६५ प्राक्कृतपुण्यानां स्वयं सन्ति महावयः। ७०.३०४ ५६६ न साधयन्ति केऽभीष्टं पुसा शुभदिपाकतः ? म. पु. ४३.२१३ ५६७ सर्वत्र पूर्वपुण्यानां विजयो नव दुर्लभः । म. पु. ७२.१७५ ५६८ सम्परसम्पन्नपुण्यानाम् अनुबघ्नाति सम्परम् । म. पु. ४५.१३७ ५६६ धुविधाः सधनाः पुण्यात् पुण्यात्स्वर्गश्च लम्पते । म. पु. ७५.१५७ ५७० पुण्यामि फलन्ति विपुलं फलम् । म. पु. ७५.६३ ५७१ पुण्यात्स्वर्ग सुखं परम् । म. पु. ७४.३६३ هن تي مي ................... مرا .... .. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! । । -- पुण्य के बलवान होने पर जगत् में कुछ भी अजेय नहीं होता । ----- इष्टसिद्धि के लिए पुण्य से बढ़कर और कोई अन्य साधन नहीं है । -~~-पुण्य हो बरिद्र मनुष्यों को धन दकाला है। - सुखापियों के लिए पुण्य सुखदासी रत्न है। पुण्यरूपी छत्र का प्रभाव होने पर उसकी छाया भी नहीं रह सकसी पुण्य से ही तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। - सुख पुण्य से ही प्राप्त होता है, दिना पुण्य के सुख नहीं मिलता। --- पुण्य के बिना जय नहीं होती। ----- पुण्य से सब कुछ प्राप्त होता है। -- बुद्धिमानों ने पुण्य को स्वर्ग और मोक्ष का कारण कहा है । - पुण्य से कुछ भी दुर्लभ नहीं है । - पुण्योदय से सब कुछ हो सकता है । - पुण्य वही है जो पुण्य का बंध करे। -~~- देवता भी पुण्यात्माओं की ही सहायता करते हैं । -- पूर्व में पुण्य करनेवालों को बड़ी-बड़ी ऋद्धियां स्वयं मिल जाती है । – पुण्योदय से पुरुषों के सब कार्य सिद्ध होते हैं । -... पूर्वोपार्जित पुण्य से सर्वत्र विजय पाना कठिन नहीं है । - पुण्यशाली पुरुषों की सम्पत्ति सम्पत्ति को बढ़ाती है। ----- पुण्य से निर्धन धनी हो जाते हैं, पुण्य से स्वर्ग भी प्राप्त हो जाता है । ---- पुण्य से विपुल फलों की प्राप्ति होती है । --- पुण्य से स्वर्ग में परमसुख की प्राप्ति होती है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म ५७२ जायन्ते पुम्पयुक्तान प्राणिनामिष्टसंगमाः। प. पु. ३६.८१ ५७३ प्राप्नुवन्ति परं दुःखं सुकृतान्ते सुरा अपि । प. पु. १७.५३ ५७४ अन्तोः स्वपुण्यहीनस्य रक्षा नैवोपजायते । ५६.२६ ५७५ पुण्योदयात्युसा बुर्लभं कि न जायते ? ५७६ पुष्योदयेन जायन्ते पुण्यभाजा सुखाकराः। व. चं. १७.४१ ५७७ सुकृतस्य फसेन अन्तुरुचः पदमाप्नोति । प. पु. १२३.१७६ ५७८ एको विजयते शत्रु पुष्येन परिपालिसः। प.पु. ७४.१८ ५७६ कोणे स्वात्मीयपुण्येषु याति शकोऽपि विध्युतिम् । प. पू ७२.८६ ५८० सुकृतासक्तिरेकैव श्लाघ्या मुक्तिसुखावहा । प. पु. ८५.११२ تي تي ५८१ पुग्येन स्वेन रक्ष्यते। प. पु. ६६.७ ५८२ पुण्योपाजितसत्कर्मप्रभावात् परमोदयम् । १२.२४ ५८३ पुण्येन लभ्यले सौल्यमपुयेण्न च छुःखिता। ५५४ सुकृतं विनयः अतं च शीलं सवयं वापसममत्सर शमश्च । ५८५ पुण्यारसर्व सुखाय वै । पा.पु. १६.२४२ ५८६ पुण्यानामेव सामग्रमपायपरिरमणे । ४३.२२६ ५८७ पुण्यस्य किमु दुष्करम् । ५८८ पुग्यतः किं दुरापं स्यात् ? पु. १.१२० ५८६ तत्किं न लभते पुण्यात् यस्लोके हि दुरासयम् ? पा. पु. ५.१८४ تر بنا ५६० पुण्याविद्या याति तं जने । पा, पृ. १०.२८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यशालियों को ही इष्ट- समागम प्राप्त होते हैं । पुण्य का अन्त होने पर देव भी परम दुःख प्राप्त करते हैं । पुण्यरहित प्राणी की रक्षा नहीं होती । पुण्योदय से मनुष्यों को सभी दुर्लभ वस्तुएं मिल जाती है । -T - पुण्योदय से पुण्यात्माओं को सुख के भण्डार मिलते हैं । VWM mw IMARAL www — ―m --- wwwwww MALA पुण्य के फल से यह जीव उच्चपद को प्राप्त करता है । पुण्य के प्रभाव से पुरुष अकेला ही शत्रु को जीत लेता है । पुण्यक्षीण होने पर इन्द्र भी च्युत हो जाता है । मनुष्य की पुण्यासक्ति ही एकमात्र प्रशंसनीय एवं मुक्तिसुख की दायिनी है। अपना पुण्य ही रक्षा करता है। पुण्योपार्जित सत्कर्म के प्रभाव से परमोदय होता है । पुण्य से सुख और पाप से दु:ख प्राप्त होता है । विनय, श्रुत, शील, दयासहित वचन, श्रमात्सर्य और क्षमा ये सब सुकृत (पुण्य) हैं । पुण्य से सब प्रकार के सुख मिलते हैं । विपत्ति में पुण्य ही रक्षा करने में समर्थ है । पुण्य के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। पुष्य से कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है । इस लोक में ऐसी कोई दुर्लभ वस्तु नहीं है जो पुण्य से प्राप्त नहीं होती । पश्य से लोगों को विद्या शीघ्र प्राप्त होती है । * Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..........skWYNAME ११.३० - ५.७३ ५६१ पुण्याजयो भवेत् ।। ___ पा. पु. ३.१६८ ५९२ गरोयः सुकृतं यस्य कि तस्य स्थाधुरासरम् । ५६३ पुण्यात् कि दुर्लभं भुवि ? ५६४ प्रक्षीणपुग्याना विनश्यति विधारणम् । ६५.१६४ ५६५ एकमेव हि कर्तव्यं सुकृतं सुखकारणम् । ३६.१४३ ५६६ रत्नाकरेऽपि सबस्न नाप्नोत्यकृतपुण्मकः । ७६.२१६ ५६७ गते पुण्ये कस्य कि कोऽत्र नाहरत् । ५६८ अशुभात् कि न जायते। ब. न. २.२१ ५६९ विचित्रो बुरितोपमः। ६०. अत्रामुत्र व पापस्य परिपाको दुरुत्तरः । म. पु. ४६.२८३ ६.१ कारणं पापिनः कुतः ? ह. पु. ६१.७५ ६०२ प्रकार्य न पापिनाम् । म. पु. ७५.५३७ ६०३ पापिनो हि स्वयापेन प्राप्नुवन्ति पराभवम् । म.पु. ७२.१२६ ६०४ विचार विकलाः पापाः कोपिताः किं न कुर्वते । म. पु. ७०.३६८ ६०५ पापारिक न जायते ? पा. पु. ३.२४६ ६०६ पापात कि जायले शुभम् ? पा. पु. ४,२२७ ६०७ पातकात पतनं ध्रुषम् । १७.१५१ ६०८ स्वरूपमायजितं पापं बलस्पुपचयं परम् । ६.६ कुपुष्यभाजा तु विरं सुगमता विनाशकाले परता भजन्ते । कुकृतं प्रथमं सुवीधरोषः परपीड़ाभिरलिविश्व सक्षम् । प. पु. १२३.१७७ प. पु. २६.१२६ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- 'पुण्य से जय होती है। --- जिसका पुण्य विशाल हो उसका सब वस्तुए सुलभ होती हैं । संसार में पुण्य से सब कुछ मिलता है। .... पुण्य क्षीण हो जाने पर विचारशक्ति नष्ट हो जाती है । - सुख का एकमात्र कारण पुण्य है, वही करना चाहिये । - पुण्यहीन मनुष्य को समुद्र में भी उत्तम रत्न प्राप्त नहीं होता। - पुण्य क्षय होने पर हर कोई उसको किसी भी प्रस्तु को हर लेता है। ..... अशुभकर्म के उदय से कुछ भी हो सकता है। -- पाप का उदय विचित्र होता है । ..... पाप का फल इस लोक तथा परलोक दोनों में ही बुरा होता है। --- पापी के दया नहीं होती। ... 'पापियों के लिए कोई भी कार्य प्रकरणीय नहीं है । - पापी लोग अपने पाप से पराभव पाते हैं । ----- विचाररहित पापी कुपित किये जाने पर सब कुछ कर डालते हैं । .-- पाप के उदय होने पर सब कुछ हो सकता है । ... पाप से शुभ की उत्पत्ति नहीं हो सकती। ..-- पाप से पतन निश्चित है। - संचित किया हुअा थोड़ा सा पाप भी परमवृद्धि को प्राप्त होता है । ... पुण्यहीन मनुष्यों के विनाश के समय अपने समर्थ साथी भी पराये हो जाते हैं 1 ... अत्यधिक क्रोध, परपीड़ा में प्रीति और रूखे वचन कुकृत/पाप हैं। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६११ यनाम सश्यते लोके बुःखं सस्पायसंभवम् । प. पु. १७.१८७ ६१२ पापकियारम्भे सुलभाः सामायिकाः । ___म. पु. ४४.२१ ६१३ महापापकृतो पापमस्मिन्नेव फलिष्यति ।.. ... म. पू. ६८.२६७ ६१४ कुतोऽप्यपुण्यतः क्षिप्रं चेतनो नरकं व्रजेत् । प. पु. ३६.१७३ ६१५ संसापयन्ति कार्याणि सोपायं पापभीरवः । म.पु. ७५.५०७ प्रत्यक्ष ६१६ पाचशेऽर्पणीयः कि हस्तः ककुभलोकने ? श. पु. ३.५७ ६१७ स दर्पणोऽरिणीयः कि करकंकणवर्णने । प्रभाव ६१८ कालस्योरक्षेपको मुग्धः दीर्घसूत्री विनश्यति। ह. पु. ५२.७७ ६१६. स्वयमेवात्मनात्मानं हिमस्यामा प्रमाववान् । १.५ १८.१२६ গি ६२. प्रेयसां विप्रयोगो हि मनस्तापाय कल्प्यते । म. पु. ६.१५८ ६२१ प्रोत्यैव शोभना सिद्धियु बसस्तु जमक्षयः । १. पु. ६६.२४ ६२२ स्वर्गायते महारग्यमपि प्रियसमागमे । प. पु. ५०.८२ बंध/मुक्ति ६२३ मंष संसारकारणम् । ६२४ बन्धात् खेवो हि जायते । ६२५ बन्यो न हि सता मुझे। ६२६ कुटुम्ब बंधकारणम् । म. पु. ५८.३४ पा. पु. १७.१४१ म. पु. १६.६७ __ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... संसार में जो भी दुःख दिखाई देता है वह सब पाप का फल है। - पाप कर्मों के प्रारम्म में सहायक सुलभ हो जाते हैं । - महापापियों का पाप इसी लोक में फल दे देता है। .-- किसी भी पाप के उदय से यह प्राणी शीघ्र ही नरम में चला जाता है । - पापभीरु योग्य उपाय से ही कार्यसिद्धि करते हैं । ----- हाथ कंगन को पारसी क्या ? --- हाथ कंगन को पारसी (दर्पण) की आवश्यकता नहीं होती। - समय की उपेक्षा करनेवाला दीर्घसूत्री मनुष्य नष्ट होता है। ---- प्रमादी पुरुष अपनी प्रास्मा का स्वयं ही हनन करता है। ...... प्रियजनों का विरह मन को संताप देनेवाला होता है । ..कार्य की सिद्धि प्रीति में ही होती है. युद्ध से तो केवल नरसंहार ही होता है। प्रियजन का समागम रहते हुए महावन भी स्वर्ग के समान जान पड़ता है। -... बंध संसार का कारण है। बंध से खेद होता ही है। - बंध सज्जनों के लिए प्रानन्दकारी नहीं होता। ... कुटुम्ब बंध का कारण है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ५.५ ६२७ बिना संगपरित्यागाज्मारवाशा म प्रजापति। ६२८ मोहामविषयेभ्योऽन्यत्राहिलं वायुभाकरम् । ५.८ ६२६ कात्रवेण जीवानां संपातोऽत्र भवार्णवे। ६३० बन्धयो बन्धनोपमाः। ६३१ निर्वाणान्नापरं किंचिच्छाश्वतं शर्म दृश्यते । ६३२ सपो रस्मत्रयेभ्योऽन्यद्धितं जातु म विद्यते।। ६३३ संवरेण सता नूनं मुक्तिश्री यतेतराम् । ६३४ रस्मश्यात्परो नान्यो मुक्तिमार्गो हि विद्यते । ६३५ संबरेण विना मुक्तिः कुतो मुक्तबिना सुखम् ।। व. म १५.६ ६३६ प्राप्यते पैन निर्माण किमन्यतस्य पुष्करम्। प. पु. ६५.५५ भक्ति ६३७ इष्टं करोति भक्तिः सुदृढा सर्वभावगोचरनिरता। ५. पु. १२३.१६४ ६३६ जिनेन्द्रवदनासल्यं करुयानं नैव विद्यते। प. पु. १.२०२ ६३६ प्रारम्भाः सिशिमायान्ति पूज्यपूजापुरस्सराः। म. पु. ४३ २४३ ६४. सत्कीर्तनसुधास्वादसस्ते हि रसनं स्मृतम् । प. पु. १.३० ६४१ प्रयाति दुरितं दूर महापुरुषकीर्तनात् ।। प. पु. १.२४ ६४२ श्रेष्ठावोष्ठो च सावेक यो सुकीर्तनतिनौ । ६४३ भक्तिः श्रेयोऽनुबन्धिनी। प. पु. ७.२७६ भोजन ६४४ पुण्यवर्धनमारोग्यं विवाभुक्तं प्रशस्यते । प. पू. ५३.१४१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — WHE "VIW www - परित्याग के बिना कभी भी प्राशा / तृष्णा नष्ट नहीं होती । मोहू और इन्द्रिय-विषयों के सिवाय अन्य कोई अहित और अशुभ करनेवाला नहीं है । कर्मों के लव से जीवों का संसार सागर में पतन होता है । बन्धुजन बंधनों के समान हैं । मोक्ष के शिवास और कोई शास्वत सुख दिखाई नहीं देता । तप और रत्नत्रय के अतिरिक्त हितकारी (मुक्तिसाधक) अन्य कोई नहीं है । संबर के द्वारा ही सत्पुरुषों को मुक्तिश्री की प्राप्ति होती है । रत्नत्रय के सिवाय अन्य कोई दूसरा मुक्ति का मार्ग नहीं है । संबर के बिना मुक्ति नहीं हो सकती और मुक्ति के बिना सुख नहीं मिलता । जिससे निर्धारण (मोक्ष) मिलता है उससे अन्य कोई भी कार्य होना कठिन नहीं है। देव की भावपूर्ण भक्ति इष्ट की पूर्ति करती है । के समान कोई और वस्तु कल्याणकारी नहीं है । पूज्य पुरुषों की पूजा से आरंभ किये हुए कार्य अवश्य ही सफल होते हैं। सत्पुरुषों के कीर्तनरूपी रस का कीर्तन करनेवाली रसना ही रसना है । महापुरुषों के कीर्तन से पाप दूर हो जाता है । श्रेष्ठ श्रोष्ठ वे ही हैं जो सत्पुरुषों का कीर्तन करने में लगे रहते हैं । भक्ति कल्याणकारिणी होती है । gorate और आरोग्यदायक दिवाभोजन प्रशंसनीय है । ७३ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. पु. २४.७४ २१.७ पु. ७५.५७६ मन ६४५ विचित्राश्विासवृत्तयः । ६४६ विद्याधर्मावगाहस्य जायतेऽवहितात्मनाम् । ६४७ तत्सोहाद यवापरसु सुहृद्भिरनुभूयते । ६४६ लोको कुहधितोऽयम् । ६४९ चित्राहि मनसो गतिः । ६५० गुणेष्वत्र मनः कृत्यमिन्द्रमालेन को गुरणः? ६५१ सर्वासामेव शुद्धीनां मनःशुद्धिः प्रास्यते । ६५२ मनःशुद्धिरेमात्र सर्वाभीष्टप्रया सताम् । .६५३. कामक्रोधाभिमृतस्य मोहेनाकम्यते मनः । ४४.६५ प. पु. २८.१६५ प. पु. ३१.२३३ *, १८.१६२ मध्यस्थ ६५४ मध्यस्थः कोन सीवति ? ६५५ मध्यस्थः कस्य म प्रियः ? म. पु. ५१.६२ ६५६ लोरप्रसापाना माझ्यस्थ्यमपि तापकम् । म. पु. २७.१०० महापुरुष ६५७ मोसोभात कि क्षुभ्यति महार्णवः । पा. पु. १०.६० ६५८ न को वेत्ति महा चरितं भुवि ? प. पू. २.११३ ६५६ दुमः खिचमानोऽपि महामो याति विक्रियाम् । प. पृ. १७.१२३ ६६. महान् हि महतः सखा । पा. पु. ७,२७१ ६६१ बर्खयन्ति महात्मानः पारसनानपि द्विषः । म. पु. ६३.१३३ ७४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARATHIMAmitabasinginuictionariyanastanisneyasanslationRIMAR - चितवृत्तियां विचित्र होती हैं । ..-- विद्या और धर्म में रति (प्रवेश ) स्थिरचित्तवालों को ही होती है । ..... सौहार्द वही है जिसका अनुभव मित्रजन आपत्ति के समय करें । - लोगों के चित्त को समझना कठिन है । ..... मन को गति विचित्र होती है। -- गुणों में मन लगाना चाहिये, इन्द्रजाल से कोई लाभ नहीं है । .... सब शुद्धियों में मन की शुद्धि ही प्रशस्त है । -- सत्पुरुषों के मा को शुद्धि ही इस लोक में कीटों के रोगेकाली है। - काम और क्रोध से अभिभूत लोगों का मन मोह से प्राक्रान्त हो जाता है। -~- मध्यस्थ दुःखी होता ही है। - मध्यस्थ सबको प्रिय होता है। ..... तीव्र प्रतापियों को मध्यस्थता भी संतापकारी होती है। .- नदी के क्षोभ से क्या समुद्र क्षुब्ध नहीं होता। ---- संसार में महापुरुषों के चरित्र को सब जानते हैं । -... दुर्जनों से सताये जाने पर भी महापुरुष विकार को प्राप्त नहीं होता। -- महापुरुषों के मित्र महापुरुष ही होते हैं । .-- महापुरुष चरणों में पड़े शत्रुओं की भी वृद्धि करते हैं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुवर्तनसाध्या हि महतां वित्तयः । म. पु. ३४.६७ ६६३ गणयन्ति महास्त: कि क्षुद्रोपद्रवमल्पयत् । म.पु. ४३२८ म. पु. ३७.१३ ६६४ महता हि मनोवृतिः भोसेकपरिरम्भिणी। ६६५ महाभये समुत्पन्ने महतोऽन्यो न तिष्ठति । ६६६ न महान सहतेऽभिभूतिम् । ६६७ किमसाध्यं महोयसाम् । ६६८ पौरस्त्यः शोषितं मागं को बा मानुग्मनः । पु. ७४.२६३ २८.१७६ २६.७६ ६६६ महतो बेष्टसं चित्रं अगवम्युक्लिाहोर्षसाम् । म. पु. १.१८६ पु. १.१८८ ६७० महतां चेष्टा परार्थव निसर्गतः । ६७१ स्वनियोगानतिकान्तिः महता भूषार्थ परम् । ६७२ विमत्सराणि चेतांसि महतां परशिषु । ५.२७७ ३४.२२ ६७३ प्रचिन्स्य महतो धैर्यम् । ६७४ महतां संश्रयान्सून याम्लोज्यां मलिना प्रपि । ६७५ महतां पुरुषाणां चरितं पापनाशनम् । ६७६ महामहाजनः प्रायो रतिवहिरतो भृशम् । ६७७ महतां ननु शैलीयं यहापद्गततारणम् । ६७८ महला चेष्टितं चित्रम् । ६७६ कार्य हि सिद्ध्यति महद्भिरविष्ठितं यत् । १७.२१० ___३.२६ प पु. ११३.४२ AA म. पु. २५.४७ म. पु. १६.१५४ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ actsymiaanchal - महापुरुषों को चित्तवृत्ति अनुकूलवृति (अनुकूल प्राचरा से ही ठीक हो जाती है। ---- महापुरुष तुच्छ मनुष्यों के छोटे-छोटे उपद्रवों की परवाह नहीं करते। - महापुरुषों की मनोवृत्ति अहंकार का स्पर्श नहीं करती। - महाभय के सामने महापुरुष के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं ठहर सकता। - महापुरुष दबाव नहीं सहते । -~- महापुरुषों के लिए कोई भी कार्य प्रसाध्य नहीं है । - पूर्व पुरुषों के द्वारा शोधिस मार्ग का लोग सरलतापूर्वक अनुगमन करते हैं। -जगत् का उबार बाहमेवाले महापुरुषों की चेष्टाएं विचित्र होती हैं। .- महापुरुषों की चेष्टा स्वभाव से ही परोपकार के लिए होती है । --- अपने कर्तव्यों का उल्लंघन नहीं करना महापुरुषों का श्रेष्ठ भूषण है। - महापुरुषों के हृदय दूसरों की उन्नति देखकर भी मात्सर्यरहित होते हैं। - महापुरुषों का वैर्य अचिन्त्य होता है । -~~- महापुरुषों के आश्रय से मलिन पुरुष भी पूज्य बन जाते हैं । - महापुरुषों का चरित्र पापनाशक होता है। --- उसमपुरुष रागियों से प्रायः अत्यन्त विरक्त होते हैं। - आपत्ति में पड़े हुए का उद्धार करना महापुरुषों की शैली है । --- महापुरुषों की चेष्टाएं विचित्र होती हैं । -- महापुरुषों के द्वारा प्रारम्भ किया हुमा कार्य पूर्ण होता ही है । ७५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान/अपमान विनय ६८. मानभङ्गाभवाचुःखानापर समहानिदम् । पा.पु. १७१४४ म. पु. २८.१३६ ६८१ परिभवः सोम प्रशयो मानशालिनाम् । ६८२ मानधारणा हि मालिनी .. .. . . ܝ̄ܪܨ "" ६६३ किं कुर्वन्ति न गविताः ? ६८४ प्रणाममाप्रतः प्रीता आयन्ते मानशालिनः । ६८५ मानमुबहतः पुंसो गोविसं संसृतौ सुखम् । ६५६ जायते प्राणिर्मा दुःख परमंच तिरस्कृतेः । ६८७ अपमानासतो दुःखान्मरणं परमं सुखम् । ६४८ पुण्यवान् स नरो लोके यो मालुदिनये स्पितः । ६८६ कुलजाताना विनयः सहजो मतः। ६६० म योऽवगम्यते यत्र म स तत्र अनोऽर्यते । ६६१ महता पाच-संसेवी को वा मायतिमाप्नुयात्। wil. प. पु. ३५.१७२ म. पु. ५.१७६ मापा ६६२ सद्भावप्रतिपन्नानां वंचने का विदग्धता? म. पृ. ५६ १६२ मित्र मंत्री शत्रु ६६३ तदेवोपकृतं पुंसां यत् सदभावदर्शनम् । ६६४ सहायभावो हि विपक्षयोगान्महाभयस्योपनिपातहेतुः ३ ह. पु. ३५.३ ६६५ लियंञ्चोऽपि सुहृभावं पालपस्येव बन्धुषु। म. पु. ७३.१८ ६६६ मैत्री संब या त्वेकधिसता। म. पु. ४६.४० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 — - wwwww JLL मानभंग से उत्पन्न हुए दुःख के अतिरिक्त अन्य कोई दुःख सुख की हानि करनेवाला नहीं है । मानशाली अपना पराभव सहन नहीं कर सकते । मानी ( स्वाभिमानी ) मान को ही प्राण समझते हैं । अहंकारी लोग सब कुछ करते हैं । मानी मनुष्य प्रणाम मात्र से ही प्रसन्न हो जाते हैं। मानी ( स्वाभिमानी ) का जीवन संसार में सुखी होता है । तिरस्कार से प्राणियों को परम दुःख होता है । अपमान से तथा तज्जन्य दुःख से तो मर जाना परम सुख है । संसार में वह मनुष्य पुण्यात्मा है जो माता के प्रति विनयी होता है । कुलीन मनुष्यों में विनय स्वभाव से ही होता है। जहां मनुष्य अपरिचित होता है वहां उसका प्रादर नहीं होता । बड़ों की चरणसेवा से बड़प्पन प्राप्त होता है। सरल परिणामी मनुष्य को ठगने में कोई चतुराई नहीं है । -दूसरों के प्रति सद्भाव दिखाना हो मनुष्य का उपकार है । शत्रुनों की परस्पर मित्रता महान भय का कारण होती है । तिर्यंच भी बन्धुजनों के साथ मंत्रोभाव का पालन करते हैं । एकचित्त हो जाना ही मित्रता है। ७६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. प. ४८ ६६७ क्योऽप्रियमपि प्राह्य सुहवामौषधं यया। प.पु. ७३.४८ ६६८ विपक्षस्य हि साग्निथ्यमक्षिसङ्कोचकारणम् । ह. फु, २२.१७ ६६६ स्वरूप इत्यनया बुध्या कार्याक्शा न वैरिणि । है. पु. ४६ २१२ ७०० कालं प्राप्य कमो वह बेहेत् सकलविष्टपम् ।। २१२ ७०१ लम्परन्ध्रा न तिष्ठेयुरकस्यापकृति द्विषः। म. पु. ४८.६३ ७०२ बलाधरणीयो हि क्षोधीयानपि कष्टकः। ७०३ खलूपेक्ष्य लघीयानव्युभोग लगतावृशाः .. .. .. ७०४ नानुबन्ध स्यजस्परिः । ६.४८५ ७०५ क्षुद्रो रेणुरियाशिस्यो रजस्यरिस्पेक्षितः । ___३४.२४ ७०६ कर्माक्षेभ्योऽपरी बरी नेहामुनातिदुःखदः। द. च. १८.१० ७०७ करितो गरिरुगोपि सुजयो विजिगीषुणा । म. पृ. २७.२६० मोह ७०८ मोहो हि घेतमा हरेत् । पा. गु. १२.३४२ ७०६ सगी वारिज्यवग्धोऽपि कुटीर मोभितु क्षमः । व. च. १२.६५ ७१० मोहिमा तस्कि यवकृत्यं जगत्त्रये । ७११ कुर्वन्ति मोहास्याः कर्मानामुत्र नाशवम् । घ. छ. ३.२६ ७१२ मोहेन जायेते रागद्वेषौ हि बुर्धरौ । म. प १०.६५ ७१३ मोहत्य माहात्म्यं यत्स्वार्यावपि हीयते । ७१४ मोहतः कष्टमनुतापं प्रपद्यते । प. पु. ३६.२०१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रों के अप्रिय वचन भी औषधि के समान प्राय हैं । ---- विरोधी की समीपता नेत्रसंकोच का कारण होती है । छोटा समझकर शत्रु की अवज्ञा नहीं करनी चाहिये । समय पाकर अग्नि का एक कण भी समस्त संसार को जला देता है। ... छिद्रान्वेषी शत्रु अपकार किये बिना नहीं रहते।। - कांटा चाहे छोटा ही हो बलपूर्वक निकालने योग्य है । .--- शत्रु यदि छोटा हो तो भी यह उपेक्षणीय नहीं है। ... शत्रु अपने संस्कार का त्याग नहीं करता। उपेक्षित शत्रु चाहे वह छोटा ही हो प्राख में पड़े हुए धूलिकण के समान पीडाकारक होता है। -~-~~ इस लोक और परलोक में कर्म व इन्द्रियों के विषयों के अतिरिक्त अतिदुःखदायी शत्रु और कोई नहीं है। --- बलवान् शत्रु भी दुर्बल हो जाने पर विजिगीषु द्वारा अनायास ही जीत लिया जाता है। ..मोह चेतना को हर ही लेता है। - रागी जीव दरिद्र होते हुए भी अपनी कुटिया को नहीं छोड़ सकना । .... मोही जनों के लिए तीन लोक में कोई कार्य अवस्य नहीं है । मोहान्ध मनुष्य इस लोक और परलोक में नाशकारी कर्म करते हैं। --- मोह से ही रागद्वष दुर्घर हो जाते हैं । ..--- मोह के प्रभाव से जीव आत्महित से भ्रष्ट हो जाता है। --- मोह से कष्ट और पश्चासाप मिलते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ विषयमालेन अध्यन्ते मोहिनो जनाः । प. पु. ११२.८४ ७१६ सं तान सानिया पने एले।. ... ए. पु. १०७.४७ यश अपयश ७१७ यशो रक्ष्यं प्राणैरपि धनरपि । पु. २८.१४० ७१८ स्थायुकं हि यशो लोके । पू. ३४.८६ ७१६ प्रापरपि यशः केयं । ६५.४८७ ७२० अकोतिः परमल्यापि याति वृद्धिमुपेक्षिता। यौवन/जरा ७२१ जरास्यस्थं हि यौवनम् । ब. च. ११.५ ७२२ संध्याप्रकाशसंकाशं यौवनं बहुविभ्रमम् । प. पु. २९.७३ ७२३ पौवनं फेनपुंजेन सदृशम् । प. पु. ८३.४७ ७२४ यौवनं बनवल्लीकामिष पुष्पं परिक्षयि । १७.१५ ७२५ तारुण्यं कुसुमोपमम् । प. पु. २१.११६ ७२६ तारुण्यसूर्योऽप्ययमेवमेव प्रणश्यति प्राप्तजरोपरागः । ५. पू. २१.१४८ ७२७ प्रकृष्टवयसा पुंसां धीर्यात्पेष परिक्षयम् । प. पु. १२.१७२ ७२८ जरापातो नृणां कष्टो ज्वरः शोत इवोद्भवन् । म. पु. ३६.८६ रागविराग/दुष ७२६ प्रस्थाने योजिता प्रोतिः जायतेऽनुशयामते 1 म. पु. ३५.१९८ ७३० पुरा संसर्गतः प्रीतिः प्राणिनामुपजायते । प. पु. २६. ७३१ समानेषु प्रायः प्रेमोपजायते । प. पु. ४७.६१ ७३२ रागात् संजायते कामः । 4. पु. ११.१३६ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BYLLE ― HILAAL - - SAHIA www ― - — 17 Mmm www. - मोही लोग विषयजाल से बद्ध हो जाते हैं । संसार में श्रासक्त मनुष्य से पद-पद पर भूल होती है । प्राण और धन देकर भी यश की रक्षा करनी चाहिए। लोक में यश ही स्थिर रहनेवाला है। प्राण देकर भी यश खरीदने योग्य है । थोड़ी सी भी अपकीर्ति उपेक्षा करने पर बढ़ जाती है । rter वृद्धावस्था के मुख में होता है । यौवन संध्या प्रकाश के समान चलायमान है । यौवन फेनसमूह के समान है । यौवन बनलता के पुष्पों के समान क्षय होनेवाला है । यौवन फूल के समान है। यौवनरूपी सूर्य भी जरारूपी ग्रहण का ग्रास हो जाता है। वृद्ध पुरुषों की बुद्धि क्षीण हो ही जाती है । बुढ़ापा मनुष्य को शीतज्वर के समान कष्टदायी है । अयोग्य स्थान में की गई प्रीति पश्चात्तपकारिणी होती है । पूर्वसंसर्ग से ही प्राणियों में प्रीति उत्पन्न होती है। प्रायः समानजनों में ही प्रेम होता है । राग से काम उत्पन्न होता है । ८ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३३ स्नेहबन्धनमेतानामेतद्धि चारकं गृहम् । ७३४ रागवशं जन्तोः संसारपरिवर्तनम् । ७३५ प्रोत्यप्रीतिसमुत्पन्नः संस्कारो जायते स्थिरः। ७३६ रक्तस्य षोऽपि मुगवत् प्रतिभासते। ७३७ रागी बध्नाति कर्माणि । ७३८ अश्यावो हि सो त रक्तेन न मनोव्यथा । प. पु ११.१४२ म. पृ. ५६६१ म. पु. ४६.१४ __म. पृ. ५८३४ REECERCISCkaResscamaABSEREEBRURREEMERGENCOBILE .. ७३६ योनि पामश्नुते अन्सुस्तत्रैव रसिमेति सः । ७४. सामिणा हि वात्सल्यं परं स्नेहस्य कारणम् । ७४१ सदृशाः सदृशेष्वेव रज्यन्ति । ७४२ सद्भावं हि प्रपद्यन्ते तुल्यावस्था अना भुवि । प. पु. ७७,६८ पा.पु. १३.१५७ प. पु. ११८.५८ १. पू. ४७.१७ . .. ..................................... पु. १०५.२५६ ४४३ निवतः स्नेहपाशस्तु ततः कृच्छ ण मुच्यते । ७४४ स्नेहं भवदुःखाना मूलम् । ७४५ दुश्छेचं स्नेहबन्धनम् । ७४६ सन्ध्यारागोपमः स्नेहः । ७४७ स्नेहस्य किमु वुष्करम् । ७४८ परिचितः प्रणयः खलु वुस्त्यजः । ७४६ सर्वेषां बन्धानां तु स्नेहबन्धो महाबलः । ७५० स्थास्नु नाशानवैराग्यम् । ७५१ प्रौबासीम्यमिहानर्थ कुरुते परमं पुरा । ७५२ पौवासीन्य सुखं । ५. पू. ३२८ ५. पु. ३१.१५ प. पू. २१.११६ प. पु. २६.४२ ४. पु. १५.४३ प. पु. ११४४६ भ. पु. ६५.८९ प. पु. ४५.८४ #. पु. ५६ ४२ ५४ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ media ...... स्नेह-बंधन से प्राबद्ध मनुष्यों के लिए घर बन्दीगृह के समान है । - प्राणियों का संसारपरिभ्रमण रागवश होता है । .... राग और द्वेष से उत्पन्न संस्कार स्थिर हो जाते हैं । -- रागी पुरुष के दोष भी गुण के समान जान पड़ते हैं । -- रागी जीव कर्मों को बांधता है। ...... रागी मनुष्य अपकीति को तो सह सकता है परन्तु मन की व्यथा को नहीं। .... प्राणी जिस योनि में जाता है उसी में रत हो जाता है । - सामियों का वात्सल्य निश्चय से स्नेह का परम कारण होता है । - समान लोगों में ही अनुरक्ति होती है । -- पृथ्वी पर समान अवस्थावाले मनुष्य ही सदभाव (पारस्परिक प्रीति भाव) को प्राप्त होते हैं। - स्नेहरूपी पाश से बंधा प्राणी कठिनता से छूट पाता है । -.. सांसारिक दुखों का मूलकारण प्रासक्ति है। - स्नेहबंधन दुण्छेद्य है। - स्नेह सन्ध्या की लालिमा के समान है। ... स्नेह के लिए कोई कार्य दुष्कर नहीं है । -- परिचित स्नेह कठिनाई से ही छूटता है । --- सभी बंधनों से स्नेह का बंधन अधिक रद होता है । – प्रज्ञानपूर्ण वैराग्य स्थिर नहीं रहता । - उदासीनता बड़ी अनर्थकारिणी है । ---- उदासीनता ही सुख है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा पु. १२.१४५ ७५३ किम जल्पन्ति वैरिणः ? ७५४ द्वषाजन्तुविनाशनम् । ७५५ मनोनं प्रायशो रूप धीरस्यापि मनोहरम्। प. पु. ६.१६७ ७५६ राजते चाहनावानो सर्वथैव हि चाला . ७५७ यद्यस्ति स्वगता शोभा कि किलालंकृतः कृतम्। म. पु. १७.४१ ७५८ सन्ध्यारागनिभा रूपशोभा। म. पु. १७.१४ लोक ७५६ अन्सुना सर्वयस्तुभ्यो बाध्यते दीर्घजीविता । ७६० लोकोऽयं चित्रवेष्टितः । ५. पृ. १६.७६ ७६१ लोको हि परमो गुरुः । प. पु. ४४.७१ ७६२ लोकः सत्यमेव नप्रियः । ७६३ को ह्यस्य जगतः कतुं शक्नोति मुखबन्धनम् । प. पू. १७.१२५ लोभ शौच/सन्तोष ७६४ लोभो महान्पापः । पा. पु. १२.१३६ ७६५ लोभात् कि न प्रजायते । पा. पु. १२.१३६ ७६६ लोभी बुलं प्राप्नोति कारणम् । प. पु. ६३.५३ ७६७ सुम्मो न लभते पुण्यम् । ५४.१०६ ७६८ अलम्ये न करोति किम् ? ७६६ अपिभिरकर्तव्यं न लोके नाम किंचन । ४६.५५ ७७० नापिनो स्थितिपालनम् । म, पु. ६२.३३६ 044 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... देरी सब कुछ कह देते हैं। - वष से प्राणियों का विनाश होता है । सुन्दर रूप प्रायः धीर-कीर मनुष्य के भी मन को हर लेता है । ..... सुन्दर भाववालों में सभी प्रकार से सुन्दरता रहती है । --- यदि स्वयं सुन्दर है तो उसे अलंकारों की प्रावश्यकता नहीं है । ..... रूप की शोभा सन्ध्याकालीन लालिमा के समान है। ...... प्राणी सब वस्तुओं से पहले दीर्घजीवन की कामना करता है। - लोक विधितापों से घिरा .... :: ... ... :: : ....... .. ....... : .-- लोक ही परम गुरु है। -.. वस्तुतः लोक नवीनताप्रिय होता है । .- संसार का मुख कोई बन्द नहीं कर सकता। -.. लोभ महापाप है। - लोभ से सब कुछ (अनर्थ) संभव है। ...- लोभी वारुण दुःख पाता है । - लोभी को पुण्य की प्राप्ति नहीं होती। - अलभ्य को पाने के लिए मनुष्य सब कुछ करता है । -.. घनलोलुपी के लिए संसार में कुछ भी प्रकरणीय नहीं है । --- स्वार्थी मर्यादा का पालन नहीं करते। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७७१ मनोवचनकायानामकौटिल्यं विशुद्धता । ७७२ शुभिरलङ्घ्यतरः । ७७३ मत्र्यलोके सुखं तद् यच्चित्तसन्तोषलक्षणम् ७७४ प्रभूते या धृतिः सा कि क्वचिदन्यत्र लक्ष्यते । वचन / उक्ति / मौन ७७५ सतां हि कुलविधेयं यन्मनोहरभाषणम् । ७७६ परपीड़ाकरं वाक्यं वर्जनीयं प्रयत्नतः । ७७७ प्रमाणभूय वाक्यस्य वक्तुप्रामाण्यतो भवेत् । अपन www ७७८ पश्चात् विषविपाकिन्यः प्रागनालोविलोकयः । ७७६ प्रसस्थतो भवेन्नूनं किल्विषं कमकारणम् । 1950 सो हितमन्ते स्यावातुरायेव भेषजम् । ७८ १ मौनं सर्वार्थसाधनम् । वस्तु/पदार्थ ७८२ कृतका हि विनश्वराः । ७८३ किं न्यत्र न विनश्वरम् ? ७८४ गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाश इष्यते । ७८५ वावास्यगतं रत्नं करा कि पुनरीक्ष्यते । ७८६ विनाशो हि स्वभावो वस्तुनः । ७८७ कालहानिर्न कर्त्तव्या हस्तासम्मेऽतिदुर्लभे । ९८ पा.पु. १८.१५६ म.पु. १२.१०५ ह्र. पु. ११.६६ म.पु. १५.११ प. पु. प. पु. ५.३४१ म.पु. ६७.१८७ ४६.५७ म. पु. ४ पा.पु. ३०.२२६ प. पु. ७४.५२० ह्र. पु. ६.१२६ है. पु. ६१.१८ प. पु. १७.१३ म.पु. ५०.२६ प. पु. ४५.७५ पा.पु. ६.२११ म.पु. ६२.४४२ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स www wwwww ―― मन-वचन-काय की सरलता ही विशुद्धता है । fe व्यक्ति (निर्लोभ व्यक्ति ) अलंघ्य होता है । मनुष्यलोक में सुख वही है जो चिस को सन्तुष्ट करनेवाला हो । अमृतपान से जो संतोष होता है, अन्यत्र है। • कृत्रिम वस्तुएं अवश्य ही नश्वर होती है । इस संसार में सब वस्तुएं विनश्वर हैं । गुणी गुणों से एकीभूत होता है अतः गुणी का नाम होने पर गुणों का भी नाश हो जाता है। हाथ से बडवानल में गया हुआ रत्न फिर नहीं मिल सकता | वस्तु का स्वभाव विनाशशील है । — मधुर भाषण सत्पुरुषों की कुलविया है । दूसरे प्राणियों को पीड़ा देनेवाला वचन प्रयत्नपूवक वर्जनीय है। वचन की प्रामाणिकता वक्ता की प्रामाणिकता से होती है । पहले बिना विचारे कथन का फल बाद में वित्र के समान होता है । असत्य से पाप कर्म का बंध होता ही है । सज्जनों के वचन रोगी मनुष्य को प्रौषधि के समान परिणाम में हितकारी होते हैं । मौन से सब मनोरथ सिद्ध होते हैं । प्रतिदुर्लभ वस्तु यदि हाथ के निकट हो तो उसकी प्राप्ति में विलम्ब करना ठीक नहीं । ६६ 88 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ विचित्रा अयशस्तयः । पु. ७१.३४६ ७८६ अत्र नाभंगुरं किञ्चिद । पु. ६३.२६५ ७६० अत्यल्पं बहुभौल्येन गलतो न हि बुर्लभम । म. पु. ५६.११५ ७६१ नवं धृतिकरं नृणाम् । ह. पु. २१.३७ ७९२ अभियानु रतिर्मनी मन्येत् । :.:::..... ...: ५५.३५ वर्ण/जाति ७६३ न जातिमात्रा वैशिष्ट्यं । म. पु. ४२.१८८ ७६४ न जातिहिता काचित् । प. पु. ११.२०३ विद्वान् ७६५ पण्डिताः समशिनः । प. पु. ११.२०४ ७६६ प्रायः श्रेयोगिनो बुधाः । ७६७ सदेव ननु पाण्डित्यं यत्संसारात समुद्धरेत् । ७६६ गुणरेव प्रोतिः सर्वत्र धीमताम् । ६७.३१५ GEE विद्वानिगिसशो हि । ६.८.१४६ ८०० विद्वांसः प्रमाण जगतः परम् । पु. ६६.४६ ८०१ नो पृथग्जनवावेन संक्षोभं यान्ति कोवियाः । प. पु. ६७.३० 44 AMA ८०२ हितं नैव जीवितं बतभंजनात् । ८०३ नोल्लंघन्ते नियोगं स्वं मनस्विनः । ५०४ न तारो बन्धुर्नावलादपरो रिपुः । ८०५ तेन जायते सम्पत् । ७६.३७४ म. पु. ७६.३७८ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- द्रव्य की शक्तियां विचित्र होती हैं। ..-- इस संसार में कोई हो जस्तु प्रदिलवा नहीं है..... ... ... ..... .. - बहुमूल्य वस्तु से अल्पमूल्य को वस्तु खरीदना कठिन नहीं है। ..--- नवीन वस्तु मनुष्यों को धैर्य देनेवाली होती है । - नवीन वस्तु अधिक प्रिय होती है। -- केवल जाति से ही विशिष्टता नहीं होती। -- कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है । – पण्डित समदर्शी होते हैं । -- पण्डितजन प्रात्मकल्याणार्थी होते हैं। -- पाण्डित्य वही है जो संसार से उद्धार कर दे । --- विद्वानों को सब जगह गुणों से ही प्रीति होती है । ..... संकेत समझनेवाले ही विद्वान् होते हैं। -- जगत् में विद्वान् लोग ही परम प्रमाण हैं । ... साधारण मनुष्यों की बातों पर विद्वान् क्षुब्ध नहीं होते । - अतभंग कर जीवित रहना हितकारी नहीं है। ..... मनस्वी पुरुष अपने नियम का उल्लंघन नहीं करते । - व्रत से बढ़कर कोई बंधु और अव्रत से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है । - बत से सम्पति की प्राप्ति होती है। GORAKASAMAma Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. पु. ७६.३७५ म. पु. ७६.३७६ #. पु. ७६.३७६ म. पु. ७६.३७३ न.च. १६.११२ .. ::.: . . .. .: पु. ३४.४३ प. पू. ८.२२३ ८०६ उग्राभिदेवताभिश्च व्रतवानाभिभूयते । ५०७ अरन्तोऽपि नमन्स्येव व्रतवन्तं श्योनवम् । १०८ वयोवृद्धो बतासीनस्तृणवन् गम्यते अमः । १०६ व्रतो सफलवृक्षो का निम्तो बन्ध्यवृक्षवत् । १० वर प्राणपरिस्थागो वसभङ्गान जोषितम् । व्यवहार ८११ प्राय मांगलिके लोको व्यवहारे प्रवर्तते । ८१२ बन्धुषु नो युक्तं व्यवहर्तुमसाम्प्रतम् । ध्यसन ८१३ कुर्याद् व्यसनोपहतो नु किम् ? ८१४ अतेन याति निःशेष यशो लोकापवावतः । ५१५ सर्वानर्थकरं यूतम् । ८१६ ग्रूतसमं पापं न भूतं न भविष्यति । ५१७ धृतं बुर्षरदुःखदम् । ५१८ नापरं ध्यसनंतानिकृष्टं । ५१६ को न था पति वारुणीप्रियः । ८२० प्राश्रित्य वारुणी रक्तः को न गत्यधोगतिम । ८२१ मांसभुक्तनिवृत्तस्य सुगतिहस्ततिनी । ५२२ यो मांस भक्षयस्यषमो नरः । शक्ति ६२३ सपा विश्वजनीना हि विभुता भुवि धर्तते। पहा. पु. १६.११६ पा. पु. २६.११७ पा.पु. १६.११६ पु. १६.११ म. पु. ५६.७५ पु. ४४.२६२ 44 प. पु. २६.६ प. पु. २६.७४ ह. पु. ५६.८५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..- उन देव भी व्रती का तिरस्कार नहीं करते। ---- प्रती पुरुष अवस्था में कम हो तो भी वृद्धजन उसे नमस्कार करते हैं । ... लोग अतरहित वयोवृद्ध को तृण के समान समझते हैं । -... प्रती फलसहित वृक्ष के समान है और प्रवती फलहीन वृक्ष के समान । ...... प्रतभंग कर जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है। - लोग प्रायः मांगलिक व्यवहार में ही प्रवृत्त होते हैं। - बन्धुओं के साथ अनुचित व्यवहार करना उचित नहीं है। -- व्यसनी मनुष्य सब कुछ कर डालता है । ...-- घृत से लोकापवाद के कारण सम्पुर्ण यश नष्ट हो जाता है । - थूत सब अनर्थों की जड़ है। द्यूत के समान पाप न हुन्मा है और न होगा। -- छूत दुर्धर दुःखदायी होता है । ..... चूत से बढ़कर अन्य कोई निकृष्ट व्यसन नहीं है। ..... शराबी का पतन होता ही है । - शराबी की अधोगति होती ही है । ..... जो मांसभक्षण नहीं करता उत्तमति उसके हाथ में ही है। -- जो नर मांस खाता है वह अघम हो जाता है। -~~ संसार में सन्नी प्रभुता सबका हित करने वाली होती है । 2981RDwonr Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ जानस्थसहने सिहे सुखायन्ते कियन्मगाः । पा.पु. १.१६ ८२५ समर्थो न जहात्याशु निर्ज शील कदाचन । पा. पु. १७.११६ ८२६ सस्वस्य को भरः? प, पृ. ३१.१११ ८२७ प्रायोगिरिविलस्थस्य कि करोतु मृगाधिपः । प. पु. २६.४६ ५२८ सुमुखासा प्रपञ्च कुलमाभागभार । ...... पु. १०२.३५, ५२६ गजेन्द्रशृगधरणी न कम्पते । प. पु. ६६.८७ ६३० न जम्बुके कोपभुपैति सिंहः । ६६.८६ ८३१ न सागरः शुष्यति सूर्यरश्मिभिः । ६६.५ ६३२ नालोः संक्षोभमायाति सिंहः । ६६.५६ ८३३ ता एव शक्तयो या हि लोकद्वयहितावहाः । म, पु. ५०.३७ ५३४ सदसत्कार्यनिवृत्तौ शक्तिः सबसतोः समा। प. प. १४.२३२ म. पु. २८.१३६ ८३५ सारयितुं शक्ता न शिला सलिले शिलाम् । ८३६ बलवद्भिविरोषस्तु स्वपराभवकारणम् । ८३७ भवन्ति हि बलोयांसो बलिनामपि विष्टपे । ८३८ ननु सिंहो गुहां प्राप्य महाद्रेयिले सुखी। ८३६ न हि गण्डूपवान हन्तुं वैनतेयः प्रवर्तते। ४० किमेभिः क्रियते काकः संभूयापि गरुत्मतः ? ६४.१११ प. पु. ६६.२६ प. पु. ८.१६० प.पु. ८.१२६ शील ४१ शोलतो अधिनमा रगतो गोषवामते । पा.पु. २१.६२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... दुर्दम सिंह के जागृत होने पर हरिण थोड़ी देर भी सुखी नहीं रह सकते। -~- समर्थ लोग अपना स्वभाव कदापि नहीं छोड़ते। -- समर्थ के लिए कुछ भी भार नहीं है । . पहाड़ के बिल में स्थित चूहे का सिंह कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता । – सुकुमार प्राणी थोड़े कारण से भी दुःखी हो जाते हैं । ...- बैल के मींगों से पृथ्वी नहीं कांपती। . – सिंह सियार पर क्रोध नहीं करता। -~~- सूर्य की किरणों से समुद्र नहीं सूखता । - सिंह चूहे पर क्षुब्ध नहीं होता। ..... शक्तियां वे ही हैं जो दोनों लोकों में हितकारी हो। अच्छे और बुरे कार्य करने की शक्ति सज्जन और दुर्जन दोनों में समान होती है। – शिला भी पानी में पड़ी शिला को नहीं तैरा सकती। -- बलवान् पुरुषों के साथ विरोध अपने पराभव का कारण होता है । ----- संसार में एक से एक बढ़कर बलवान होते हैं। --- निश्चय ही सिंह महापर्वत की गुफा पाकर सुखी होता है। ...- गरुड़ जलवासी निविष सांपों को मारने का यत्न नहीं करता। - बहुत से कौवे मिलकर भी गरुड का कुछ बिगाड़ नहीं सकते । -~~ शील के प्रभाव से समुद्र भी मनुष्यों के लिए क्षणभर में गाय के खुर के समान हो जाता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२ मीलयुक्तो मृतः प्राणी स सुखी स्थान भये भो। पा. पू. २१.६३ ८४३ सर्वासामेव शुद्धीनां शीलसुद्धिः प्रशस्यते । ८४४ शोलेन जायते नाकः। ८४५ शोलं चक्रिपदप्रयम् । २१.८६ ९४६ ब्राह्मचर्यास्मर्फ शीलं । पा. पु. १.१२८ ८४७ गोलं सगुणपालनम् । पा. पू. १.१२४ ५४८ शोला बासस्वमायान्ति सुरासुरनरेश्वराः । पा. पु. ११८४ ८४६ शोलन सम्पदः सर्वाः। - ::...:: ८५० शीलतो नापरं शुभम् । पा. पु. १७.२६३ ८५१ जनस्य साधुशोलस्य दारित्र्यमपि भूषणम् । प. पु. ४६.९३ ८५२ शोलं हि रक्षितं यस्नाद आत्माममनुरक्षति । १५३ मेतुं शोलवती चितं न शक्यं मन्मथेन । म. पु. ६८.१६. ८५४ अभिभूतिः सशीलामामय फलवायिनी। ६.८.२३० ४५५ शोलस्य पालनं कुर्वन् यो जोवति स जीवति । ___ ४६.६५ ४५६ पुमान् जन्मद्वये शंसा सुशीलः प्रलिपद्यते । प. पु. ७३.५६ संकल्प ८५७ अन्तरंगो हि संकल्पः कारणं पुग्यपापयोः । __५. पु. १४.७१ ८५८ संकल्पावराभाद् दुःखं प्राप्नोति शुभतः सुखम् । प. पु. १८,५१ संयोग-वियोग ५५६ संयोगा विप्रयोगान्ताः । ८६० भंगुर संगमः सर्वः । म. पु. ४६.१९१ ܂ ܩ ܩ ܂ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మన ముకురు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు కు ::: :: : : -- शीलयुक्त प्राणी मरने पर प्रत्येक भव में सुखी होता है । – सारी शुद्धियों में शीलशुद्धि प्रशंसनीय है। --- शोल से स्वर्ग मिलता है। .... शील चक्रवर्ती पद का दाता है। .: . ... .. ... ....... ... .. ..... -- ब्रह्मचर्य ही शील है। ---- सद्गुणों का पालन करना शील है। ..... सुर-असुर और शासक भी शील के प्रभाव से दास बन जाते हैं। - शील से सब सम्पत्तियों मिल जाती हैं। - शील सबसे बड़ा शुभ है। --- शीलवान मनुष्य की दरिद्रता भी प्राभूषण है। - प्रयत्नपूर्वक रक्षा किया हुआ शील हो प्रात्मा की रक्षा करता है । ---- शीलवती स्त्री का चित्त कामदेव के द्वारा नहीं भेदा जा सकता। --- शीलवानों का तिरस्कार इसी लोक में फल दे देता है । - शील का पालन करते हुए जो जीता है उसी का जीवन सफल है । "- भीलवान् की दोनों जन्मों में प्रशंसा होती है। Tal Man ----- अन्तरंग संकल्प ही पुण्य और पाप का कारण है। - अशुभ संकल्प से दुःख और शुभ संकल्प से सुख मिलता है। -- संयोग के बाद वियोग अवश्यंभावी है। .... सभी संगम क्षरणभंगुर हैं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ....OEATREAMRATEFAmitimanrammerc i sovR RARSHAYA ४६१ स्वप्न इव भवति चारसंयोगः । प. पु. ६०.२६ ८६२ घरं हि मरणं श्लाघ्यं न वियोगः सुदुःसहः। . पु. १०५.११ ८६३ विषयः स्वर्गतुल्योऽपि विरहे नरकायते । ८६४ प्रियस्य प्राणिनो मृत्युर्वरिष्ठो बिरहस्तु न। प. पु. १०५.८५ ८६५ यावजीवं हि विरहस्तापं यच्छति चेतसः। प. पु. १.५.१२ संगति ८६६ सा योगः शुभाप्तये। पा. पु. १५.२०२ ८६७ नाम्यस्सत्संगमाद्धित्तम् । पा. पु. ३.१६ ८६८ धाति धवलात्मतामयलो हि शुद्धाश्रयात्। ह. पु. ३८.५२ ८६६ कुसंगासंगतो नृणां जीवितान्मरणं वरम् । २४.३५ २७० नहि नीचं समाश्रित्य जीवम्ति कुलजा नराः ।। २४० ८७१ मिथ्यावृशां संगः क्वचिदपि न वरम् । क. स. ९.१३३ ५७२ सालोः संगमनाल्लोके न किंचिद् बुलभं भवेत् । १. पु. १३.१० १ ८७३ धसे हि महतो योगः शममयशमात्मसु । ८७४ कि न स्यात्साधुसंगमात् ? पु. ६२.३५. ८७५ भवति किमिह मेष्टं संप्रयोगाम्महभिः ? पु. ६३.५०८ ८७६ कि करोति न कल्याणं कृतपुण्यसमागमः ? ७३.८६ ८७७ सत्संगमः कि न कुर्यात् ? सज्जन/दुर्जन ८७८ स्खलति न स्थितितः सुजनः । ८७६ सज्जनो हि मनोवुःख निवेदिसमुदस्यति । है. पु. ४५.७६ म. पु. ७४.५४५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANTURES ...- सुन्दर वस्तुओं का समागम स्वप्न के समान होता है । ---- दुःसह वियोग से मर जाना अच्छा । -~. विरहकाल में स्वर्ग के समान देश भी नरकतुल्य जान पड़ता है। ---- प्रिय प्राणी की मृत्यु तो अच्छी है किन्तु उसका बिरह अच्छा नहीं है । .... विरह जोवनपर्यन्त चित्त को सन्ताप देता है । --- सज्जनों को संगति से शुभ की प्राप्ति होती है । - सत्संगति से बढ़कर अन्य हितकर नहीं है। - शुद्ध पदार्थ के प्राश्रय से बुरा भी अच्छा हो जाता है। ...- कुसंगति में रहकर जीने से मनुष्यों का मरना अच्छा है। - कुलीन मनुष्य नीच का प्राश्रय लेकर जीवित नहीं रह सकते । ...- मिध्यारष्टियों का संग कहीं भी अच्छा नहीं है। - लोक में साधु-समागम से बढ़कर अन्य कोई दुर्लभ वस्तु नहीं है । - महापुरुषों की संगति से क्रू र जीव भी शान्त हो जाते हैं । .. साधु-समागम से सब कुछ संभव है । - महापुरुषों की संगति से सब इष्टसिद्धियां होती हैं । .... पुण्यात्माओं का समागम कल्याणकारी है। -- सत्संगति से सब कुछ हो सकता है । ....- सज्जन अपनी मर्यादा से कभी विचलित नहीं होते । ---- सज्जन बताने पर मन के दुःख को दूर कर देते हैं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्तो विशेषाः । ६८१ सतो गुणान्न मुञ्चन्ति दूरीभूतेऽपि सज्जने । पा.पु. १०.२३१ ६८२ प्राणाः सतां न हि प्रारणाः गुणाः प्राणाः प्रियास्ततः । म. पु. ६८.२२१ ८८३ ऋषयस्तै हि भाष्यन्ते मे स्थिता जन्तुपालने । मनीषूसमस्पृहा । ८८५ प्रतिकलसमाचारा न भवन्त्येव साधवः । A R ८८६ शिष्टास्तु क्षान्तिशौचादिगुणधर्मपरा नशः । ८८७ महारण्येऽपि भव्यानां भवन्ति सुहृदो जनाः । ८८५ विषाय मानभंग हि सन्तो यान्ति कृतार्थताम् । न हि मरसरियाः सन्तो न्यायमार्गानुसारिणः । ८९० सन्तो हि हितभाषिणः । ८५६ ८६१ प्रायः कल्पजुमस्येव परार्थं चेष्टिसं लताम् । ८५० ८५४ ८६२ परदुःखेन सन्तोऽमी त्यजन्त्येव महाश्रियम् । ८६३ सम्तो विचारानुचराः सवः । ८६४ सतां स सहओ भावो यत्स्तुवन्त्युपकारिणः । ८६५ अपकारोऽपि नीचानामुपकारः सतां भवेत् । ८६६ गुणगृह्यो हि सज्जनः । ८६७ दुःखं हि नाशमायाति सज्जनाय निवेदितम् । १०० पा. पु. १२.४१ प. पु. म. पु. ४५. १६५ प. पु. ११.५८ ८.५१ म.पु. ४२.२०३ प पु. १७.२८७ प पु. म.पु. ४३.१६६ म.पु. ७०.३२५ म.पु. ६३.२६६ म पु. ७६.१६ म.पु. ७१.१७३ म. पु. ६८.६४५ म.पु. ४७.१६६ म.पु. ७४.११० १.३७ प. पु १७.३३४ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHADRAMAnimaniam- 09 --- सन्त विरोध मिटानेवाले होते हैं । ---- सज्जनों के परोक्ष होने पर भी गुणवान् गुणों को नहीं छोड़ते। .सज्जनों को गुण प्राणों से भी अधिक प्रिय होते हैं । - जीवों की रक्षा करने में तत्पर लोग ही ऋषि कहलाते हैं। ... 'उत्तम पुरुष तुच्छ पदार्थों की इच्छा नहीं करते। - साधु लोग विरुद्ध प्राचरण करनेवाले नहीं होते । – धर्मात्मा शिष्टजन क्षमा, शौच आदि गुणों से युक्त होते हैं । ---- भव्य जीवों को महान् वन में भी मित्र मिल जाते हैं । - सत्पुरुष मानभंग करके ही कृतकृत्य हो जाते हैं । -~~ीतिमार्ग पर पलनेटाले पत्रकार मी नहीं करा : --- सत्पुरुष हितभाषी ही होते है। – प्रायः सज्जनों की चेष्टा कल्पवृक्ष के समान परोपकार के लिए ही होती है। स सज्जन पुरुष दूसरे के दुःख के कारण महाविभूतियों का भी त्याग कर BarsMind --- सज्जन हमेणा सद्विचारों का अनुसरण करते हैं। – सज्जन स्वभाव से ही उपकारियों की स्तुति करनेवाले होते हैं । --नीचजनों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनों के लिए उपकार रूप हो जाता है। --- सजन गुण से हो वश में होता है। --- सज्जन को बताया हुआ दुःख नष्ट हो जाता है। vywwwwwwxno Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ams00-00000000000 ८६८ उहितकरणकाले म स्खलन्ति प्रगल्भाः । है. पु. ३६.६४ ८६९ सामोरे हि प्राणी महंग कर . . . . . पु. ५०.३१ ९०० प्रभवो मितभाषिणः । म, पु. ३४.३० ६०१ सुनिश्चितानामपि सन्नराणा विना प्रधानेमन कार्ययोगः । प. पु. ५८.४८ १०२ विचित्रचित्ताः पुरुषाः । प. पु. ११५.६६३ ६०३ न कस्योपकुर्वन्ति विशवाशयाः ? म. पु. ७६.१८४ १०४ वेति स्वार्थ न यस्तस्य जीवितं पशुमा समम्। प. पु. ५३.१०३ ६०५ प्रलोकावपि हि प्रायो दोषाद्विम्यति सज्जनाः। ५. पु. १७.३३६ १०६ कं न कुर्वन्ति सज्जना दर्शनोत्सुकम् । प. पु. ८.४८ १०७ पक्षपातो भवत्येव योगिनामपि सज्जने । 20अपकारिणि कारुण्यं च करोति स सम्ममः । यु. पु. ३३.३०६ १०६ प्रणाममात्रसाध्यो हि महतो चेतसः प्रामः। पगु. ४८.३२ ६१० खली कुर्वन्ति लोका हि खलाः स्खलितमानसाः । पा. पु. १२.२०० ६११ गुणदोषसमाहारे होवान् गृह्णन्त्यसाधवः । ११२ स्नेहो नापोलिसात् बलात् । म. पु. ३१.१४० ११३ प्रदोषामपि दोषाक्तां पश्यन्ति रचना स्खलाः। प. पु. १.३७ ९१४ मलिमाः कुष्टिला मुग्धः पूज्यास्त्याच्या मुमुक्षुभिः । म. पु. ७४.३०७ ६१५ न विवन्ति खलाः स्वरा युक्तायुषतविचेष्टितम् । म. पु. ७०.२८६ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -www — HISVE --- चतुर मनुष्य उचित कार्य करते समय कभी नहीं चूकते । विनाश के समय हठी मनुष्य अपना हरु नहीं छोड़ता । प्रभावशाली लोग मितभाषी होते हैं । निश्चयवान् सज्जनों का कार्य भी किसी प्रधान पुरुष के बिना नहीं होता । पुरुष विचित्र चित्तवाले होते हैं । निर्मल हृदयवाले सवका उपकार करते हैं । जो अपने लाभ को नहीं समझता उसका जीवन पशु के समान है । — सज्जन पुरुष प्राय: मिथ्यादोष से भी डरते हो हैं । सज्जनों से मिलने की उत्सुकता सबको होती है । सज्जन के प्रति योगियों का पक्षपात होता ही है । पकारी पर भी जो करुणा करता है वह सज्जन है । महापुरुषों का मन प्रणाममात्र से शांत हो जाता है । दुरात्मा (दुष्ट पुरुष ) लोगों को दुष्ट बना ही देते हैं। साधु पुरुष गुण और दोषों के समूह में से दोष हो ग्रहण करते हैं । खल को पीड़ित किये बिना स्नेह नहीं मिलता । दुष्ट पुरुष निर्दोष रचना में भी दोष ही देखते हैं । मलिन और कुटिल जन प्रज्ञानियों द्वारा पूज्य और मुमुक्षुओं द्वारा त्याज्य होते हैं । स्वच्छन्द दुष्ट योग्य और अयोग्य चेष्टाओं में अन्तर नहीं समझते। १०३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कुष्टा हिंसादिदोषेषु निरताः पापकारिणः । ६१७ खलो ह्यन्यस्तथासहः । ६१६ कः प्रत्येति न दुष्टश्वेत् सद्भिर्निगदितं वचः । ६१६ कुष्टमाशीविषं गेहे वर्द्धमान सहेत कः । २० दुष्टानां नास्ति शुरूकरम् । ६२१ प्रायः स्वलन्ति चेतांसि महत्स्वपि दुरात्मनाम् । ६२२ निर्यात दुर्गति जन्तु कर्मा प्रतिपद्यते । ६२३ कष्टं दुष्ट विचेष्टितम् । ६२४ वुश्चेष्टस्यास्तपुष्यस्य सूतं भावि विनश्यति । ९२५ गुणोऽपि न गुणः खले । २६ नर्जी कतु खलः शक्यः श्वपुच्छ्वृशः । : ६२७ प्रसतां दूयते चित्तं श्रुत्वा धर्मकर्था सतीम् ६२८ मोहो जयति पापिनाम् । २६ निरर्थकं प्रियशतं मंतौ दीयते मतिः । १३० महद्भिरपि नो दानैरुपशाम्यन्ति युर्जनाः ६३१ न को वा दुश्चरित्राय कुप्यति । समय ९३२ कृतार्थस्य कालक्षेप हि निष्फलः । ९३३ यान्ति कालानुभावेन मृवयोऽपि कठोरताम् ६३४ तमः पतनकाले हि प्रभवत्यपि भास्वतः । म. सु. ४२.२०३ म. प्र. ६३.४६ म.पु. ४७.२५३ प्र. पु. ५८.१०० म.पु. ६२,३३६ म.पु. ३४.२१ प. पु. ६७.३३ म.पु. ७१.१६६ म.पु. ६८.५२६ म.पु. ६८.५६२ भ. पु. म. प्र. १.८६ १. ५६ प. पु. प. पु. ५३.२४८ ४८.६४ हैं. प्र. हैं. ग्रु. इ. पु. प. पु. ४८.३२ म. पु. ४३.६४ ५२.६४ ९. २८ १४.४० Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पापी लोग हिसादि दोषों में लोन होते हैं । --- दुष्ट दूसरे की स्तुति सहन नहीं कर सकता । - दुष्ट को छोड़कर सज्जनों के अपनों पर सब विश्वास करते हैं । - घर में बड़े होते हुए दुष्ट विषैले सांप को कोई सहन नहीं करता । -- दुष्ट पुरुषों के लिए कोई भी कुकर्म दुष्कर नहीं है । – प्राय: दुष्ट पुरुषों का हृदय बड़े लोगों का विरोधी बन जाता है । -~- बुरे काम करनेवाला निश्चित ही दुर्गति को प्राप्त होता है। - दुष्ट की चेष्टा कष्टदायी होती है । --- पुण्यहीन दुश्चरित्र मनुष्य का भूत और भावी सब बिगड़ जाता है । दुष्ट का गुण भी गुण नहीं होता। -- कुत्ते को पूछ की तरह दुर्जन को भी सीधा नहीं किया जा सकता। - अच्छी धर्मकथा सुनकर दुर्जनों का मन दुःखी होता है। .- पापियों का मोह बड़ा प्रबल होता है । .... दुष्ट को सैंकड़ों प्रिय वचनों के द्वारा दिया गया हितोपदेश भी व्यर्थ होता है। - दुर्जन बड़े-बड़े दान पाने पर भी शांत नहीं होते। -- इस संसार में दुराचारी पर सब कुपित होते हैं। :--MIRMIRE ..... ... ..... --- कार्य हो चुकने पर समय गंवाना व्यर्थ है । - समय के प्रभाव से कोमल भी कठोर बन जाते हैं । - सूर्य के पतन के समय अन्धकार की प्रबलता भी हो ही जाती है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......ga प. पु. ५३.२४९ a ६३५ कालो हि दुरतिक्रमः । ६३६ प्राप्त विनाशकाले हि बुद्धिर्जन्तोविनश्यति । ९३७ प्रमी थे दिवसा यान्ति न तेषां पुनरागमः । ६३८ यगतं गतमेव तत् ।। ६३६ को न कालबले बली । ४०.३८ .......... ४०.३६ ......mamiminishmeer.........:::::.:.:..:.:.: সন্ত্র ९४० सहितः समसम्बन्धः । म. पु. ४३.१६१ सम्यक्त्व मिथ्यात्व ६.४१ वर्शमेन विना पुंसां ज्ञानमज्ञानमेव भोः। 4. च. १८.१२ ६४२ वर्शनेन समो धर्मो जगत्त्रये न भूतो न भविता । व. घ. ४.४३ : HER-2imamtammar 2.४ : परम करवानां तात्ममतिभिर्मराग १४४ सम्यग्दर्शनहानौ तु दुःखं जन्मनि-जन्मनि । ६४५ सम्यग्दर्शनयोगात्तु गतिमध्यमसंशया। ६४६ सम्यग्दर्शनरत्नं तु साम्राज्यावपि दुर्लभम् । ६४७ मिथ्यात्वमोहिता जीवा न हि श्रद्दधते दुषम् । ६४८ किन कुर्वन्त्यमी मूढाः प्रौढमिथ्यात्ववेतसः। ६४६ मिथ्यास्वदूषितधियामध्यं धर्मभेषजम् । प. पु. ३१.८५ प. पु. ६६.४१ प. पु. २२.१७८ प. पु. ६६.४२ पा. पु. २३.३२ म. पु. ७१.१६५ म. पु. १.७ । ६५० मिश्यावेन समं पापं न भूतं न भविष्यति । प. प. ४.४४ साधु ६५१ ऋषपस्ते खलु येषां परिपहे नास्ति याचने वा बुद्धिः। प. पु. ११६.६१ १०६ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समय का उल्लंघन कठिन है। । ~ विनाशकाल प्राप्त होने पर प्राणी की बुद्धि नष्ट हो ही जाती है । --- बीते हुए (ये) दिन फिर लौट कर नहीं आते । ..... जो समय चला गया यह चला ही गया । - समय का बल पाकर सब बलवान हो जाते हैं । -- बराबरीवालों के साथ सम्बन्ध कल्याणकारी होता है । ---- सम्यग्दर्शन के बिना मानकों का ज्ञान प्रज्ञान ही है। - तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान न तो कोई धर्म था और न कोई होगा 1 .... समस्त भावों में सम्यक्त्व ही उत्कृष्ट तथा निर्मल भाव है। ...- सम्यग्दर्शन की हानि होने पर जन्म-जन्म में दुःख प्राप्त होता है । -- सम्यग्दर्शन से निःसन्देह ऊर्ध्वगति मिलती है।। – सम्यग्दर्शनरूपी रत्न साम्राज्य से भी दुर्लभ है । - मिथ्यात्व से मोहित जीव धर्म पर श्रद्धा नहीं करते । - पगाढ़ मिथ्यात्वी मूढ़ कोई भी कुकृत्य कर सकते हैं। ..... मिथ्यात्व-रोग से दूषित व्यक्ति को धर्मरूपी औषधि अरुचिकर होती है । --- मिथ्यात्व के जैसा पाप न हमा है, न होगा। . ..... ऋषि दे ही हैं जो निश्चय से परिग्रह अथवा याचना में बुद्धि नहीं रखते। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ मानसानि मुनीनां हि सुदिग्धान्यनुकम्पयः । ६५३ महात्मनागवंशालिनो भवन्ति बश्याः पुरुषा बलान्विताः । ६५४ रागद्वेषविनिर्मुक्ताः श्रमणाः पुरुषोत्तमः । ६५५ तेषां सर्वसुखान्येव ये श्रमण्यमुपागताः । ९५६ मुनिवृत्तेरसंगत्वम् । ६५७ गुणदोषसमाहारे गुणान् गृह्णन्ति साधवः । ६५८ साधुवर्गों हि सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः शुभमिच्छति । ६५६ साधुसमागमसक्ताः पुरुषाः सर्वमनीषिसंसेवन्ते । ६६० सतां हि साधुसम्बन्धास्थिसमानन्दमीयते । सुख/दु:ख ६६१ स्वसुखं को न वाञ्छति ? ६६२ सुखं नापरमुत्कृष्टं विद्यते सिद्धसौख्यतः । ९६३ सुखं दुःखानुबन्धि | ६६४ मनसो निर्वृति सौख्यमुन्तीह विचक्षणाः । ९६५ यथावस्थितभावानां श्रद्धानं परमं सुखम् । ९६६ प्रमदहेतवोऽपि सुखयन्ति मो दुःखितान् । ६६७ पशेषह्जयायता सिद्धिरिष्टा महात्मनः । ६६८ शोको हि नाम कोऽप्येष विषमेवो महत्तमः । ९६६ शोको हि पण्डितं ष्ट: विशाल भित्रनामकः । १०८ प. पु. ४८.४२ प. पु. प. पु. १०६.२०७ प. पु. ११८.११० म.पु. ८.२४६ प. पु. १. ३५ प पु. १७.१७१ प. पु. ६२.६२ प. पु. ११०.२५ ५०. ५४ प. पु. १४.३०६ प. पु. १०५.१६० म.पु. ८.७७ म.पु. ४२.११६ प. पु. ४३.३० हैं. पु. ४२.१०२ म. फु. ४२१२६ प. पु. प. पु. ४५.८१ ६.४८० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ― 7 -JAL 7 ― - --- मृगा — मुके से होते हैं. उन्नत गर्वशाली और बलशाली मनुष्य भी महात्माओं के वशीभूत हो जाते हैं। राग-द्वेषरहित श्रमण ही पुरुषोत्तम है । सारे सुख उन्हें ही प्राप्त हैं जो श्रमण हो गये हैं । मुनियों की वृत्ति परिग्रहरहित होती है । सत्पुरुष गुण और दोषों के समूह में से केवल गुणग्राही होते हैं । साधुवर्ग सभी प्राणियों का कल्याण चाहता है । साधु समागम करनेवालों के सब मनोरथ पूर्ण होते हैं । साधु-सम्बन्ध से सज्जनों का विस ग्रानन्दित होता है । अपने लिए सब सुख चाहते हैं । feastat के सुख से उत्कृष्ट सुख दूसरा नहीं है । सुख की परिणति दुःख में होती है । विद्वान् लोग मन की निराकुलता को ही सुख कहते हैं । जो पदार्थ जिस प्रकार अवस्थित हैं उनका उसी प्रकार श्रद्धा न करना परम सुख है ! दुःखी मनुष्यों को सुखद वस्तुएं भी सुखी नहीं करतीं । महात्मा को परीषह-जय से इष्टसिद्धि होती है। शोक सबसे बड़ा विषभेद है । पति ने शोक को हो दूसरा नाम पिशाच दिया है। १०६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० विवेकेन हि नियुका जायन्ते दुःखिनो अनाः ।। ....... १७१ भकरण मात्र कारणं दुःखमायने । प. पु. १.४७ प. पु. ८३.१३२ स्थान ६७२ कथं सह्या पादे चूसामाणिस्थिति : । म. पु. ६२.४३६ www .mon role-lawani स्वजन ६.७३ जननी जगन्मान्या । पा. पु. १२.३१६ ६७४ मान्या अनः सवा पूज्या जन्मदात्री क्यावहा । ६७५ संसारे न परः कश्चिन्नात्मीयः कश्चित्रंजसा ।। ___प. पु. ३१.५८ ६७६ कृत्यं कि आन्धवर्य न समर्था वुःखमोबने । प. पु. ११.३५४ ९७७ बन्धुरपि शत्रुरसौख्यवः । प. पु. १७.३०२ ९५८ यः प्रयोजयत्ति मानसं शुभे यस्य तस्य स परमः बान्धवः। प. पू. १७.१७८ ६७६ मिलिते स्वीये कस्य सौख्यं न जायते । पा, पृ. १७.६६ स्वामी शासक/ भूत्य ६० यथा राजा तथा प्रजाः । प. पु. १.० ६.१५६, पा. पु. १७.२६० १८१ मर्यादानां नृपो मूलम् । ५. पु. ५३.५ ९५२ प्रजानां रक्षितारस्ले कष्टमया हि मारकाः। पु. ७०.४६४ ६.८३ कण्टकोद्धरणेनैव प्रजानां क्षेमधारणम्। म. पु. ४२.१६४ ९८४ तरी चलति शाखाद्या विशेषान्न चलन्ति किम् ? म. पु. ६.६ १८५ न पूजयन्ति के पुरुषं राजपूजितम् ? म. पु. ४५.११५ ६८६ प्रायेण स्वाभिशीलवं संश्रितानां प्रवर्तते । म. पु. ७४.२१७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- दुःखीजन विवेक से रहित हो ही जाते हैं । -- उबंग करना दुःख से छूटने का कारण नहीं है । ...पैरों में चूडामणि का पहनना सहन नहीं होता । --- माला संसार में पूज्य है। .. दयामयी जन्मदात्री माता लोगों द्वारा सदा पूज्य मानी गई है । ... -- इस संसार में न तो कोई अपना है न कोई पराया। .... जो दुःख दूर नहीं कर सकते ऐसे बंधुओं से कोई लाभ नहीं है। - दुःख देनेवाला बंधु भी शत्रु ही है । - जो जिसके मन को अच्छे कार्य में लगा देता है वही उसका परम बन्धु है। --... स्वजनों से मिलने पर सबको सुख होता है । -- जैसा शासक होता है वैसी ही जनता हो जाती है । – शासक मर्यादाओं का मूल है। -- खेद है, प्रजा के रक्षक ही अब भक्षक हो गये हैं। - समाजकण्टकों को दूर करने से ही जनप्ता का कल्याण हो सकता है। -- वृक्ष के हिलने से उसकी शाखाएं भी हिलती ही हैं । ..... राजमान्य पुरुष की सब पूजा करते हैं । - आश्रितों का स्वभाव प्रायः स्वामी के समान ही हो जाता है। MACHAROSAROO A मिल्सि BASS ११ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .............. ६८७ तदेव राज्यं राज्येषु प्रजानां यत्सुखावहम् । ६८८ तृणाग्रविन्दुवद्राज्यं । १८६ सज्जल्पन्ति राजानः । ९६० परवसादं हि समीहते नराधिपाः । ६६१ स्वामिप्रसादलाभो हि वृत्तलाभोऽनुजीविनाम् । ६६२ भर्तृ सेवा हि भृत्यानां स्थाधिकारेषु सुस्थितिः । ९६३ परमार्थो हि निर्भीकै रुपवेशोऽनुजीविभिः । ९६४ पिप्रिये ननु संप्रीत्यै सरकार: प्रभुणा कृतः । ६६५ निर्मवस्यास्वतन्त्रस्य विग्भूत्यस्यासुषारणम् । ९९६ धिग्भूत्यतां जगनिन्द्याम् । स्वास्थ्य ६६७ सौख्याभावे कुतः स्वास्थ्यं, स्वास्थ्याभावे कुतः कुती । हम स्वस्थे वित्ते हि बुद्धयः । ६६६ उत्पत्तावेव रोगस्य क्रियते ध्वंसनं सुखम् । १००० नामयो गोपनीयो हि जनन्याः । १००१ स्वस्थस्य कुतः सुखम् ? १००२ निर्व्याधिः स्वास्थ्यमापनः कुरुते किन्तु भेषजम् । हिंसा / हिंसा १००३ हिंसा हि संस्ते लम् । १००४ महिला प्रवरं मूलं धर्मस्य परिकीर्तितम् । ११२ म. पु. पा.पु. ९५.२१५ प. पु. ५२.४० प. पु. १३४ म. . ३२.१०० ह्र. पु. ५६.२१ प. पु. ९.६.३ म.पु. ७.१८१ ४६. प. पु. ६७.१४८ व. पु. ६७.१४० म.पू. ह्र. पू. १८१५२ ह. पु. ६.११६ प. पु. १२.१६१ ६. ११८ म. 5. ५१.६७ म. तु. ११.१७० प. पु. २.१८१ प. पु. २६.१०० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARI H அப்பாகபோராபா tsammedawondwanatime AATAlipungage ----- राज्यों में राज्य वही अच्छा है जो जनता को सुख दे । -- राज्य तिनके के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान है। ..... शासक एक बार ही बोलते हैं । - राजा दूसरों का अहंकार मष्ट करना चाहते हैं। ....... स्वामी की प्रसन्नता से ही सेवकों को प्राजीविका प्राप्त होती है। .- भृत्यों द्वारा अपना कर्तव्यपालन करना ही सच्ची स्वामिभक्ति है । ..... निर्भीक अनुजीवियों का उपदेश ही परमार्थ है। ...... स्वामी द्वारा किया हुआ सत्कार सेवकों की प्रीति के लिए होता s mundstitutionali GooESRISHWAR B moviemusalonaddine . मद से शून्य और परतन्त्र भृत्य के जीवन को धिक्कार है । ----- लोकनिन्ध दासवृत्ति को धिक्कार है । ARBATHROBC850m ..... सुख के बिना स्वास्थ्य और स्वास्थ्य के बिना कृतकृत्यता संभव नहीं । LatesBMIND ..... मन स्वस्थ होने पर ही बुद्धि स्थिर रहती है। -- रोग को उत्पत्तिकाल में ही सरलता से शांत किया जा सकता है। ... माता से रोग नहीं छुपाया जाता। ... अस्वस्थ सुखी नहीं होता। .- नीरोगी मनुष्य को मौषधि सेवन करने की प्रावश्यकता नहीं होती। --- हिसा ही संसार का मूल कारण है। -- अहिंसा ही धर्म का श्रेष्ठ मूल है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध १००५ प्रवेशकालं न हि नर्म शोभते । ह. पु. ५४.६६ १००६ अनुगतकृत्यः प्राप्यते शं मनुष्यः । ४३.१२३ १७०७ अभ्यासात् कि न जायते ? १००८ प्रणालोकनारोधि हन्यते जगतस्तमः । म. पु. ४५१६ १००६ उच्छिष्ट भोजनं भोक्तुं भद्रे वाचति को नरः? प. पु. १२.१२६ १०१० उदितस्य सूर्यस्य निश्वितोऽस्तमयः पुरा । १०११ उन्मार्ग: के न पोड़येत् ? पा. पु. ३.१२० १०१२ कष्टमनिटेष्ट य शो ..::... ... ... .. ......... म. पू. ४५१६७ । १०१३ समसः प्रकटे वेशे कुतः स्थानं रखो सति । पु. ३१.८१ १०१४ दृष्टान्सः परकीयोऽपि शान्तभवति कारणम् । प. पु. ४१.१०१ १०१५ नवोऽनुशगवन्यो हि चन्द्रः । १०१६ न विना पाठबन्धन विधातुं सन शक्यते । .१०१७ न हि कश्चिद् गुरोः खेवः शिष्ये शक्तिसमन्धिते ।। १००.५७ १०१८ बहिरनो विधिः कुर्यावन्तरङ्ग विषौ तु किम् ? है. पु. १४.८६ १०१९ भजतां संस्तवं पूर्व गुणानामागमः सुखम् । प.पू. १५०.५१ Distan १०२० भटेषु भटमत्सरः। में पु. ४३ २३ १०२१ भ्रान्त्या प्रवर्तमानानां कुतः क्लेशाद् विना फलम् ? म. पु. ४६.६० १०२२ प्रक्षालानाद्धि पंकस्य दूरावस्पर्शनं वरम् ? #. पु. ६३३०६ १०२३ मालेव नो शक्या त्यक्तुं जन्मवसुन्धरा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANA - - 11 ---- - - wiwn ― देश और काल के विपरीत हंसी शोभा नहीं देती । कपालन करनेवालों को ही सुख-शान्ति मिलती है। अभ्यास से सब कुछ होता है । संसार के प्रकाश को रोकनेवाले अंधकार का सूर्य ही नाश करता है । ष्ट भोजन करना कोई नहीं चाहता । उदित हुए सूर्य का प्रस्तपूर्व निश्चित है । उari Rest दुःखी करता है । इष्ट-अनिष्ट की परम्परा दुःखदायी होती है । सूर्य से प्रकाशित स्थान में अंधेरा नहीं रह सकता । दूसरे का उदाहरण भी शांति का कारण बन जाता है । 329+ नवोदित चन्द्रमा को ही सब नमस्कार करते हैं । बिना नींव के भवन नहीं बनाया जा सकता । शिष्य के सशक्त होने पर गुरु को कुछ भी खेद नहीं होता । आन्तरिक रोग में बाह्य उपचार व्यर्थ है । पूर्व संस्कार से युक्त मनुष्यों को गुणों की प्राप्ति सहज ही हो जाती है । योद्धा योद्धाथों से ही ईर्षा करते हैं । भ्रान्ति में पड़े लोगों को कष्ट के बिना फल नहीं मिलता । कीचड़ में पैर रखकर उसे धोने की धपेक्षा उससे दूर रहना ही अच्छा। माता की तरह ही जन्मभूमि का त्याग भी नहीं किया जा सकता | ११५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२४ यः समुत्तरपदमार्ग १०२५ यो करुणा चेति द्वयमेतद्विरुध्यते । १०२६ रत्नानि ननु साम्येव यानि यान्युपयोगिताम् । १०२७ विचित्राहि देहिनाम् । १०२८ वातेनापहतसिन्धोः कणे का न्यूनता भवेत् ? १०२६ विषण: प्रातः सरसों नैव दुष्यति । १०३० शास्त्रमुच्यते तद्धि यन्मातृवच्छास्ति सर्वर जगते हितम् । १०३१ स्नेहशोक संता का विचारणा ? १०३२ हिरवा वाद्धिं महासिन्धुप्रसरः किं प्रसर्पति । ११६ प. पु. म. पु. म. पु. ४३. ३०४ प.पु. ४६.२०६ प. पु. ७२.६४ ३७.१६ १४.६२ . पु. ११.२०६ घ. पु. ७०.२९ पा.पु. ७.६५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BANKA ---- संसार सागर से पार होने का उपाय ही मार्ग है। ..... युद्ध करना और करुणा करना ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। ----- रत्न वे ही हैं जो उपयोग में पावें / - प्राणियों की कचि विचित्र होती है। . वायु से पानी की एक बूद उड़ जाने से समुद्र में कोई कमी नहीं पाती। 4. विष का एक कण सारे तालाब को दूषित कर सकता है। .... शास्त्र वही है जो माता के समान सबके लिए हितोपदेशी हो / .... स्नेह और शोकयुक्त मन में विचारणक्ति नहीं होती। ....- महानदी समुद्र को छोड़कर सरोवर की ओर नहीं जाती / 111