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________________ - AARTI - कर्म सबसे बड़ा गुरु (शिक्षक) है । सब जीव अपने किए का फल भोगते हैं । समस्त संसार अपने किये का फल भोगता है । इस संसार में कर्मोदय से अधिक बलवान कोई नहीं है । संसारी प्राणियों के लिए कर्मले श्रमिक जलवान् अन्य कोई नहीं है । कर्म से घिरने पर सज्जन इस संसार में दुःखी होते हैं । भाग्य के कुटिल होने पर यत्न (उद्योग) कुछ कहीं कर सकता । होनहार दुनिवार है । traft सबसे बड़ा गुरु है । समस्त संसार कर्म के अधीन है । कर्मों की विचित्रता के कारण मन की विविध चेष्टाएं होती हैं । अपने कर्मों के कारण लोगों की चित्तवृत्ति विचित्र होती है । जिस मनुष्य ने निकांचित कर्म बांधा है वह उसका फल नियम सं भोगता है स्वकृत भोगी प्राणियों की देव के श्रागे कोई गुरता नहीं चलती । मिलनेवाली वस्तु मिलती ही है उससे बचा नहीं जा सकता । पूर्व में किए हुए अशुभ कर्म बाद में उग्र सन्ताप उत्पन्न करते हैं । ---- -W wel - -w -- 157 प्राणियों को कर्म अनुसार ही फल मिलता है । सबलोग कर्मों का उचित फल भोगते हैं । होनहार को इन्द्र भी अन्यथा नहीं कर सकता । प्राणी कर्मवश ऊंची और नीची गति को प्राप्त करते रहते हैं । ------------------------------ ३६
SR No.090386
Book TitlePuran Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages129
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary & Literature
File Size2 MB
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