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मित्रों के अप्रिय वचन भी औषधि के समान प्राय हैं । ---- विरोधी की समीपता नेत्रसंकोच का कारण होती है ।
छोटा समझकर शत्रु की अवज्ञा नहीं करनी चाहिये ।
समय पाकर अग्नि का एक कण भी समस्त संसार को जला देता है। ... छिद्रान्वेषी शत्रु अपकार किये बिना नहीं रहते।।
- कांटा चाहे छोटा ही हो बलपूर्वक निकालने योग्य है । .--- शत्रु यदि छोटा हो तो भी यह उपेक्षणीय नहीं है। ... शत्रु अपने संस्कार का त्याग नहीं करता।
उपेक्षित शत्रु चाहे वह छोटा ही हो प्राख में पड़े हुए धूलिकण के
समान पीडाकारक होता है। -~-~~ इस लोक और परलोक में कर्म व इन्द्रियों के विषयों के अतिरिक्त
अतिदुःखदायी शत्रु और कोई नहीं है। --- बलवान् शत्रु भी दुर्बल हो जाने पर विजिगीषु द्वारा अनायास ही
जीत लिया जाता है।
..मोह चेतना को हर ही लेता है।
- रागी जीव दरिद्र होते हुए भी अपनी कुटिया को नहीं छोड़ सकना । .... मोही जनों के लिए तीन लोक में कोई कार्य अवस्य नहीं है ।
मोहान्ध मनुष्य इस लोक और परलोक में नाशकारी कर्म करते हैं। --- मोह से ही रागद्वष दुर्घर हो जाते हैं । ..--- मोह के प्रभाव से जीव आत्महित से भ्रष्ट हो जाता है।
--- मोह से कष्ट और पश्चासाप मिलते हैं।