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...... स्नेह-बंधन से प्राबद्ध मनुष्यों के लिए घर बन्दीगृह के समान है ।
- प्राणियों का संसारपरिभ्रमण रागवश होता है । .... राग और द्वेष से उत्पन्न संस्कार स्थिर हो जाते हैं । -- रागी पुरुष के दोष भी गुण के समान जान पड़ते हैं । -- रागी जीव कर्मों को बांधता है। ...... रागी मनुष्य अपकीति को तो सह सकता है परन्तु मन की व्यथा को
नहीं। .... प्राणी जिस योनि में जाता है उसी में रत हो जाता है । - सामियों का वात्सल्य निश्चय से स्नेह का परम कारण होता है । - समान लोगों में ही अनुरक्ति होती है । -- पृथ्वी पर समान अवस्थावाले मनुष्य ही सदभाव (पारस्परिक प्रीति
भाव) को प्राप्त होते हैं। - स्नेहरूपी पाश से बंधा प्राणी कठिनता से छूट पाता है । -.. सांसारिक दुखों का मूलकारण प्रासक्ति है। - स्नेहबंधन दुण्छेद्य है। - स्नेह सन्ध्या की लालिमा के समान है। ... स्नेह के लिए कोई कार्य दुष्कर नहीं है ।
-- परिचित स्नेह कठिनाई से ही छूटता है । --- सभी बंधनों से स्नेह का बंधन अधिक रद होता है । – प्रज्ञानपूर्ण वैराग्य स्थिर नहीं रहता । - उदासीनता बड़ी अनर्थकारिणी है । ---- उदासीनता ही सुख है।