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________________ ....... विद्वान् उत्कृष्ट गुणवाले शत्रु की भी प्रशंसा करते हैं । ..-- गुणी पुरुष दोषों को गुणरूप से और दुष्ट लोग गुणों को भी दोषरूप से ग्रहण करते हैं। - स्वयं दैदीप्मान प्राभूषण को दूसरे प्राभूषणों की अपेक्षा नहीं होती । गुणों की अधिकता से ही पुरुष सत्पुरुषों द्वारा मान्य और पूज्य होता है। Nagarikaawinner .... इस संसार में अधिक गुणवान् पुरुष लोक पूजित पुरुषों द्वारा भी पूना जातहै. ---- गुणीजन बन में भी करने योग्य कार्य से नहीं चूकते । --- गुणवान् उत्तम, धीर पुरुष स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करते। ----- गुणार्थी गुणों की कामना करते हैं । - गुणियों की संगति से गुण प्रकट होते है । F - -- - - गृहस्थ पड़े हुए शुक्ल वस्त्र के समान मलिनता को प्राप्त हो ही जाता है। ---- गृहरूपी पिंजड़े को मूर्ख मनुष्य ही पसन्द करते हैं, बुद्धिमान् नहीं । – काम और क्रोध आदि से पूर्ण गृहस्थ की मुक्ति नहीं हो सकती। - - मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति हो हितकारिणी है । - दुराचार से कमाया हया पाप सच्चरित्र से नष्ट हो जाता है। ----- वह चरित्र जिससे प्रारमा का हित न हो, ब्यर्थ है । - मनुष्य का अपना चरित्ररुपी सूर्य ही उसे आत्म सुधार के लिए प्रेरित करता है। 3
SR No.090386
Book TitlePuran Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages129
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary & Literature
File Size2 MB
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