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सम्पादकीय
पुराण भारतीय वाङ्मय के गौरव-ग्रन्थ है। जैन परम्परा में उनका और भी विशेष महत्त्व है। तीर्थकरों की वाणी को विशिष्ट पारिभाषिक शब्द 'अनुयोग' नाम से व्यबहुत किया गया है । समग्र अनुयोग प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रश्यानुयोग इन चार भागों में विभक्त है। इनमें में प्रथमानुयोग के अन्तर्गत को परिक्षत किया !::: ::
पुराण शब्द की व्युत्पत्तियों में 'पूरणात पुराणम्' भी मन्यतम व्युत्पत्ति है । अन तीर्थंकरों की वाणियों का पूरण करने के कारण इस साहित्य का नाम 'पुरा पड़ा। पूरक पदार्थ में मूल पदार्थ से भिन्नता होते हुए भी साश्य बना रहता है। उसमें मूल पदार्थ से एकजातीयता अनिवार्य है । फलतः पुराण तीर्थकरों की शान एवं तपःसाधना के कारण अन्स प्रस्फुटित वाणियों का शैली विशेष में उपस्थापन कर जनमानस का पथप्रदर्शक है । यह भी कहा जा सकता है कि पुराणों का तीर्थकरों की वाणी से सीधा सम्बन्ध है।
जैन वाङमय में साहित्य, धर्म, दर्शम प्रादि की सतत प्रवाहशील पारामों के साथ-साथ मुक्तिधारा भी प्रारम्भ से ही अविरल रूप से बहती रही है । जीवन की गहन अनुभुतियों को भारत के मनीषी प्राचार्यों, कवियों आदि ने काध्यममी भाषा में जनमानस के कल्याण के लिए--लोककल्याण के लिए प्रस्तुस किया है । इस प्रकार सूक्तियां भूतकाल की उपलब्धियों का सार तो है ही, बर्तमान युग के लिये पथ-प्रदशिका भी हैं । नैतिक स्थान के प्रेरक भनेक पद अथवा पद्यात्मक रचनाएँ सूक्तियों के रूप में समाज में प्रचलित हो गई हैं जो प्राप्त-जन की तरह कठिन एवं गहन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करके समाज के लिए वरद सिद्ध
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