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मृगा
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मुके
से
होते हैं.
उन्नत गर्वशाली और बलशाली मनुष्य भी महात्माओं के वशीभूत
हो जाते हैं।
राग-द्वेषरहित श्रमण ही पुरुषोत्तम है ।
सारे सुख उन्हें ही प्राप्त हैं जो श्रमण हो गये हैं ।
मुनियों की वृत्ति परिग्रहरहित होती है ।
सत्पुरुष गुण और दोषों के समूह में से केवल गुणग्राही होते हैं ।
साधुवर्ग सभी प्राणियों का कल्याण चाहता है ।
साधु समागम करनेवालों के सब मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
साधु-सम्बन्ध से सज्जनों का विस ग्रानन्दित होता है ।
अपने लिए सब सुख चाहते हैं ।
feastat के सुख से उत्कृष्ट सुख दूसरा नहीं है ।
सुख की परिणति दुःख में होती है ।
विद्वान् लोग मन की निराकुलता को ही सुख कहते हैं ।
जो पदार्थ जिस प्रकार अवस्थित हैं उनका उसी प्रकार श्रद्धा न करना परम सुख है !
दुःखी मनुष्यों को सुखद वस्तुएं भी सुखी नहीं करतीं ।
महात्मा को परीषह-जय से इष्टसिद्धि होती है।
शोक सबसे बड़ा विषभेद है ।
पति ने शोक को हो दूसरा नाम पिशाच दिया है।
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