Book Title: Puran Sukti kosha
Author(s): Gyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 121
________________ ― 7 -JAL 7 ― - --- मृगा — मुके से होते हैं. उन्नत गर्वशाली और बलशाली मनुष्य भी महात्माओं के वशीभूत हो जाते हैं। राग-द्वेषरहित श्रमण ही पुरुषोत्तम है । सारे सुख उन्हें ही प्राप्त हैं जो श्रमण हो गये हैं । मुनियों की वृत्ति परिग्रहरहित होती है । सत्पुरुष गुण और दोषों के समूह में से केवल गुणग्राही होते हैं । साधुवर्ग सभी प्राणियों का कल्याण चाहता है । साधु समागम करनेवालों के सब मनोरथ पूर्ण होते हैं । साधु-सम्बन्ध से सज्जनों का विस ग्रानन्दित होता है । अपने लिए सब सुख चाहते हैं । feastat के सुख से उत्कृष्ट सुख दूसरा नहीं है । सुख की परिणति दुःख में होती है । विद्वान् लोग मन की निराकुलता को ही सुख कहते हैं । जो पदार्थ जिस प्रकार अवस्थित हैं उनका उसी प्रकार श्रद्धा न करना परम सुख है ! दुःखी मनुष्यों को सुखद वस्तुएं भी सुखी नहीं करतीं । महात्मा को परीषह-जय से इष्टसिद्धि होती है। शोक सबसे बड़ा विषभेद है । पति ने शोक को हो दूसरा नाम पिशाच दिया है। १०६

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