Book Title: Puran Sukti kosha
Author(s): Gyanchandra Khinduka, Pravinchandra Jain, Bhanvarlal Polyaka, Priti Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

View full book text
Previous | Next

Page 55
________________ -~~ प्राणी का अपना कर्म ही उसका बन्धु या शत्रु है । ... बुद्धि कर्म के अनुसार होती है। --- कर्मों के माहात्म्य से असंभव वस्तु प्राप्त हो जाती है । ----- किया हुमा कर्म लौटकर अवश्य फल देता है। स- ARRIOR - कर्मों की विचित्रता के कारण यह चराचर विश्व विचित्र है। - सभी प्राणी कर्मों के वश से (अपनी अपनी) वृत्ति में लगे हुए हैं । - कर्मबंध की विचित्रता होने से सभी ज्ञानी नहीं हो जाते । - सब बलो में कर्मकृत बल ही सबसे अधिक बलवान है । कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। कर्मों को प्रेरणा विचित्र होती है । जिसका जो भवितव्य होता है वह अन्यथा नहीं हो सकता । विधि ही संसार का गुरु है । होनहार टाला नहीं जा सकता। विधाता सब कुछ कर सकता है । अपने किए कर्मों के अनुसार सबको सब कुछ मिल जाता है । - इस संसार में विधाता की चेष्टानों का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। भाग्य को विचित्रता योगियों द्वारा भी अगभ्य है । भाग्य की अनुकूलता से सब कुछ हो सकता है । भाग्य की मति बड़ी कुटिल होती है। भाग्य की लीला विचित्र होती है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129