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प्राकृत और अपभ्रंश प्राकृत भाषाओं के साहित्य में अभिवृद्धि होने पर संस्कृत की भाँति प्राकृत को भी सुगठित बनाने के लिये वैयाकरणों ने व्याकरण के नियम बनाये। लेकिन प्राकृत बोलियाँ अपने अनेक भिन्न-भिन्न रूपों में लोक में प्रचलित थीं। इससे जब वररुचि आदि वैयाकरणों ने पाणिनि को आदर्श मानकर प्राकृत व्याकरणों की रचना की तो संस्कृत की भाँति प्राकृत में एकरूपता नहीं आ सकी। पहले तो प्राकृत भाषाओं के प्रकार ही जुदा-जुदा थे। एक भाषा के लक्षण दूसरी भाषा के लक्षणों से भिन्न थे। फिर व्याकरण के नियमों का प्रतिपादन करते समय त्रिविक्रम और हेमचन्द्र आदि व्याकरणकारों ने जो 'प्रायः' 'बहुल', 'क्वचित्', 'वा' इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया है इससे पता लगता है कि ये नियम किसी भाषा के लिये शाश्वत रूप से लागू नहीं होते थे। यश्रुति और ण-न-संबंधी आदि नियमों में एकरूपता नहीं थी। खलु के स्थान में कहीं हु, और कहीं खु, तथा अपि के स्थान में कहीं पि, कहीं वि, कहीं मि और कहीं अवि रूप का चलन था । प्राकृत भाषा की इस बहुरंगी प्रवृत्ति के कई कारण थे। पहले तो यही कि जैसे-जैसे समय बीतता गया बोलियों में परिवर्तन होते गये; दूसरे, व्याकरणसंबंधी नियमों को बनाते समय स्वयं वैयाकरण असंदिग्ध नहीं थे; तीसरे, जिस साहित्य का उन्होंने विश्लेषण किया वह साहित्य भिन्न-भिन्न काल का था । अवश्य ही इसमें पांडुलिपि के लेखकों
और प्राकृत ग्रंथों के आधुनिक सम्पादकों का दोष भी कुछ कम नहीं कहा जा सकता।' ___ जो कुछ भी हो, इससे एक लाभ अवश्य हुआ कि प्राकृत कुछ व्यवस्थित भाषा बन गई, लेकिन हानि यह हुई कि जनजीवन से उसका नाता टूट गया । उधर जिन लोकप्रचलित
१. देखिये डा० पी० एल० वैद्य द्वारा लिखित त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन की भूमिका, पृष्ठ १७-२३ ।