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प्राकृत और संस्कृत .
के सम्बन्ध में
व्याकरण से शून्य पुरुष Taara हुआ भी नहीं देखता और सुनता हुआ भी नहीं सुनता।' इससे मालूम होता है कि व्याकरण का महत्व बहुत बढ़ रहा था । फलतः एक ओर संस्कृत शिष्ट जनसमुदाय की भाषा बन रही थी, और दूसरी ओर अनपढ़ लोग जनसामान्य द्वारा बोली
वाली प्राकृत भाषा से ही अपनी आवश्यकतायें पूरी कर रहे ये | स्वयं पाणिनि ने वाङ्मय की भाषा को छन्दस् और साधारणजनों की भाषा को भाषा कह कर उल्लिखित किया है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि साहित्यक भाषा और जनसामान्य की भाषा अलग-अलग हो गई थी । संस्कृत, प्राचीन
१. रक्षार्थं वेदानामध्येयं व्याकरणम् । लोपागमवर्णविकारज्ञो हिं. सम्यग्वेदाम्परिपालयिष्यतीति ।
उत स्वः पश्यन्त ददर्श वाचमुत वः शृण्वन्न, शृणोत्येनाम् । महाभाष्य १-१-१, पृष्ठ २०,४४ | पतंजलि ने ( महाभाष्य, भार्गवशास्त्री, निर्णयसागर, बंबई, सन् १९५१, १, पृष्ठ ७६, ८५ ) में लिखा है कि बड़े-बड़े विद्वान् ऋषि भी 'यद्वानः', 'तद्वानः ' इन शुद्ध प्रयोगों के स्थान में 'यर्वाणः' 'तर्वाणः' के अशुद्ध प्रयोग करते थे । उस समय पलाश के स्थान पर पलाष, मंचक के स्थान पर मंजक और शश के स्थान पर पष आदि अशुद्ध शब्दों का व्यवहार
किया जाता था ।
-सकल
२. रुद्रट के काव्यालंकार (२.१२ ) पर टीका लिखनेवाले नमिसाधु ने प्राकृत और संस्कृत का निम्न लक्षण किया है-स जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरना हितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबंधन भूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात्संस्कारकरणाच्च समासादितविशेषं सत्संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । व्याकरण आदि के संस्कार से विहीन समस्त जगत् के प्राणियों के स्वाभाविक वचनव्यापार को प्रकृति कहते हैं । उसे ही प्राकृत कहा जाता है । बालक, महिला आदि की समझ में यह सरलता से आ सकती है, और समस्त भाषाओं की यह कारणभूत है। मेघधारा