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शुभ शुभ दोनों प्रकार के वचन और रागादि भावों को छोड़कर जो भारमा को घ्या यहां भी शुभ वचन रचना को छोड़कर अर्थात् निर्विकल्प ध्यान करना कहा है। शुभमचन रचना श्री कुचकुंददेव के होतो दी पी अन्याय नायी
परमसमाधि में कहा है
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जो सर्वसाय प्रारंभ गरिग्रह से रहित हैं, तीन गुप्तियों में सहित हैं, पूर्ण जितेन्द्रिय है, उन्हीं के स्थायी मामायिक होती है ऐसा केवली भगवान के शासन में कष्टा है। यहां भी तीन गुप्ति से निर्विकरूप ध्यान के ध्याता मुनि लिये गये हैं। श्री कुरंदकुददेव के यह स्थायी सामाजिक गुप्तिरूप से कदाचित ही ध्यान में होती होगी ।
परमभक्ति में कहा है।
भो
विरदो सम्बलावज्जे तिगुलो पिहिडिदियो । तस्य सामान ठाई, इदि के सिसासणे ॥१२५॥
यह
जो साधु सर्व के प्रभाव में निविकल्प ध्यान में अपनी प्रात्मा को लगाते है वे योगभक्ति से युक्त हैं । इनसे अतिरिक्त इतर साधु के योग कैसे होगा; यहां पर मविकल्पों का प्रभाव होना बोतरा निर्विकल्प ध्यान में ही संभव है । यह ध्यान श्रेणी पारोहण में शुवल ध्यान में ही घटित होता है अतः श्री कुंदकुददेव के योक्ति न होकर मात्र भावना ही माननी चाहिये।
स्ववियामा अपाण जो जज साहू |
सो जोगमक्ति जुत्तों, इवरस्स य किये हवे जोगो ।।१३८ ||
घावश्यक में कहा है
जो चरवि मंत्रदो खलु भावे सो हवे अण्णवसो । लम्हा नरस दुकम् आवासयलवखणं ण हवे ।। १४४ ॥
जो संयत शुभाव में वर्तन करते हैं धन्यवश हैं। इसलिये उनकी क्रियायें प्रावश्यक लक्षण नहीं हैं। यह पर देवदारुवनामियों से प्रवृत्ति उड़ाई है। जब कि श्री फुटकुदेवस्य एवं शुभ क्रियायें करते ही थे । ये गुणस्थान में प्रवृत्ति करते हुये इन्हें छोड़ सकते थे ।
मागे कहते हैं—
स्वगुणपज्मयानं, चित्त जो कुणइ सो वि अण्णवसो । मोहपारमवगयसमा कहियंति एरियं ॥ १४५ ॥
REFRES