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नयचक्र
के मेल से व्यणुक बनता है या जैसे मनुष्यादि पर्याय है। द्रव्य तो त्रिकालस्थायी होता है, वह पर्याय की तरह उत्पन्न और नष्ट नहीं होता। इस प्रकार जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है, उसी प्रकार वह सत् भी स्वभाव से ही सिद्ध है। क्योंकि वह सत्तात्मक अपने स्वभाव से बना हुआ है। सत्ता द्रव्य से भिन्न नहीं है कि उसके समवाय से द्रव्य सत् हो। सत् और सत्ता ये दोनों पृथक् सिद्ध न होने से भिन्न-भिन्न नहीं हैं, क्योंकि दण्ड और देवदत्त की तरह दोनों अलग-अलग दृष्टिगोचर नहीं होते। इसके सम्बन्ध में पहले लिख आये हैं कि गुण और गुणी में अन्यपना है; पृथकूपना नहीं है।
तथा द्रव्य सदा अपने स्वभाव में स्थिर रहता है, इसलिए वह सत् है। वह स्वभाव है-ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय का एकतारूप परिणाम। उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता, व्यय उत्पाद के बिना नहीं होता, उत्पाद और व्यय ध्रौव्य के बिना नहीं होते और ध्रौव्य, उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता। तथा जो उत्पाद है, वही व्यय है, जो व्यय है वही उत्पाद है, जो उत्पाद और व्यय है वही ध्रौव्य है। जो ध्रौव्य है वही उत्पाद और व्यय है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
जो घड़े का उत्पाद है वही मिट्टी के पिण्ड का विनाश है, क्योंकि भाव भावान्तर के अभावरूप से दृष्टिगोचर होता है। तथा जो मिट्टी के पिण्ड का विनाश है, वही घड़े का उत्पाद है; क्योंकि अभाव भावान्तर के भावरूप से दृष्टिगोचर होता है। और जो घड़े का उत्पाद और पिण्ड का व्यय है, वही मिट्टी की स्थिति है। क्योंकि व्यतिरेक द्वारा ही अन्वय का प्रकाशन होता है। जो मिट्टी की स्थिति है, वही घड़े का उत्पाद और मिट्टी के पिण्ड का विनाश है; क्योंकि व्यतिरेक अन्वय का अतिक्रमण नहीं करता।
यदि ऐसा नहीं मानेंगे, तो उत्पाद अन्य है, व्यय अन्य है और ध्रौव्य अन्य है, ऐसा मानना होगा। ऐसा होने पर घट उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि मिट्टी के पिण्ड के विनाश के साथ ही घट उत्पन्न होता है; वही घट की उत्पत्ति का कारण है। उसके अभाव में घट कैसे उत्पन्न हो सकता है? यदि होगा तो असत् की उत्पत्ति माननी होगी। इस तरह जैसे घट की उत्पत्ति नहीं होगी, वैसे ही समस्त पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होगी और यदि असत की भी उत्पत्ति होगी, जो गधे के सींग भी उत्पन्न हो जाएँगे।
इसी तरह उत्पाद और ध्रौव्य के बिना केवल व्यय मानने पर मिट्टी के पिण्ड का व्यय ही नहीं होगा। क्योंकि मिट्टी का पिण्ड नष्ट होने के साथ ही घट उत्पन्न होता है। आप उसे विनाश से भिन्न मानते हैं, तो पिण्ड का विनाश कैसे होगा और यदि होगा, तो सत् का ही उच्छेद हो जाएगा। और ऐसा होने पर चैतन्य आदि का भी सर्वथा विनाश हो जाएगा।
तथा उत्पाद, व्यय के बिना केवल ध्रौव्य मानने से या तो मिट्टी ध्रुव नहीं होगी या क्षणिक ही नित्य हो जाएगा। अतः उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का परस्पर में अविनाभाव है और इसलिए द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है।
किन्तु द्रव्य का उत्पाद, व्यय आदि नहीं होता, पर्यायों का होता है और पर्याएँ द्रव्य की हैं, इसलिए यह सब द्रव्य के ही कहे जाते हैं। आशय यह है कि जैसे स्कन्ध, मूल, शाखा ये सब वृक्षाश्रित हैं, वृक्ष से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं, उसी प्रकार पाएँ द्रव्याश्रित ही हैं; द्रव्य से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं। तथा पर्याएँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप हैं; क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अंशों के धर्म हैं; अंशी के नहीं। जैसे बीज, अंकुर और वृक्षत्व ये वृक्ष के अंश हैं। बीज का नाश, अंकुर का उत्पाद और वृक्षत्व का ध्रौव्य तीनों एक साथ होते हैं, अतः नाश बीज पर आश्रित है; उत्पाद अंकुर पर, ध्रौव्य वृक्षत्व पर। नाश, उत्पाद, ध्रौव्य बीज, अंकुर और वृक्षत्व से भिन्न पदार्थ नहीं हैं। इसी तरह बीज, अंकुर और वृक्षत्व भी वृक्ष से भिन्न पदार्थ नहीं हैं। ये सब वृक्ष ही हैं। उसी प्रकार नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव और ध्रौव्य भाव सब द्रव्य के अंश हैं। तथा नाश, उत्पाद, ध्रौव्य उन भावों से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं। और वे भाव भी द्रव्य से भिन्न पदार्थ नहीं हैं। अतः सब एक द्रव्य ही हैं।
किन्तु यदि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अंशों को न मानकर द्रव्य को ही माना जाय, तो सब गड़बड़ हो जाएगा। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यदि द्रव्य का ही व्यय माना जाय, तो सब द्रव्यों का एक ही क्षण में विनाश हो जाने से जगत् द्रव्य शून्य हो जाएगा। यदि द्रव्य का ही उत्पाद माना जाय, तो द्रव्य में प्रति समय उत्पाद होने से प्रत्येक उत्पाद एक अलग द्रव्य हो जाएगा और इस तरह द्रव्य अनन्त हो जाएँगे। यदि द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाएगा, तो क्रम से होनेवाले भावों का अभाव होने से द्रव्य का ही अभाव हो जाएगा। इसलिए
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