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प्रस्तावना
२३
अनन्त तथा एक होता है, पर्याय सादि सान्त तथा अनेक होती है। द्रव्य शक्तिमान् है, पर्याय उसकी शक्तियाँ हैं। द्रव्य की द्रव्य संज्ञा है, पर्याय की पर्याय संज्ञा है। द्रव्य की एक संख्या है, पर्याय की अनेक संख्या है। द्रव्य त्रिकालवर्ती होता है, पर्याय वर्तमानकाल की होती है। इसी से दोनों के लक्षण भी भिन्न हैं। द्रव्य का लक्षण है'- गुणपर्यायवाला। पर्याय का लक्षण है-'तद्भाव' । उस-उस विशिष्ट रूप से होने को तद्भाव कहते हैं, उसी का नाम पर्याय है।
इस तरह द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। द्रव्य के तीन लक्षण कुन्दकुन्दाचार्य ने कहे हैं और तीन ही लक्षण सूत्रकार ने कहे हैं। यथा
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥१०॥
-पंचास्ति० सद्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।
-तत्त्वार्थ० अ.५ द्रव्य का लक्षण सत् है तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से जो युक्त है, वह द्रव्य है और गुणपर्याय का जो आश्रय है वह द्रव्य है।
सूत्रकार ने इसमें इतना परिवर्तन कर दिया कि जो सत् है वह द्रव्य और जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त है वह सत् है। इस तरह प्रकारान्तर से द्रव्य ही सत् है और वही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त है। वस्तुतः ये तीनों ही लक्षण विभिन्न रूप से द्रव्य की विशेषताओं को बतलाते हैं। सत् कहने से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और गुणपर्याय नियम से गृहीत होते हैं। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त कहने से सत् और गुणपर्यायवत्व गृहीत होते हैं तथा 'गुणपर्यायवत्' कहने से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और सत् गृहीत होते हैं। इस तरह ये तीनों ही लक्षण परस्पर में अविनाभावी हैं। क्योंकि जो सत् है, वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य होने से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है। एक द्रव्य में क्रम से होनेवाली पर्यायों की परम्परा में पूर्व पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं, उत्तर पर्याय की उत्पत्ति को उत्पाद कहते हैं और पूर्व पर्याय का विनाश तथा उत्तर पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपनी जाति को न छोड़ने का नाम ध्रौव्य है। गुण ध्रुव होते हैं, पर्याय उत्पाद विनाशशील होती हैं। अतः उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त से गुणपर्यायवत्व सिद्ध होता है। इस तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, नित्यानित्यस्वरूप परमार्थ सत् को कहते हैं और गुणपर्याय को भी कहते हैं। क्योंकि गुणपर्याय के बिना उत्पाद, विनाश, ध्रौव्य सम्भव नहीं है। इसी तरह गुण अन्वयी होते हैं। प्रत्येक अवस्था में वे द्रव्य के साथ अनुस्यूत रहते हैं। पर्याय व्यतिरेकी होती हैं जो प्रति समय परिवर्तनशील होती हैं। अतः गुणपर्याय उत्पाद, विनाश और धौव्य का सूचन करते हैं तथा नित्यानित्यस्वभाव परमार्थ सत् का अवबोध कराते हैं।
आगे परस्पर में व्यंजक इन तीनों लक्षणों के सम्बन्ध में शास्त्रीय दृष्टि से और भी प्रकाश डाला जाता है।
सत्ता या अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है। वह अन्य साधनों से निरपेक्ष होने से अनादि-अनन्त है। उसका कोई कारण नहीं है, सदा एक रूप से परिणत होने से वैभाविकभाव रूप नहीं है। द्रव्य भाववान् है और अस्तित्व उसका भाव है। इस अपेक्षा से द्रव्य और अस्तित्व में भेद होने पर भी प्रदेश-भेद न होने से द्रव्य के साथ उसका एकत्व है, अतः वह द्रव्य का स्वभाव ही है। वह अस्तित्व जैसे भिन्न-भिन्न द्रव्यों में भिन्न-भिन्न होता है, उस तरह द्रव्य, गुण, पर्यायों का अस्तित्व भिन्न-भिन्न नहीं है। उन सबका अस्तित्व एक ही है।
एक द्रव्य से दूसरा द्रव्य नहीं बनता। सभी द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं। और चूँकि वे अनादि-अनन्त हैं, अतः स्वभावसिद्ध हैं। क्योंकि जो अनादि-अनन्त होता है, उसकी उत्पत्ति के लिए साधनों की आवश्यकता नहीं होती। उसका मूल साधन तो उसका गुणपर्यायात्मक स्वभाव ही है, उसे लिये हुए वह स्वयंसिद्ध ही है। जो द्रव्यों से उत्पन्न होता है, वह द्रव्यान्तर नहीं है; किन्तु पर्याय है, क्योंकि वह अनित्य होती है; जैसे दो परमाणुओं
१. गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।-त.सू. ५। २. तद्भावः परिणामः।-त.सू. २।
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