Book Title: Mahakavi Bramha Raymal Evam Bhattarak Tribhuvan Kirti Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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भविष्यदत्त चौपई
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प्रायिका ने उसे श्रत पंचमी व्रत पालन का उपदेश दिया। उसने कहा कि आशढ सुदी पंचमी को प्रथम बार इस व्रत को ग्रहाण करके कानिक, फागुन या आषाढ़ की पहली शुक्ल पंचमी को व्रत का प्रारम्भ करके उस दिन उपवास करना चाहिये तथा षष्ठी के दिन एक बार प्रहार करना चाहिये तथा जिनेन्द्र देव की पूजा करनी चाहिये । इन दिनों में अत्यधिक संयम पूर्वक जीवन बिताना चाहिये । यह व्रत पांच वर्ष एवं पचि महिने तक होता है। उसकी वाद उद्यान करना चाहिये । यदि उद्यापन करने की स्थिति नहीं हो तो दुगने समय तक इस व्रत का पालन करना चाहिये । कमलथी ने श्रुत पंचमी के व्रत को अंगीकार कर लिया और उसका उद्मापन भी कर दिया इसके पश्चात् भी जब उसका पुत्र नहीं पाया तो वह प्रायिका उसे मुनि श्री के पास ले गयी जो मन्दिर में विराजे हुए थे। वे मुनि अवधिज्ञानी थे। इसलिये कमल श्री के पूछने पर मुनि महाराज ने कहा कि उसका पुत्र अभी जीवित है । वह द्वीपान्तर में सुख से रह रहा है । यहां आने पर वह प्राधे राज्य का स्वामी होगा । कमलश्री फिर भविष्यदत्त के पाने के दिन गिनने लगी।
एक दिन भविष्यरूपा में भविष्यदल से अपनी ससुराल के बारे में फिर पूछा। तत्काल भविष्यदत्त को अपने माता के दुखों का स्मरण या गया । वह पछनाने लगा मौर शीघ्न ही हस्तिनापुर जाने की तैयारी करने लगा । वे बहुत से मोती. माणिक आदि लेकर उसी गुफा में होकर समुद्र तट पर आ गये और हम्तीनापुर जाने वाले जहाज की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ दिनों पश्चात् वहां बन्दत्त का जहाज भी पा गया बन्धुदत्त का बहुत बुरा हाल था । उसके पास न खाने को था और न पहिनने को । सर्व प्रथम पह भविष्यदत्त को पहिचान भी नही सका । लेकिन फिर दोनों भाई गले मिले । बन्धुदत्त ने अपने बड़े भाई से क्षमा मांगी। भविष्यदत्त ने सबका यथोचित सम्मान किया और ज्योंही वह जहाज़ पर बैठ कर चलने को हुप्रा भविष्यानुरूपा को नागशय्या एवं नागमुद्रिका की याद मा गयो । भविष्यदत्त जब नागमुद्रिका लेने को गया, बन्धुदत्त ने जहाज घालबा दिया । भविष्यदत्त फिर अकेला रह गया । भविष्यदत्त खूब रोया चिल्लाया और अन्त में मूछित होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे होश आया तो वह उठ कर फिर तिलकद्वीप में चला गया । वहां भी वह अपने सूने मकान को देख कर रोने लगा। अन्त में चन्द्रप्रभु जिनालय जाकर भगवान की पूजा करने लगा।
इधर बन्धुदत्त का मन वाराना में भर गया और वह भविष्यानुरूपा से मनोकामना पूरी करने के लिये कहने लगा। किन्नु वह अपने शोल पर दृढ रह कर उसे परमार्थ का उपदेश देने लगी। जहाज अन्त में तट पर आ गया । और व हस्तिनापुर पहुंच गये । बन्धुदत्त के पहुंचने पर माता पिता हर्षित हुये। लेकिन