Book Title: Mahakavi Bramha Raymal Evam Bhattarak Tribhuvan Kirti Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
हाथ जोड वीनती करू अड़ी, हम तो अडग लई भाषडी । के तो परमहंस ने घरू, नहीं तर भकत कवारी मरूं ॥३७॥
सोटी वसत तू दीजे राल, जीह थे पाछे भाव गाल । खरी बसत को की नंगोकार, तिहं ते सुअसा लहै संसार ॥३८॥
परमहंस माया सुन बैन, उपनो हरष विकासे नैन । ईह सम भोग भोगलं घणो, सफल जमारोतो हम तणो ॥३६॥
परमहंस तव कियो विचार, माया कू कर मंगीकार । पटरांणी राखी कर भाव, परमहसके मन प्रती चाव ॥४०॥
दसु' प्राण सुत माया तणां, त्यांका भेद भाव है घणी । कर कलोल प्रापन रंग, जिम अटवी कर फिर सुचग ॥४१ ।।
स्पर्सना रसन घान घर कान, त्यांह का विर्षे अधिकह बान । पिता तणी नवी मान प्रान, फिर सु इच्छा थान कुथान ।।४२॥ मन पापी जु पाप चितयो, पिता बांधि तब बंदि महि दयो । परमहंस सवही राम भयो, सकल तिषाई मुरख हव गयो ।।३।।
राजा मन जु राज भोगवे, इंद्री सहोत जोर-प्रती हवै । राजकुवर परगी दव नारी, परवृत्यरु निरवस्य कुमारी ।।४४ ।।
पाई कुरि जहें वंदीखान, परमहंस दुख देखे जान । सकल दरसन चारीत वरने, तिह का दुख बरण कुन ।।४।।
मन की तीया प्रवृत्य गहीर, मोह पुत्र जायो घरवीर तीन लोक में तीह की गाज, सत्तर कोड़ा कोडी साज ॥४६ ।।
सो मोह सगलो संसार, धन कुटंब मांड्यो पसार । गति चार में फिरानै सोई, पाल जाल न निकसे कोई 11४७।।
दुजी कामनी सो मन तणी । निरवृस्प नारी सुलखणी । तीह के पुत्र भयो प्रती धीर, नांब विवेक सुगुनह गहीर ।।४८ ।।