Book Title: Mahakavi Bramha Raymal Evam Bhattarak Tribhuvan Kirti Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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सत्यभामा का उत्तर
प्रद्युम्न रास
हो देवि मर्ण मुनि तप लीजे, हो तप करि चारि कषायन कीजें | मान करत तप फल नही जी, हो मान विना जिणवरि तप भास्यो । तुम्ह सौ मान तजी नहीं जी, हो कहिने जो मुकति किमी परिजास्यौ । १५ ।
हो भ रिषिसुर देवि अभागी हो हमने जी सोख देण तु लागी । पाप धर्म जाणं नही जो, ही मुक्त ने जी मान दान सहु भा 1 सुर नर सह सेवा करें जी. हो सीनि लोक मुझ मे सह कर्प ||१६|
हो मुनिस्यो भणे नारायण धरणी, हो उपसम धर्म जती को करणी । सत्रु मित्र सम करि गिणे जी, सोनो तिनो बराबर जाणो । आणई छोउ भोजन करे जी हां सो मुनिवर पहुंचं निर्वाणि ॥ १७॥
हो सुणी बात नारद पर जलियो, हो जाणिकि त अग्निस्थों मिलियौं । मन में चिता अति करें जो हो भामा लेई समद में राली । कामिण हत्या थे डरो जी, हो के इह अग्नि मछि परिजाली ||१८ ॥
हो नारदि हियई बात वित्रारी, हो नाराइग आणी नारी । इहि थे रूपि जु भगली जो हो सोकि त दुखि धर्ण विरं । राति दिवस कुदि वो करं जी. हो बहुडि पराया मरमन नूरी || १
नारद ऋषि का प्रस्थान
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हो बात विचार रिषीसुर चाल्यो, हो विद्याधर को देस निहाल् भामा सम का मिणी नही जी, हो मन में भयो प्रधिक अभिमानो | हियर्ड चिता बहु करें जी, हो तजी नींद यस पाणी छानो २०
हो भूमि गोचरी राजा ठामो, हो पटण देस नम्र गढ शमी । नारद परिथी सङ्घ फिरी जी, भायो चलि कुंडलपुर ठाए । दोडी सोमा नम्र को जी, हो राज करें तहा भीषम राए ||२१||
हो श्रीमती पटि तिया घरि सोहै, हो रूप कला सुर सुंदरि मोह | रूप पुत्र रूपहि भलो जो हो सुता रुत्रिमणी रूपि अपारो । सुगं प्रपचरा सारिखी जो हो, सो भीषम के परिवारे ।। २२ ।।