Book Title: Mahakavi Bramha Raymal Evam Bhattarak Tribhuvan Kirti Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
कि उसके शरीर में श्वास कैसे रह सकती है इसीलिए वह भी उन्हीं के पास रहेगी।"
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माद्रपद मास भाद्रपद मास में भी खूब वर्षा होती है। नदी नालों में खूब पानी बहता है । रात्रियां डरावनी लगती है । श्रवकगरण इस मास में व्रत एवं पूजा करते हैं। ऐसे महिने में हैं राजुल अकेली कैसे रह सकती है ?"
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आज मास - श्रासीजे मास में पाछे बसरतो पाला गती लगता है। इस मास में पुरुष एवं स्त्री के टूटे हुये स्नेह भी जुड़ जाते हैं। दशराहे पर पुरुष और स्त्री भक्ति भाव से दूध दही और घृत की धारा से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं । लेकिन हे स्वामिन् आप मुझे क्यों दुःख दे रहे हो ।
कार्तिक मास कार्तिक मास पुरुष और स्त्री दोनों को उदीप्त करने वाला है । चारों ओर स्वच्छ जल भरा रहता है जो स्वादिष्ट लगता है । इम मास में स्त्रियां अपना श्रृंगार करती है। इसी मास में देवता भी सोकर उठ जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान पूजा भी की जाती है । हे स्वामिन् हमें छोड़ कर क्यों दुख दे रहे हो । मंगसिर मास- मंगसिर मास में अपने पति के साथ में पत्नी को यात्रा करनी चाहिय । चारों प्रकार के दान देने चाहिये। रात्रियां बड़ी होती हैं और दिन छोटे होते हैं राजुल नेमिनाथ से कह रहीं है कि उसका दुख कोई नहीं जानता है ।
१ अहो सावरगड वर सुवियार, गाजै हो मेघ अति घोर घार । श्रमलम लावे जी मोरटा, श्रहो मेरी जी काया में रहै न मासु । नेमि सेवि राजन मर्णे, स्वामी छाड़ हो नही जी तुम्हारी जी पास ।।८५
२ अहो भादवडी वर असमान, जे ताही व्रत ते तात जी थान । पूजा हो श्रावक जन रची, नदी हो नाला भरि चानं जो नीर | दीस जी राति रावणी, स्वामी तुम्ह बिना कैसी हो रहे जी सरीर |
ग्रहो कालिंग पुरिम तीया उदमाद रिमाली पान पाखी घणा स्वाद 1 करो हो सिंगार ते कामिनी, ग्रहो उड्डो जी देव जति तरणा जोग । पूजा सो कीर्ज जी जिया ती स्वामी हमकु जी दुख
तुम्ह तो जो विजोग १८८
कंत के साथि ।
वोळाजी होइ ।
ही मागिसिरां इक कीजं जी जात, तीरथ परिसि विवि दान दोर्जे सदा, अहो राति बडी दिन नेमि सेथी राजल भरणं, स्वामि मेरो हो दुख न जाणे जी कोई || ८६ ॥