________________
अन्तरपरूवणा
१३६. अब्भवसि० सत्तण्णं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० अणंतकालं० । अणु० जह० एग०, उक्क० बेसम० । आउ० मदि०भंगो।
१३७. खड्ग० धादि०४ उक्क. जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा. सादिः । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । वेद०-णामा-गोदा० ओघभंगो। आउ० [उक० अणु० ] जह० एग०, उक्क० पुच्चकोडितिभागं देसू० । अणु० ओघ ।
विशेषार्थ-कृष्णलेश्यावाले जीवोंके चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तीन गतिमें सम्भव है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । जो नरक जानेके सन्मुख कृष्णलेश्यावाला जीव है ,उसके अन्तमें कृष्णलेश्या हो जाती है और नरकसे निकलनेके बाद भी अन्तर्महर्त काल तक यह बनी रहती है, इसलिए साधिक तेतीस सागर काल उपलब्ध हो जाता है। परन्तु वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि, सर्वविशुद्ध नारकीके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। कृष्णलेश्यामें आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तिर्यश्च और मनुष्यके होता है, इसलिए इसमें आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि इनके एक लेश्या अन्तमहर्तसे अधिक काल तक नहीं पाई जाती। नील और कापोत लेश्यामें सात कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नारकियोंके ही होता है, इसलिए इनमें सातों कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर कहा है । पीत और पद्मलेश्यामें चार घातिकर्मोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध देवगतिमें होता है और देवोंमें पीतलेश्याका मुख्यतासे दूसरे कल्प तक व पद्मलेश्याका बारहवें कल्प तक निर्देश किया जाता है। इनकी उत्कृष्ट आयु क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है, इसलिए इनमें चार घातिकर्मोके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध इन लेश्याओंमें सर्वविशुद्ध अप्रमत्तसंयतके होता है, तथा पुनः उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी योग्यता पाने तक लेश्या बदल जाती है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहनेका कारण यह है कि इनमें इन कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। शक्ललेश्या में चार घातिकर्मोका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सहस्रार कल्प तक होता है, इसलिए इसमें इन कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। शेष कथन सुगम है ।
१३६. अभव्य जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । आयु कर्मका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-अभव्य जीवोंके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है । इसीसे यहाँ आयु कमेके अतिरिक्त सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागवन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। यह स्पष्ट है कि इन सात कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संझी, पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है । शेष कथन सुगम है।
१३७. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों में चार घाति कमों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका भङ्ग ओघके के समान है । आयु कर्मके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org