Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 326
________________ कालपरूवणा 31 મ एग०, उक्क० तेत्तीस० देसू० । णवरि मिच्छत्त० अज० जे० अंतो० । सादासाद०चदुआयु० -- णिरयगदि -- देवर्गादि -- चदुजादि - छस्संठा०-- वस्संघ० - दोआणु० --दोविहा थावरादि४-थिरादिछयुगल- उच्चा० ज० ज० एग०, उ० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उक्क० अंतो० । इत्थि० णवुंस० -अरदि-सोग आदाउज्जो० ओघं । पुरिस०हस्स - रदि० ज० ओघं० । अज० ज० एग०, उ० अंतो० । तिरिक्खगदि ३ ज० एग० । अज० णाणा०भंगो | मणुस ० - मणुसाणु० ज० ओघं । अज० ज० एग०, उ० ऍकतीसं ० सू० | पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा ० क ० -ओरालि० अंगो०--पसत्थ०४अगु०३ -तस०४ - णिमि० ज० ज० एग०, उक्क० वेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तेत्तीस ० सू० | वेडन्त्रि ० वेडव्त्रि ० अंगो० इत्थिभंगो | काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व के अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, नरकगति, देवगति, चार जाति, छह संस्थान, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि छह युगल और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, आतप और उद्योत का भङ्ग ओघ के समान है । पुरुषवेद, हास्य और रतिके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओधके समान है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यञ्चगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका काल ज्ञानावरण के समान है। मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागबन्धका काल ओघ के समान है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है । पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, त्रसचतुष्क और निर्माण के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका भङ्ग स्त्रीवेद् के समान है । ३०१ 1 विशेषार्थ -- विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अतः इसमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकी प्रकृतियों के तथा तिर्यञ्चगतित्रिक और पञ्च ेन्द्रिय जाति आदिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। मिध्यात्व गुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त है और मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागबन्ध संयम के अभिमुख हुए मिध्यादृष्टि जीवके अन्तिम समय में होता है । इसका ही यह अर्थ है कि शेष समय में उसका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है। इसीसे इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । सातावेदनीय आदि सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ कही गई दो आयु यद्यपि सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ नहीं हैं, पर उनका उत्कृष्ट बन्ध ही अन्तमुहूर्त काल तक होता है, अतः उनकी साता आदिके साथ परिगणना कर ली है। स्त्रीवेद आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल जो ओघ के समान कहा है सो यहाँ भी अजघन्य अनुभाग 1 १. ता० आ० प्रत्यो मिच्छत्त अपज्ज० ज० इति पाठः । इति पाठः । ३. ता• प्रतौ एग० तेत्तीसं० देसू" इति पाठः । Jain Education International २. श्रा० प्रतौ तिरिक्खगदि०४ ज० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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