Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 327
________________ ३०२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५४१. आभि०--सुद० -ओधि० पंचणा०-छदंसणा०--चदुसंज०--पुरिस०-भयदु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-समचदु०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-पसत्य-तस०४सुभग-सुस्सर--आदें--णिमि०-उच्चा०-पंचंत० ज० एग० । अज० ज० अंतो०, उक्क० छावहि. सादि० । सादासाद०-दोआयु०--थिरादितिण्णियुग० ज० अज० ओघं । अपञ्चक्रवाणावर०४-तित्थ० ज० एग० । अज० ज० अंतो०. उक्क० तेत्तीसं० सादि० । पञ्चक्रवाणा०४ जह० एग० । अज० [ ज० ] अंतो०, उक्क० बादालीसं सादि० । चदुणोक०-आहारदुगं ओघं । मणुसगदिपंचग० ज० एग० । अज० ज० अंतो०, उक्क० तेत्तीस० साग० । देवगदि०४ ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० तिणिपलि० सादि०। Pawani बन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त लिया है। सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे यहाँ पुरुषवेद आदिके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तमुहूत है,यह स्पष्ट ही है। यहाँ मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध नौवें अवेयकमें कुछ कम इकतीस सागर तक होता है । इससे इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । वैक्रियिकद्विक यहाँ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनका भङ्ग वीवेदके समान कहा है। ५४१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छियासठ सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु और स्थिर आदि तीन युगलके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अप्रत्याख्यानावरण चार और तीथङ्कर प्रकृतिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। प्रत्याख्यानावरण चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक व्यालीस सागर है ! चार नोकपाय और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्त. मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगति चतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट साधिक तीन पल्य है। विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी आदिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छियासठ सागर प्रमाण होनेसे यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छियासठ सागर कहा है । सातावेदनीय आदिका काल ओघके समान है,यह स्पष्ट ही है । चतुर्थ गुणस्थानका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल १. ता. पा. प्रत्यो तेत्तीसं० सादि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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