Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ ३६० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ज० अज० ज० ए०, उ. अणंतका० । मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० ज० अज० ज० ए०, उ० असंखेंज्जा लोगा। ६०७. ओरालियका० पंचणा०--णवदंसणा०--मिच्छ०--सोलसक०--भय--दु०आहारदुग-- अप्पसत्थ०४-उप०--तित्थ०--पंचंत० ज० अज. पत्थि अंतरं। सादाजघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि ३० प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है । तिर्यश्चगतित्रिका सातवें नरकमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है और तीर्थङ्कर प्रकृतिका मनुष्यके मिथ्यात्वके अभिमुख होनेपर होता है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। यद्यपि तिर्यश्वगतित्रिकका अन्तमुहूर्त काल के बाद पुनः जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है,पर उस समय तक योग बदल जाता है। तथा जो उपशमश्रेणिमें काययोगके रहते हुए एक समय या अन्तमुहूर्त के लिए इनका अबन्धक होकर और मरकर देव होने पर इनका बन्ध करता है,उनकी अपेक्षा इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। मात्र तिर्यञ्चगतित्रिकका यह अन्तर परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे प्राप्त होता है। तथा पुरुषवेद, हास्य और रतिका भी यह अन्तर इस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। काययोगके रहते हुए स्त्यानगृद्धि आदि प्रकृतियोंका दो बार जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध उपलब्ध नहीं होता, अतः इनके अन्तरका निषेध किया है। यद्यपि काययोगकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल प्रमाण है, पर ओघसे इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण ही बतलाया है । इसलिए इन प्रकृतियोंके स्वामित्वको जानकर यह घटित कर लेना चाहिए। विशेषताका निर्देश हम ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। स्त्रीवेद आदि सब परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। जहाँ इनमेंसे कुछ प्रकृतियोंका दीर्घकाल तक निरन्तर बन्ध भी होता है,वहाँ काययोग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक उपलब्ध नहीं होता, इसलिए भी यहाँ वही अन्तर प्राप्त होता है । नरकायु और देवायुका पश्चन्द्रियके बन्ध होता है और वहाँ काययोगका काल मनोयोगके समान है, इसलिए इन दो श्रायुओंका भङ्ग मनोयोगियोंके समान कहा है। अोघसे तिर्यञ्चायके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक कह आये हैं। वही यहाँ जानना चाहिए। मात्र मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल इसलिए कहा है कि मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध करके लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य हुआ, फिर अनन्तकाल तक तिर्यश्च रहा और अन्तमें मनुष्यायुका जघन्य अनुभागबन्ध किया। इस प्रकार मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल प्राप्त हो जाता है। तिर्यश्चायुके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है, यह स्पष्ट ही है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगतित्रिकका बन्ध नहीं होता, अत: इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। ६०७. औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय, जुगुप्सा, आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके १. ता. आ. प्रत्यो: चदुसंघ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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