Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 444
________________ --- - - - - अन्तरपरूवणा ४१६ वज्ज । थीणगि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० णत्थि अंतरं। अज० उवरिमगेवजभंगो। सादादिचदुयुग० ज० ज० ए०, उ० तेतीसं० सादि० । अज० ओघं । इत्थि-णवंसगदंडओ उवरिमगेवज्जभंगो । अहकल-पंचणोक०-दोआउ० तेउभंगो । मणुसगदि०४ ज० ज० ए०, उ० अहारस. सादि० । अज० ज० ए०, उ० बेस० । देवगदि०४ ज० [ज० ] ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० तेतीसं० सादि० । पंचिंदि०-तेजा-क०-पसत्थवण्ण०४-अगु०३-तस०४-णिमि०-तित्थ० ज० ज० ए०, उ० अहारस सा० सादि० । अज० ज० एग०, उ० बेस० । आहारदु० ज० णत्थि अंतरं। अज० ज० ए०, उ० अंतो० । समचदु०-वजरि०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सरआदें-उच्चा० ज० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० देसू० । अज० सादभंगो'। ६३१. मन्वसिद्धि० ओघं। अभवसिद्धि० धुवियाणं ज० ज० ए०, उ. समान है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर कहना चाहिए। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर उपरिम अवेयकके समान है। सातावेदनीय आदि चार युगलके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेद दण्डकका भङ्ग उपरिम अवेयकके समान है। आठ कषाय, पाँच नोकषाय और दो आयुओंका भङ्ग पीतलेश्याके समान है। मनुष्यगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। देवगतिचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, सचतुष्क, निर्माण और तीर्थङ्करके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। आहारकद्विकके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है । विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदिका और स्त्रीवेद आदिका बन्ध उपरिम अवेयक तक ही होता है, इसलिए इनका विचार इसी दृष्टिसे किया है। मनुष्यगति आदि चारका और पञ्चन्द्रियजाति न्ध सहस्रार कल्प तक ही होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। समचतुरस्त्रसंस्थान आदिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि करता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर कहा है । शेष कथन स्पष्ट है । ६३१. भव्य जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। अभव्योंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य १. ता. श्रा. प्रत्योः प्रज. ज. सादभंगो इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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