Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 439
________________ ४१४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६२८. णील-काऊणं पंचणाणावरणादिधुविगाणं पसत्थापसत्थ०४-अगु०-णिमि०उप०-पंचंत० ज० ज० ए०, [उक्क० देसू० सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि । अज० ज० ए०] उ० बेस० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ ०-अणंताणु०४दंडो णिरयभंगो। साददंडओ किष्णभंगो। असोददंडओ किण्णभंगो। णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । इत्थि०-णवंस०उज्जी० ज० अज० ज० ए०, उ० सत्तारस-सत्तसाग० दे० । पंचणोक०-पंचिं०ओरालि०-ओरालि०अंगो०-पर-उस्सा०--तस०४ ज० ज० ए०, उ० सत्तारस-सत्तसाग० देसू० । अज० सादभंगो। चदुअआउ०-दोगदि-चदुजादि--दोआणु०-आदावथावरादि०४ किण्णभंगो। तिरिक्खग०३ ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० सत्तारस-सत्तसारोवमाणि दे० । मणुस०-मणुसाणु०-उच्चा० ज० ज० ए०, amraanwmammy अनार दो समय कहा है। चार संस्थान और पाँच संहननका जघन्य अनुभागबन्ध तीन गतिके जीव परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे करते हैं। ये एक समयके अन्तरसे भी सम्भव हैं और नरकमें प्रवेश करनेके बाद होकर वहाँसे निकलने पर भी सम्भव हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है तथा ये एक तो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं। दूसरे नर कमें सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नपुंसकवेदके समान प्राप्त होनेसे वह उसके समान कहा है। हुण्डसंस्थान आदिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर चार संस्थानोंके समान ही घटित करना चाहिए। मात्र यहाँ जघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट अन्तरमें दो अन्तमुहूर्त अधिक कहने चाहिए। एक प्रवेशके पूर्वका और एक निर्गमके बादका। तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मनुष्यके मिथ्यात्वके अभिमुख होने पर अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इसके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। ६२८. नील और कापोत लेश्यामें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर व कुछ कम सात सागर अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार दण्डकका भङ्ग नारकियोंके समान है। सातावेदनीय दण्डकका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। असातावेदनीय दण्डकका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और उद्योतके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। पाँच नोकषाय, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। चार आयु, दो गति, घार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चारका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। तिर्यश्चगति तीनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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