Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 441
________________ ४१६ महाबधे अणुभागबंधाहियारे ६२६. तेऊए पंचणाणावरणादिधुविगाणं अप्पसत्थ०४-उप०--पंचंत० ज० पत्थि अंतरं । अज० ए० । अथवा ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० बेस० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० णत्थि अंतरं। अज० ज० अंतो०, उ० बेसाग० सादि। सादासाद-थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० ज० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि० दोहि मुहुत्ते । अज० ज० ए०, उक्क० अंतो० । अहक०-आहारदु० ज० अज० णत्थि अंतरं । इत्थि०-णस०-तिरिक्ख०-एइंदि०-पंचसंठा०-पंचसंघ०तिरिक्खाणु०-आदाउज्जो०--अप्पसत्यवि०-थावर-भग-दुस्सर-अणादें-णीचा. ज. अज० ज० ए०, उ० बेसाग० सादि०। पुरिस०-हस्स-रदि० ज० णत्थि अंतरं । अज० सादभंगो। अरदि-सोग० ज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । देवाउ० ज० ज० ए०, उ० अंतो० । अज० ज० ए०, उ० बेसम० । दोआउ० देवभंगो । मणुस०कृष्णलेश्यामें कर आये हैं, उस प्रकार यहाँ कर लेना चाहिए। नील लेश्यामें तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला मनुष्य तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध करता है, इसलिए इसमें इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय बन जाता है। तथा कापोत लेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य स्वामित्व सामान्य नारकियोंके समान होनेसे उसके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नाराकयाक समान कहा है। शेष अन्तर कृष्णलेश्याक अन्तरका देखकर घटित कर लेना चाहिए । ६२६. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभाग. बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है अथवा जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार के जघन्य अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशाकीर्तिके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो मुहूर्त अधिक दो सागर है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। आठ कषाय और आहारकद्विकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच सहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । पुरुपवेद, हास्य और रतिके जघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। अरति और शोकके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । देवायुके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। दो आयुओंका भङ्ग देवोंके समान है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र १. श्रा० प्रती ज० ए० अंतो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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