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अन्तरपरूवणा
४०१ ६१७. माणे पंचणा० सत्तदंसणा०-मिच्छ०--पण्णारसक०-आहारदुग--पंचंत. ज० अज० णत्थि अंतरं । णवरि कोषसंजल. अज० ज० ए०, उ० अंतो० ।
६१८. मायाए पंचणा०--सत्तदंसणा--मिच्छ०-चॉइसक०--आहारदुग-पंचंत. ज. अज० पत्थि अंतरं । णवरि कोध-माणसंज० अज० ज० ए०, उ० अंतो० । अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए तो इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागनन्धके अन्तर कालका प्रश्न ही नहीं। अब रही प्रथम दण्डककी शेष प्रकृतियाँ सो उनमें से स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके होता है, आठ कषायोंका संयमके अभिमुख हुए जीवके जघन्य अनुभागबन्ध होता है और आहारक. द्विकका जघन्य अनुभागबन्ध प्रमत्तसंयतके अभिमुख हुए जीवके होता है, यतः इन प्रकृतियोंका क्रोध कषायके रहते हुए दूसरी बार जघन्य अनुभागबन्ध प्राप्त होना सम्भव नहीं है, क्योंकि क्रोध कषायका काल थोड़ा है, इसलिए यहाँ इनके भी जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्धके अन्तरकाल का निषेध किया है। तीर्थङ्कर प्रकृति के सिवा निद्रादिक प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध भी क्षपकश्रोणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। रही तीर्थंकर प्रकृति सो इसके जघन्य स्वामित्वको देखते हुए उसका अन्तरकाल भी सम्भव नहीं है, अतः इसके भी जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा उपशमश्रोणिमें इनका एक समय या अन्तर्मुहूर्त तक अबन्धक होकर और मरकर देव पर्यायमें इनका बन्ध सम्भव है । अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है । मात्र निद्रा और प्रचला की बन्धव्युच्छित्ति होनेपर अन्तमुहूर्त काल तक मरण नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर भी अन्तमुहूर्त जानना चाहिए । तिर्यश्चगतित्रिकका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सातवें नरकके नारकीके होता है । यतः यह जघन्य अनुभागबन्ध क्रोधकषायमें दो बार सम्भव नहीं और ये परावर्तमान प्रकृतियाँ है, अतः इनका अन्तर कथन पाँच नोकपाय आदिके समान होनेसे उनके समान कहा है। शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियाँ एक तो परावर्तमान हैं और दूसरे इनका जघन्य अनुभागबन्ध एक समयके अन्तरसे सम्भव है, अतः इनके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है।
६१७. मानकषायमें पाँच ज्ञानावरण, सात दर्शनावरण, मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय, आहारकद्विक और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि क्रोधसंज्वलनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-उपशमश्रोणिमें मानकषायके उदयमें क्रोध संज्वलनकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिए इसमें क्रोध संज्वलनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त बन जाता है । शेष कथन क्रोधकषायके समान है।
६१८. मायाकषायमें पाँच ज्ञानावरण, सात दर्शनावरण, मिथ्यात्व, चौदह कषाय, आहारकद्विक और पाँच अन्तरायके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि क्रोध और मान संज्वलनके अजवन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-माया कषायके उदयमें क्रोध और मान कषायकी बन्धन्युच्छित्ति होकर एक समयके अन्तरसे या अन्तमुहूर्तके अन्तरसे मरकर इसके देव होने पर पुनः इनका बन्ध होने
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