Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 343
________________ ३१८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५५६. णिरयेसु पंचणा०-छदंसणा०--बारसक०--भय-दु०-पंचिंदि०-ओरालि०तेजा०-क०-ओरालि अंगो०-पसत्थापसत्थवण्ण४-अगु०४-तस४-णिमि०-पंचंत० उ० ज० एग०, उ० तेत्तीसं० देसू० । अणु० ज० एग०, उक्क० बेसम० । थीणगिदि०३मिच्छ०-अणंताणुवं०४-इत्थि०-णबुंस०-तिरिक्खगदि-पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्वाणु०अप्पसत्थ०-दूभग०-दुस्सर-अणादें-णीचा० उक्क० अणु० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० ही नहीं होता। इस कालका जोड़ एकसौ पचासी सागर है, अतः इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ पचासी सागर कहा है। औदारिकशरीर आदि तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी मनुष्यगतिके समान है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल मनुष्यगतिके समान कहा है। जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है,उसके सम्यक्त्वके प्रारम्भ कालसे उत्तम भोगभूमिमें रहनेके काल तक इन तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, अतः इनके इसके अन्तरकालका निषेध किया है। अप्रमत्तसंयतका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल कहा है। उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध सातवें नरकके नारकीके होता है और सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमाण है, अतः इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधेपुद्गल परिवर्तन कालप्रमाण कहा है। तथा जो जीव दो बार छियासठ सागर कालतक सम्यक्त्व और मध्यमें सम्यग्मिथ्यात्वके साथ रहकर मिथ्यात्वके साथ अन्तिम प्रैवेयकमें उत्पन्न होता है, उसके इतने कालतक इसका बन्ध ही नहीं होता। अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एकसौ त्रेसठ सागर कहा है। उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणीमें होता है, अतः इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके इसका बन्ध ही नहीं होता और इनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। यहाँ सर्वत्र अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय एक समयके अन्तरसे दो बार उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके ले आना चाहिए। मात्र जहाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है,वहाँ उपशमश्रेणिमें एक समयतक उन प्रकृतियोंका बन्ध न कराकर ले आना चाहिए । मात्र ऐसे जीवको उपशमश्रोणिमें एक समयतक उन प्रकृतियोंका अबन्धक रखकर और दूसरे समयमें मरण कराकर देवोंमें उत्पन्न कराकर उन प्रकृतियोंका बन्ध कराना चाहिए। ५५६. नारकियोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुक्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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